वैश्विक आतंकवाद को बढ़ावा देने में जुटा चालबाज़ चीन


वैश्विक आतंकवाद पर दुनिया कितनी संजीदा है इसका अंदाजा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन की चालों से चल गया है। परिषद के स्थायी स्दस्य देशों अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और रशिया को ठेंगा दिखाते हुए चालबाज चीन ने यह बता दिया कि ग्लोबल आतंकवाद पर दुनिया के आंसू सिर्फ  घड़ियाली हैं, जमीनी हकीकत दूसरी है। चीन ने चौथी बार वीटो का इस्तेमाल करते हुए भारत की कूटनीति पर पानी फेर दिया। भारत और उसका मित्र राष्ट्र अमरीका चाह कर भी पाकिस्तानी आतंकी एंव जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक अजहर मसूद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कराने में नाकामयाब रहे। हालांकि भारत चीन की फितरत से पूर्व परिचित था। आतंकी मसूद पर सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव पास हो जाता तो उसकी मुश्किलें बढ़ जाती। वह किसी देश की यात्रा नहीं कर पाता। हथियार नहीं खरीद सकता था। उसकी संपत्तियां जब्त हो जाती। पुलवामा हमले के बाद भारत को पूरा भरोसा था कि वह अपनी कूटनीति के जरिए दुनिया के देशों को वैश्विक आतंकवाद की भयावहता समझाने में कामयाब होगा और मसूद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी घोषित करवा पाएगा, चालबाज़ चीन खुद मसूद से डर गया और चौथी बार  इस पर तकनीकी अड़ंगा लगा दिया। जबकि पूरी दुनिया इस्लामिक आतंकवाद से त्रस्त है। जिसमें परिषद से जुड़े सभी स्थाई और अस्थाई देश शामिल हैं। 
भारत के प्रस्ताव पर चीन 2009, 2016, 2017 और अब 2019 में वीटो का प्रयोग कर चुका है। चीन इस तरह का कदम क्यों उठा रहा है। इसके पीछे उसकी मंशा क्या है। क्या चीन खुद आतंकवाद से डरता है। जिसकी वजह से वह उसे पाल-पोष रहा है। भारत में 2014 में हुए राजनीतिक परिवर्तन के बाद दक्षिणपंथी विचारधारा वाली भाजपा ने वामपंथी पृष्ठभूमि वाले चीन से नए संबंधों की शुरुआत की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार चीन की यात्रा की और चीनी राष्ट्रपति शिनपिंग भारत आए। चीन के साथ संबंधों के सुधार में भारत ने बड़ा कदम उठाया। ऐसा लगा कि एक बार भारत-चीन संबंध फिर नेहरु युग की तरफ  बढ़ रहे हैं। हिंदी-चीन भाई-भाई का नारा सच साबित होता दिखा। लेकिन चालबाज चीन की नीयत में कोई बदलाव नहीं आया और हमें डोकलाम जैसा धोखा मिला। लेकिन भारत ने चीन को मुंहतोड़ जवाब दिया। चीन की इस जलन की मुख्य वजह भारत और अमरीका की मजबूत दोस्ती भी है। क्योंकि चीन खुद को तीसरी शक्ति के रुप में प्रदर्शित करना चाहता है। वह सैन्य और आर्थिक विस्तार के जरिए पूरे दक्षिण एशिया में अपनी दादागिरी की नीति पर आगे बढ़ रहा है। वह दुनिया पर अमरीका के बजाय खुद का अधिकार चाहता है। चीन भारत की बढ़ती ताकत को खुद के लिए बड़ा खतरा मानता है। क्योंकि भारत जितना मजबूत होगा दक्षिण एशिया में उसकी पकड़ उतनी ढीली होगी। जिसकी वजह से वह चाहता है कि भारत अपने पड़ोसियों से उलझा रहे। यही कारण है कि वह आतंकवाद पर दोगली नीति का अनुशरण कर रहा है। 
एक रिपोर्ट के अनुसार चीन का शिनजियांग राज्य मुस्लिम बाहुल्य है। यहां काफी संख्या में इस्लामिक चरपंथ  से जुड़े वीगर मुजाहिदीन रहते हैं जो पाकिस्तान समर्थित हैं। 1989 में शिनजियांग के राज्य के कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन में 156 लोगों की मौत हुई थी। जिसे दबाने के लिए चीन ने एक रणनीति बनायी और तालिबानी नेता मुल्लाह उमर से मुलाकात की। जिसमें उमर ने चीन को भरोसा दिलाया कि अब वहां ऐसी कोई गतिविधियां नहीं होंगी। तालिबान की उसी वफादारी का कर्ज चीन चुकाता चला आ रहा है। उसे डर है कि अगर मसूद को वैश्विक आतंकी घोषित कराने में वह भारत के साथ खड़ा होता है तो चीन में भी आतंकवाद अपनी जड़ें जमा लेगा। दूसरी तरफ  चीन और पाकिस्तान को जोड़ने वाला उसका अति महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट आर्थिक गलियारे का काम प्रभावित होगा। क्योंकि यह गलियारा पाक अधिकृत कश्मीर से गुजर रहा है। जिसका भारत विरोध कर रहा है। यह गलियारा खैबर पख्तून से गुजर रहा है जो आतंकी गढ़ है। चीन को डर है कि अगर उसने मसूद के खिलाफ कोई गलत कदम उठाया तो उसका ड्रीम प्रोजेक्ट खटाई में पड़ सकता है। जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी दक्षिण एशिया में विस्तारवादी नीति पर विराम लगा सकते हैं। क्योंकि आतंकी खुद चीनी इंजीनियरों और मजदूरों को सुरक्षा मुहैया करा रहे हैं। उस स्थिति में चीन भला अपना हाथ क्यों जलाएगा। मसूद पर और सबूत मांगने की बात तो उसकी साजिश है। भारत सारे सबूत सौंप चुका है। संसद हमला, उड़ी, पठानकोट और अब पुलवामा। कितने सबूत चाहिए। चीन के इस फैसले के बाद भारत में बेहद गुस्सा है। इस पर राजनीति भी शुरू हो गयी है। लेकिन इस तरह के मसलों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। प्राथमिकता में पहले राष्ट्र है फिर राजनीति है। कहा जा रहा है कि चीनी वस्तुओं का बहिष्कार कर उसे सबक सिखाया जाए। क्योंकि चीन के व्यापारिक हित को जब नुकसान पहुंचेगा तो उसकी नींद खुलेगी। फिलहाल इस नीति से चीन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि भारत चीन को सिर्फ  20 हजार करोड़ का सामान निर्यात करता है यानी कुल व्यापार का यह चार फीसदी है जबकि चीन का कुल निर्यात 16 फीसदी है। भारत से व्यापारिक साझेदारी करीब 90 हजार करोड़ सालाना की है। इस लिहाज से साफ है कि हमारी निर्भरता चीन पर अधिक है। हम चीन का विशेष अहित नहीं कर सकते। चीन को इसकी ही चिंता होती तो वह पाकिस्तान और आतंकवाद के साथ दोस्ती नहीं निभाता। 
सुरक्षा परिषद को अगर वैश्विक आतंकवाद की ंिचंता है तो वह चीन की दादागिरी पर दूसरा रास्ता अख्तियार कर सकता है। अमरीका ने चीन को चेताया भी है कि उसके बगैर भी इस प्रस्ताव पर मुहर लग सकती है। सुरक्षा परिषद में अमरीका, रुस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन पांच स्थाई सदस्य हैं जबकि दस देश अस्थाई हैं। प्रस्ताव पास कराने के लिए सिर्फ  नौ देशों का समर्थन चाहिए। जबकि भारत के साथ नौ से अधिक देश हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ और संबंधित देशों को इस पर तत्काल कदम उठाते हुए फैसला लेना चाहिए। पाकिस्तान और चालबाज चीन के लिए अच्छा समय है। यूएन दुनिया को यह संदेश भी देने में कामयाब होगा कि वह वैश्विक आतंकवाद पर किसी समझौते के पक्ष में नहीं है। दूसरी तरफ पाकिस्तान को भी उसकी औकात मालूम होगी। इस तरह की सहमति नहीं बनती है तो संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं का कोई मतलब नहीं निकलता। फिर यह मान लिया जाएगा कि शक्तिशाली देशों की चिंता आतंक पर दिखावा है। जब दुनिया यह जान गयी है कि अजहर मसूद को पाकिस्तान का खुला संरक्षण है। पाकिस्तान और चीन उसे बचाने में लगे हैं। उस स्थिति में भारत को दुनिया की परवाह किए बगैर आतंकवाद से निपटने के लिए और कड़े कदम उठाने चाहिए। (संवाद)