चलो, आंखें बंद करो


मुझे वाकई इससे पहले पता नहीं था कि सैमीनारों,  वेबिनारों, गोष्ठियों एवं प्रशिक्षण कार्यशालाओं से विचारों, प्रचारों और आचारों में इतना बड़ा आमूल-चूल परिवर्तन किया जा सकता है। मेरा तो वही हाल कि बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद। लेकिन बंदर की नापसंदगी के कारण अदरक का उत्पादन तो बंद नहीं किया जा सकता। संभवत: इसी तर्ज पर सरकारी संस्थान, गैर सरकारी संगठन और न्यास सेमिनार पर सेमिनार और कार्यशालाएं पर कार्यशालाएं करवाए जा रहे हैं। वैसे भी व्यास और न्यास को समझ पाना हम जैसे अनपढ़ों का कार्य नहीं। जो कहीं भी कार्य करना पसंद नहीं करते, उन्हें कार्यशाला में कार्य करने हेतु बुलाया जाता है। 
लेकिन सौभाग्य कहां तक सोता है? मैं भी इनकी दिव्य दृष्टि से कार्यशाला-सेमिनार हेतु पकड़ा गया और इनके जीवनानुभव एवं सेवाभाव से तृप्त हुआ। चूंकि ये अपने काम एवं विचार को अगले पर ठेल देते हैं, मुझे भी आगे वालों पर ठेलना पड़ रहा है। इनका श्रम मैं वृथा कैसे होने दूं। उनके द्वारा दिए गए अनुभव अनिर्वचनीय रहे। आंखें बंद हों तो अनुभव अनिर्वचनीय ही होते हैं। अनिर्वचनीय सुख देने के लिए उन्होंने सभी प्रशिक्षुओं की आंखें बंद करवाईं। सबकी आंखें बंद हों तो सुख की मात्र बढ़ जाती है।
प्रत्येक कार्यशाला में उनके द्वारा बताई गई वस्तु को हमें आंखें बंद करके देखना था। एकबारगी तो इसे आंखों का विश्राम मानकर संतोष किया जैसा कि बहुत बार करना पड़ता है लेकिन जब कई बार इस आपरेशन से गुजरा तो माथा ठनका। माथा होता ही है ठनकने या झुकने के लिए। जिनका माथा ठनकता नहीं, उन्हें इसे झुकाकर रखना पड़ता है और जिनका झुकता नहीं, उनका ठनकता रहता है। माथे को ठनकाने का जुगाड़ बड़ी शक्तियों के पास बहुतायत में रहता है। हां, पहले ऐसा जरूर लगा था कि योगाभ्यास या ध्यान के लिए आंखें बंद करना जरूरी होता है। निगोड़ी चुगलखोर भी बहुत होती हैं। किसको कहां फंसा देंगी, यह तो कवि-कोविद नहीं बता पाए, मेरी क्या औकात?
तीसरी कार्यशाला सह प्रशिक्षण में जब आंखें बंद करके उनकी निर्देशित वस्तु को देखने को कहा गया तो मेरा माथा ठनका। आखिर आजादी के इतने वर्षों बाद जाकर हमारी आंखें खुलनी शुरू हुई थीं, अब इसे फिर बंद कराया जा रहा है। हो न हो, हमारी आंखों के खुलने से कुछ लोगों को दिक्कत हो रही हो। इधर हम अपने मन की चीजें देखने लगे थे। उनका रूप-रंग, आकार-प्रकार, भौतिक-रासायनिक गुण, उपयोगिता और प्रतियोगिता हमें नजर आने लगी थी। अगर सबको ही सब कुछ असली रूप में नजर आने लग गया तो जो वे दिखाना चाहते हैं, उसका क्या होगा? उसके लिए ग्राहक कहां से आएंगे? 
आंखें बड़ी बदमाश होती हैं। एक बार खुलती हैं तो खुलती ही चली जाती हैं। फिर पता नहीं क्या-क्या देखने लग जाती हैं। ऊपर बैठे लोगों के कारनामे दिख जाएं, फिर तो भयंकर स्थिति तक खुल जाती हैं। सीधी सी बात है, कुछ भयंकर देखेंगी तो भयंकर ही खुलेंगी। उन्होंने रोकने की भरपूर कोशिश की है, फिर भी कभी न कभी तो खुलनी ही थीं। आठ-दस दिन में बिल्ली के बच्चे की खुल जाती हैं। हम तो उनसे भी बहुत पीछे हैं। जब हम सत्तर से ऊपर के हो गए हैं, तब खुलनी शुरू हुई हैं। हमारी खुली आंखों से उन्हें डर लगता है। क्या करें, इतने दशकों तक आमजन की खुली आंखें देखने की आदत नहीं है उन्हें। आज इन्होंने अपनी आंखों और अपनी इच्छा से देखना प्रारंभ किया है। कल को पूरी तरह देखने लग जाएंगे तो सबकुछ देख लेंगी। जब आम आदमी सब कुछ देखने लग जाएगा तो सत्ताधीश क्या देखेगा?
अब तक अच्छा चल रहा था। सत्ता ने सपने दिखाने की व्यवस्था कर रखी थी। सुंदर-सुंदर सपने। भरपेट भोजन, शिक्षा, कानून का राज्य, समता, एक कानूनी पुस्तक के प्रारंभ में लिखित आदर्श वचनों के अनुसार जीवन के सपने। आदर्श वचनों पर आमजन का बहुत विश्वास है। इन्हीं के सहारे वह अपना निजी और सार्वजनिक जीवन काट देता है लेकिन आमजन की समस्या यही है कि वह समझता नहीं कि उसके लिए बंद आंखों वाले सपने बने हैं। आंखें खुली नहीं कि सपना टूटा। सपनों का टूटना अच्छा नहीं। बड़े लोग तो चाहते हैं कि उनके सपने न टूटें। सपने खुली आंखों से भी देखे जाते हैं लेकिन ऐसे सपने छोटे लोगों के लिए मुफीद नहीं रहते। खुली आंखों के सपने के लिए आंखों में धन, सत्ता और उन्माद का लेंस लगा होना चाहिए। बगैर इनके खुली आंखों के सपने बगल से निकल जाते हैं। बार-बार निकल जाने से बंद आंखोंवाले सपने भी आना बंद हो जाते हैं। आमजन की खुली आंखों में सपने आएंगे तो वे खासजन की खुली आंखों के सपनों से टकराएंगे। सपनों की टक्कर अच्छी नहीं होती। बड़े कोमल होते हैं सपने! (अदिति)