ईश्वर को भेंट करने की वास्तविकता 

ईश्वर की पूजा करके, उसे भेंट में क्या दिया जाए? यह सबसे बड़ी समस्या है जिस पर विचार करना आवश्यक है। इसका कारण है कि जो भी धन-दौलत और वैभव हमारे पास विद्यमान है, वह सब तो ईश्वर का ही दिया हुआ है। वह मालिक हम सभी मनुष्यों को झोलियां भर-भरकर देता है। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम उसमें से कितना समेट सकते हैं यानी जो हमारे भाग्य का होता है, केवल वही हमें मिल पाता है।ईश्वर को हम धन दें तो वह उसी का दिया हुआ है। यदि उसे सोने-चाँदी की भेंट देना चाहें तो वह भी उसने ही दी है। यदि उसे मिठाई खिलाना चाहें तो वह भी उसके दिए धन से खरीदी गई है और यदि उन्हें मेवा या ड्राईफू्रट देना चाहें तो वह भी उसी का दिया हुआ है। हमारे घर में जो भी विद्यमान अन्न, वस्त्र, अन्य ऐश्वर्य के सभी भौतिक साधन हैं, वे भी उस मालिक ने हमें दिए हैं।अब तो वास्तव में चिन्तन करना पड़ेगा कि मालिक को किस वस्तु की भेंट दी जाए ताकि वह प्रसन्न हो सके। हमारे पास जो भी है, उसमें से कोई वस्तु ऐसी नहीं जो मालिक ने नहीं दी। इसका अर्थ यह हुआ कि हम उसे जो भी पत्र-पुष्प भेंट करते हैं, वह उनसे प्रसन्न नहीं होता। यह तो वही बात हुई-हे ईश्वर! तुम्हारी वस्तु तुम्हें ही सौंप रहे हैं। जिसने कोई वस्तु दी है, उसे ही वापिस सौंपने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। अब भौतिक जीवन का उदाहरण लेते हैं। किसी बन्धु-बान्धव से किसी अवसर पर मिले उपहार को यदि समय बीतते गलती से भी उसे लौटा दिया जाए, तो वह नाराज हो जाता है। जब मौका मिले तब उलाहना दे देता है। इसलिए हम ध्यान रखते हैं कि जिससे उपहार मिला है, उसे ही वापिस न दे दिया जाए।यह सचमुच गम्भीर विषय है। ईश्वर ने हम मनुष्यों को सब कुछ दिया है। वह चाहता है कि हम विनम्र, दयालु, सहृदय, परोपकारी बनें। कभी मिली हुई अपनी इस सुख-समृद्धि पर गर्व न करें। ईश्वर मनुष्य की सच्ची भावना को चाहता है। मनुष्य के मन का नि:स्वार्थ भाव उसे बहुत प्रिय है। इस भाव से ओतप्रोत होकर मनुष्य ईश्वर को जो भी देता है, वही वास्तविक भक्ति होती है।एक यह अहंकार ही है जो ईश्वर ने इस मनुष्य को नहीं दिया है। पता नहीं इसे मनुष्य ने कैसे प्रश्रय दे दिया? मनुष्य हर वस्तु पर अकड़ता है। अपने धन-वैभव पर गर्व करता है। अपनी विद्या अथवा योग्यता पर इतराता फिरता है। अपने रूप-सौन्दर्य पर घमण्ड करता है। अपने पद के मद में रहता है। अपने योग्य बच्चों पर मान करता है। यानी हर भौतिक वस्तु को प्राप्त करके स्वयं को महान समझने की भूल करता है। यहीं पर वह ठगा जाता है।ईश्वर चाहता है कि इस अहं को हम उसे भेंट कर दें। संसार की यही एक वस्तु है, जो उसे भेंट की जा सकती है। कठिनाई यह है कि हम सब मदान्ध रहते हैं। अपने अभिमान का परित्याग नहीं कर सकते। यह अहंकार मनुष्य को ले डूबता है। रावण, हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारी जो स्वयं को भगवान मानते थे, उनका अहंकार उन्हें नहीं बचा पाया, वे भी इस संसार से विदा हो गए। इस चर्चा का सार यही है कि ईश्वर को भेंट देने के लिए मनुष्य के पास ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो उस मालिक की दी हुई नहीं है। परमात्मा मनुष्य की भावना को चाहता है। मनुष्य अपने श्रद्धा भाव से प्रभु को जो भी समर्पित करता है, वही उसे प्रिय होता है। मनुष्य का अहं उसका सबसे बड़ा शत्रु है। बस यही उसकी अपनी कमाई है। यदि मनुष्य अपने इस अहंकार को ईश्वर के सुपुर्द कर दे तो उसका बेड़ा पार हो सकता है। (उर्वशी)