पेगासस जांच में सरकार ने नहीं किया सहयोग

जब पेगासस जासूसी कांड पर जबरदस्त राजनीतिक विवाद गहराया था तो मुद्दे की तह तक पहुंचने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक तकनीकी समिति का गठन किया था, जिसे फॉरेंसिक जांच के लिए 29 फोन दिए गये थे। इस समिति द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने 25 अगस्त, 2022 को जो कुछ कहा, उसका सार यह है कि विस्तृत जांच व समीक्षा के बाद जस्टिस आर.वी. रवीन्द्रन के नेतृत्व वाली तकनीकी समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि 29 फोनों में से पांच में मैलवेयर या खराब साइबर हाइजीन के कारण कुछ गड़बड़ी है और उपलब्ध डाटा इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त नहीं है कि यह गड़बड़ी पेगासस के कारण है, बावजूद इसके कि वैज्ञानिक तरीके इस्तेमाल करते हुए महीनों तक प्रयास किये गये। इन फोनों में पेगासस स्पाईवेयर की जांच करने के लिए सरकार ने तकनीकी समिति के साथ सहयोग नहीं किया। सरकार ने तकनीकी समिति के समक्ष भी वही स्टैंड लिया जो उसने सुप्रीम कोर्ट में लिया था। बहरहाल, समिति ने जो सिफारिशें की हैं, उनमें विशेष रूप से यह बात शामिल है कि नागरिकों के निजता के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए सर्विलांस के जो वर्तमान कानून व प्रक्रियाएं हैं, उनमें संशोधन किया जाये। 
जैसा कि उम्मीद थी, राजनीतिक पार्टियों ने इस रिपोर्ट की व्याख्या अपने-अपने पूर्व विदित दृष्टिकोण के आधार पर की है। दोनों भाजपा व सरकार ने पेगासस विवाद को विपक्ष व सिविल सोसाइटी के कुछ वर्गों द्वारा झूठे आरोपों पर आधारित अभियान बताया। दूसरी ओर कांग्रेस ने कहा कि सरकार का समिति के साथ ‘असहयोग’ करना इस तथ्य की स्वीकृति है कि उसके पास ‘छुपाने के लिए कुछ गहरी बातें हैं’। सियासत से प्रेरित इन आरोपों-प्रत्यारोपों को गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है और न ही इनके पक्ष या विपक्ष में बहस की ज़रूरत है। दरअसल, गौर उन सवालों पर किया जाना चाहिए जो तकनीकी समिति की रिपोर्ट से उठते हैं और उन प्रश्नों पर भी जिनका जवाब रिपोर्ट से मिलता नहीं है। बुनियादी सवाल ये हैं—क्या सरकार ने पेगासस स्पाईवेयर खरीदा था? अगर खरीदा था तो क्या इस मिलिट्री ग्रेड स्पाईवेयर का अवैध इस्तेमाल उसने अपने राजनीतिक विरोधियों के सर्विलांस में किया? इन प्रश्नों का जवाब तो सरकार ही दे सकती है, लेकिन उसने समिति से सहयोग नहीं किया, जबकि वह स्वयं सबसे कहती है कि अगर कुछ गड़बड़ नहीं की है, कुछ छुपाने को नहीं है तो जांच में सहयोग से पीछे क्यों हटते हो? अब सरकार ने समिति से जांच में सहयोग क्यों नहीं किया? अखबारी रिपोर्टों में बताया गया था कि लगभग 1000 भारतीय फोन नम्बर्स को सर्विलांस पर डाला गया था, जिनमें से तकरीबन 300 की पुष्टि हो चुकी है, तो फिर जांच समिति को केवल 29 फोन ही क्यों दिए गये? 
अगर नागरिकों का अवैध सर्विलांस नहीं हो रहा था या उनकी आशंका वही नहीं है तो समिति ने साइबर सुरक्षा को मजबूत करने के लिए छह सिफारिशें क्यों कीं? इनमें से कुछ प्रमुख सिफारिशें हैं—साइबर सुरक्षा के खतरों की जांच करने के लिए एक्सक्लूसिव प्राइमरी एजेंसी का गठन किया जाये,नागरिकों को अवैध सर्विलांस से सुरक्षित रखने के लिए कानूनों में संशोधन किया जाये, स्नूपिंग की अनुमति किसी प्राइवेट पार्टी को न दी जाये, अवैध सर्विलांस के विरुद्ध शिकायत दर्ज करने के लिए नागरिकों के पास कोई रास्ता होना चाहिए आदि। सर्विलांस कानूनों में जो कमियां हैं, उन्हें भरने के लिए सुप्रीम कोर्ट चार सप्ताह बाद उस समय तक के लिए अंतरिम व्यवस्था करेगा जब तक संसद इस संदर्भ में कानूनों में संशोधन नहीं करती।
एक अतिरिक्त महत्वपूर्ण सोचने की बात यह है कि तकनीकी समिति ने अपनी रिपोर्ट गोपनीय रखने के लिए कहा है क्योंकि उसके ख्याल में रिपोर्ट में जो मैलवेयर जानकारी के बारे में डाटा है, उसका दुरुपयोग किया जा सकता है, जिससे सुरक्षा समस्याएं खड़ी हो सकती हैं क्योंकि मैलवेयर की प्रॉपर्टीज़ से अपराधियों को कानून लागू करने वाली एजेंसीज पर बढ़त मिल जायेगी। रिपोर्ट में दी गई जानकारी से अधिक घातक मैलवेयर तैयार करने की आशंका है, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है। इससे जो अवैध सर्विलांस का संकेत मिलता है, उसका अनुमान स्वयं लगाया जा सकता है।  गौरतलब है कि पेगासस जासूसी करने का फोन टैपिंग से एकदम अलग व खतरनाक हथियार है। पेगासस से जासूसी करने का तरीका यह है कि एक मिस-कॉल देकर स्पाईवेयर को टार्गेटेड स्मार्टफोन में इंस्टॉल कर दिया जाता है, जिसके बाद संबंधित व्यक्ति का पूरा डाटा, उसकी बातचीत, वह कहां आता जाता है, आदि की जासूसी करना आसान हो जाता है। हद तो यह है कि स्मार्टफोन बंद होने पर भी इस स्पाईवेयर से उसका कैमरा ऑन किया जा सकता है, जिससे यह मालूम हो जाता है कि वह व्यक्ति किससे कहां मुलाकात कर रहा है। इससे भी खतरनाक व चिंताजनक यह है कि पेगासस के जरिये स्मार्टफोन, लैपटॉप व अन्य उपकरणों में बाहर से भी आपत्तिजनक कंटेंट प्लांट किया जा सकता है, जैसा कि भीमा कोरेगांव के कई आरोपियों ने कहा है कि उनके लैपटॉप में विवादित पत्र को प्लांट कराया गया था। 
मालूम हो कि पेगासस स्पाईवेयर बनाने वाली इज़राइली कम्पनी एनएसओ ग्रुप अपना यह सॉफ्टवेयर सिर्फ  सरकारों को बेचती है और वह भी सिर्फ  आतंकवादी गतिविधियों को रोकने व जांच हेतु जासूसी करने के लिए। इसका इस्तेमाल करने के लिए इज़राइल के रक्षा मंत्रालय की मंजूरी लेनी होती है क्योंकि पेगासस एक साइबर हथियार है, जिसके लिए आर्म्स एक्सपोर्ट लाइसेंस की आवश्यकता होती है। लेकिन सरकारें इसका दुरुपयोग राजनीतिक व अन्य जासूसी करने के लिए करती हैं, जिनका संभावित राष्ट्रीय सुरक्षा जांच से कोई संबंध नहीं है। इसलिए पेगासस स्पाईवेयर को लेकर बार बार गंभीर सवाल उठते हैं। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज आर.वी. रवीन्द्रन के नेतृत्व वाली इस तकनीकी समिति के तीन विशेषज्ञ थे—डा. नवीन कुमार चौधरी (प्रोफेसर, नेशनल फॉरेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी), डा. प्रबाहरन पी. (प्रोफेसर, अमृता विश्वविद्यापीठम) व डा. अश्विन अनिल गुमस्ते (एसोसिएट प्रोफेसर आईआईटी बॉम्बे)। 
इस समिति को मुख्यत: निम्न प्रश्नों के जवाब देने थे—क्या जासूसी के लिए भारतीय नागरिकों के फोनों में पेगासस को प्लांट किया गया था? अगर हां, तो किन लोगों की जासूसी हुई थी? क्या पेगासस स्पाईवेयर को किसी सरकारी एजेंसी के आदेश पर हासिल किया गया था? क्या इसका इस्तेमाल करने के लिए कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया था? यही सवाल अक्तूबर 2019 से उठ रहे हैं, जब पेगासस का मामला पहली बार सामने आया था। लेकिन सरकार ने जवाब व जांच की ज़रूरत नहीं समझी, जबकि अन्य देशों में इस मामले के उठते ही जांच के आदेश दिए गये। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस समिति का गठन किया था। समिति ने इन प्रश्नों के जवाब में कुछ कहा है या नहीं, कहा नहीं जा सकता क्योंकि रिपोर्ट सील बंद लिफाफे में उसे गोपनीय रखने के आग्रह के साथ दी गई है। हां, सुप्रीम कोर्ट ने अपने तौर पर केवल इतना बताया है कि समिति को जांच के लिए 29 फोन दिए गये थे, जिनमें से 5 में मैलवेयर पाया गया, जिसे पेगासस कहने के पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं।    
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर