राजनीति में परिवारवाद की अथ-कथा

देश जब से आजाद हुआ है, तब से राजघराने के लोग सियासत में मौजूद हैं और अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। इनके राजनीति में आने के बाद राजनीति की दशा- दिशा भी बदली है और इन्होंने भी खुद को बदला है। 1947 में जब देश आजाद हुआ था और देश में लोकतंत्र जन्म ले रहा था, उस वक्त रजवाड़े राजनीति में आए। इसे निश्चित रूप से उनका लोकतांत्रिक होना कह सकते हैं। उस वक्त ये राजनीति में एक बड़ी शक्ति बन गए थे। 
राजनीति भी धंधा ही है और जो लोग गांधी परिवार की आज भी सत्ता पर पकड़ से चिढ़ कर परिवारवाद को राजनीति का काला धब्बा मानते हैं, गलत ही हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद लगा था कि नेहरू परिवार नाम की चीज न रहेगी पर फिर इंदिरा गांधी आ गईं। 1977 में हारने के बाद लगा कि अब परिवार समाप्त हो गया पर 1981 में फिर आ गईं। 
पहले संजय गांधी और फिर इंदिरा गांधी की असामयिक मौत के बाद लगा कि परिवार का राज गया पर फिर राजीव गांधी आ गए। 1989 में हारने के बाद लगा कि अब तो अंत हो गया पर 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव की जो सरकार बनी, वह गांधी परिवार की ही थी। 1998 में सोनिया गांधी राजनीति में आ गईं पर 2००4 में जीत गईं और अब 2०14 में हारने के बाद भी वे जमी हुई हैं और शायद प्रियंका गांधी भी राहुल गांधी के साथ मिल कर परिवारवाद का कलश चमकाए रखें। 
पहले राजा-रजवाड़ों के साथ एक और भी क्लास था। इन्हें आप दो-चार गांवों का जमींदार मान सकते हैं जो बनना तो राजा ही चाहते थे लेकिन अब वक्त और समाज ऐसा नहीं रहा कि वे राजा बन पाते, इसलिए वे इस वर्ग का विरोध करते थे। राजशाही से मुक्ति की बात कर रहे थे। छोटे-छोटे कई राजाओं समेत इस क्लास का एक बहुत बड़ा वर्ग कांग्रेस पार्टी में शामिल हुआ। इनमें से कई तो सचमुच उदार थे और लोकतांत्रिक विचार रखते थे। 
इसी वक्त स्वतंत्र पार्टी का गठन हुआ जो देखते-देखते मुख्य विपक्षी पार्टी बन कर कांग्रेस को चुनौती देने लगी। इसका गठन सी राजगोपालाचारी, के.एम.मुंशी, मीनू मसानी आदि ने मिल कर किया था। दूसरे दलों ने इस पार्टी का विरोध इसे पूंजीवादी पार्टी कह कर किया हालांकि असल में यह लिबरल डेमोक्र ेसी की प्रतिनिधि पार्टी थी। 
परिवारवाद हमारे देश में ही नहीं हो रहा। अमरीका में बिल क्ंिलटन की 8 साल के राष्ट्रपति का लाभ उठा कर हिलेरी क्ंिलंटन राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार रही। दूसरी ओर सिरफिरा दिखने वाले डोनाल्ड ट्रंप के चारों ओर दो बेटे, एक बेटी और पत्नी चुनाव का भार संभाले हुए थे। कुछ साल बाद मिशेल ओबामा राजनीति में कूद पडं़े तो आश्चर्य न होगा। वहां कैनेडी परिवार तो जाना-माना परिवारवादी था ही पर अब चूंकि एक-एक करके उनके बहुत से सदस्य मौत के शिकार हो गए, अत: अब यह नाम भुला दिया गया है। 
राजनीति में परिवारवाद नहीं चलेगा, ऐसा नहीं हो सकता। रामायण की कहानी परिवारवाद से भरी पड़ी है। महाभारत का युद्ध विदेशियों में नहीं, परिवार में हुआ। मुगलों का इतिहास परिवार में सत्ता की लड़ाई से भरा है। सभी देशों में राजा के पुत्र का राजा बनना स्वाभाविक लगता है। लोकतंत्र और वोटतंत्र उसे समाप्त नहीं कर पाया है। 
इसे सहज स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। लोगों को अनुभवी शासक चाहिए जिसके बारे में वे जानते हों। जैसे विवाह से पहले वर-वधु के गुण कम, उनके माता-पिताओं के गुण ज्यादा देखे जाते हैं, वैसे ही राजनीति में नए नेता को परखने के लिए उसके माता-पिता का इतिहास काम में आता है।  (युवराज)