कनकौवा..

एक से दूसरे प्लेटफार्म तक जाने में उसका सांस फूल गया था। बीच में प्लेटफार्म की सीढ़ियां चढ़ना और उतरना भी पड़ा था। प्लेटफार्म नं. 7 की हद शुरू होते ही उसने देखा, रेलगाड़ी ने धीरे-धीरे सरकना शुरू कर दिया था। गार्ड ने हरी झंडी बेशक हवा में उठा रखी थी, परन्तु उसकी नज़रें पीछे की ओर उस तरफ थीं, जिधर से वह भागा चला आ रहा था। उसका एकमात्र अटैची उठाये कुली उसके आगे हो कर भागा था। उसी ने गाड़ी के आखिरी डिब्बे में उसका अटैची फैंक कर उसे गाड़ी में सवार होने में मदद भी की थी। गाड़ी में सवार होते-होते उसने सौ का एक नोट कुली की ओर उछाल दिया था। हरी झंडी हिलाते गार्ड ने उसे भाग कर आते देख अपना हाथ नीचे कर लिया था। चालक ने भी जैसे उसे देख लिया था, और गाड़ी की गति को धीमा कर लिया था। सांस की धौंकनी थमने पर उसने बैठने के लिए सीट की तलाश की। वह ऐसी जगह बैठना चाहता था जहां से वह बाहर की दृश्यावली को निकटता से एहसास के साथ देख सके। शीघ्र ही उसने ऐसी एक सीट पहले से बैठे यात्री के साथ सांझा कर भी ली। रेलगाड़ी ने अब जैसे गति पकड़ना शुरू कर दी थी। रेल पटरी के दोनों ओर दूर-दूर तक फैले खेत, और खेतों के किनारों पर उगे वृक्ष ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो रेलगाड़ी के गिर्द गोलाकार घूम रहे हों। मार्च महीने का दूसरा सप्ताह—दिन को बेशक गर्मी बढ़ गई थी लेकिन रातों को अभी भी थोड़ी ठंडक वाली नमी मौजूद थी। रात को प्लेटफार्म पर बैठे हुए उसने ऐसा ही महसूस किया था। खेतों के बीच में से उठती गेहूं की उपजती बालियों और सरसों के फूलों की मिली-जुली सोंधी-सोंधी महक उसके नथुनों के ज़रिये मन-मस्तिष्क तक पहुंची तो अपनेपन का एक शीतल-सा एहसास उसके पूरे जिस्म को गुदगुदा कर पास से गुज़र गया। जालन्धर शहर अब बहुत पीछे छूट गया था। गाड़ी अब पूरे वेग के साथ भागने लगी थी, और उसी के समानांतर भागते हुए उसके विचार पीछे की ओर लौटने लगे... पन्द्रह वर्ष का बहुत लम्बा अंतराल...जैसे वह बनवास भोग कर लौट रहा हो—यही महीना था, यही दिन... सात मार्च। तब भी मौसम ऐसा ही था। दूर-दूर तक उसके अपने खेतों में फैली थी गेहूं की फसल। हर खेत के एक चौकोर टुकड़े पर सरसों के फूल लहलहाया करते...आज भी शायद वैसा ही हो। बीसेक मुरब्बों तक फैली थी उसकी ज़मीन—बारह उसके अपने, और आठ आलमदीन लोहार के। दोनों हिस्से एक साथ जुते हुए थे जैसे। दोनों के खेतों में पानी के लिए एक ही आड़ थी। कुआं भी दोनों का एक ही था...सांझा। खेत जोतने और खेतों में पानी देने के दिन कुआं चलाने के लिए भी बैल भी दोनों कभी-कभार ज़रूरत पड़ने पर साझा कर लेते। दोनों के बीच पग-वट्ट भाईचारा था। पिता-पुरखी तौर पर दोनों परिवार बटवारे से पहले के पड़ोसी थे। बटवारे के समय आलमदीन पर आ़फत बनी तो परगट सिंह सीना तान कर उसके समक्ष खड़ा हो गया था। फिर किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि आलमदीन के घर की ओर आंख उठा कर भी देख सके। आलमदीन की एक बेटी थी जिसका उसने नाम रखा, शीरीन। यह शीरीन नाम धीरे-धीरे सिकुड़ते हुए शीरीं बन गया। शीरीन अपने नाम ही की भांति बड़े मीठे स्वभाव की थी। वह तब पांचेक साल की रही होगी। उसकी मां उसे जन्म देते ही खुदा को प्यारी हो गई थी। उसका पालन-पोषण उसकी अपनी मां चिन्तकौर ने ही किया था— अपने घर की असील गाय का दूध मिला-पिला कर। शीरीन का स्वभाव भी तो जैसे किसी असील गाय जैसा ही था। बटवारे के तीन वर्ष बाद उसका अपना जन्म हुआ तो एक महीने बाद चिन्त कौर को भी वाहेगुरु ने अपने पास बुला लिया। परगट सिंह ने गुरुद्वारा साहिब से मिले वाक के अनुसार उसका नाम रखा वीर सिंह। शीरीन अब तक बड़ी हो चली थी। वह चौथी कक्षा में पढ़ती थी, और बिन मां की बेटी होने के कारण, उम्र से अधिक स्यानी प्रतीत होने लगी थी। चिन्त कौर की मौत के बाद वीर सिंह का पालन-पोषण शीरीन के हाथों ही हुआ उसी गाय का दूध पी कर मानो कुदरत ने एहसान चुकता किया हो। सुबह पांच-छ: बजे से लेकर 9-10 बजे तक शीरीन दोनों घरों के काम निपटाती रहती—कभी उस घर, कभी इस घर। दोनों घर खाते-पीते कहलाते। अपनी ज़मीन, अपना लवेरा। दोनों घरों में एक-एक, दो-दो कामे भी थे। फिर भी शीरीन का काम कभी भी कम नहीं होता था। परगट सिंह ने सेना में भर्ती ली, तो कुछ ही वर्ष बाद वह सूबेदार हो गया।