अकाली दल में अभी भी सुखबीर के बराबर कोई नेता नहीं

किस अन्ने चौराहे ’ते आ के राह भुल्ली है नसल मेरी,
इक वी रसता मंज़िल दे वल करदा कोई इशारा नहीं।
(लाल फिरोज़पुरी)
साहिब श्री गुरु नानक देव जी के प्रकाशोत्सव के अगले दिन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी प्रधान के चुनाव में स्पष्ट हार-जीत होने के बाद चाहिए तो यह था कि मन में खुशी का संचार होता कि कौम अब कोई ऐसा मार्ग चुनने में सफल होगी जो साहिब श्री गुरु नानक देव जी के दर्शाये मार्ग की तरफ आगे बढ़ने में सहायक होगा। परन्तु मन के हालात वास्तव में ऐसे हैं, जैसे हमारी कौम एक ऐसे चौराहे पर आ खड़ी हुई है, जहां दिखाई दे रहे चारों मार्ग ही हमारी मंज़िल की ओर कोई संकेत नहीं कर रहे। वास्तव में चाहे हम बार-बार ‘मीरी एवं पीरी’ के सिद्धांत का ज़िक्र करते हुए सिखों का धर्म और राजनीति एक साथ होने की बात करते हैं परन्तु सच्चाई यह है कि पिछले कई दशकों से ये एकजुट नहीं, अपितु राजनीति धर्म पर भारी ही रही है। 
शिरोमणि कमेटी के प्रधान के चुनाव में दोनों पक्ष अपने-अपने दावे कर रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल (ब) ने सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व में 104 वोटें लेकर यह साबित कर दिया है कि अभी अकाली दल बादल में उनके बराबर का कोई अन्य नेता नहीं है। चाहे इस बार गत शिरोमणि कमेटी के प्रधान के चुनाव के मुकाबले वह लगभग डेढ़ दर्जन वोट कम ही ले सके हैं। पिछली बार अकाली दल के उम्मीदवार हरजिन्दर सिंह धामी को 122 वोट पड़े थे तथा इस बार 104 वोट पड़े हैं जबकि पिछली बार प्रधान पद के विपक्षी उम्मीदवार मिट्ठू सिंह काहनेके को 19 वोट मिले थे तथा इस बार बीबी जगीर कौर 42 वोट लेने में सफल रही हैं। वैसे पिछली बार महासचिव के चुनाव में बादल विरोधी उम्मीदवार ने 22 वोट लिये थे तथा प्रधानगी के चुनाव उपरांत हुई बैठक को छोड़ कर चले गये दिल्ली के दो सदस्य भी बादल विरोधी माने जाते थे। इस प्रकार पिछली बार विपक्ष के पास कुल 24 वोट थे।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि चाहे बादल दल द्वारा लगाये गये आरोपों कि इस चुनाव में भाजपा के नेताओं जिनमें भाजपा में शामिल कुछ सिख नेताओं तथा हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा बीबी जगीर कौर का समर्थन किया गया, में कुछ सच्चाई भी हो, तब भी बीबी जगीर कौर का बादल दल के विरोध में 42 वोट ले जाना यह प्रभाव तो देता ही है कि बीबी बादल दल की एकता को कुछ सीमा तक तोड़ने में सफल रही हैं।
हम समझते हैं कि यदि अकाली दल बीबी जगीर कौर को प्रधानगी की मांग करते समय इसका विरोध करने की बजाये कुछ अन्य लोकतांत्रिक ढंग से अपना लेता तो अकाली दल अधिक लाभ में रहता। यदि अकाली दल बीबी जगीर कौर सहित अकाली दल के शिरोमणि कमेटी की प्रधानगी के सभी इच्छुक व्यक्तियों संबंधी अपनी पार्टी के सभी शिरोमणि कमेटी सदस्यों की आंतरिक गुप्त वोटिंग करवा लेते तो उनमें से विजयी उम्मीदवार को ही अपना उम्मीदवार घोषित कर देते तो इससे बीबी जगीर कौर के पास पार्टी के विरुद्ध जाने का कोई बहाना भी न रहता तथा पार्टी पर लग रहे तानाशाही के आरोप भी पूरी तरह से धुल जाते। इस चुनाव में जीतना तो उसी ने ही था, जिसे सुखबीर सिंह बादल का समर्थन होता।
भाजपा के सिख गुट
कैसे-कैसे भेद छुपे हैं प्यार भरे इकरार के पीछे,
कोई पत्थर तान रहा है शीशे की दीवार के पीछे।
(़कतील शिफाई)
शिरोमणि कमेटी प्रधान के चुनाव मामले में जो गतिविधियां दिखाई दीं तथा जो ‘सरगोशियां’ सुनाई दे रही हैं, उनके अनुसार भाजपा में शामिल सिख नेता स्पष्ट रूप में 2 गुटों में बंटे हुए दिखाई दे रहे हैं। एक गुट का नेतृत्व दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी के प्रधान रहे मनजिन्दर सिंह सिरसा कर रहे हैं। उन्हें दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के प्रधान हरमीत सिंह कालका तथा हरियाणा गुरुद्वारा कमेटी के कई सदस्यों का समर्थन भी प्राप्त  माना जाता है, जबकि दूसरे गुट का नेतृत्व केन्द्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी तथा भाजपा में उच्च पदों पर तैनात इकबाल सिंह लालपुरा करते दिखाई दे रहे हैं।
गौरतलब है कि पिछले 25 वर्षों में अकाली दल बादल से ब़गावत करने वाले सभी नेता चाहे वह जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहरा, सुखदेव सिंह ढींडसा, सेवा सिंह सेखवां, रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा तथा और भी कई बड़े नेता ही क्यों न हों, सफल होते दिखाई नहीं देते। यहां तक कि बादल दल जत्थेदार टोहरा की पीठ पर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह का स्पष्ट हाथ होने के बावजूद विजेता रहा था। परन्तु इन 25 वर्षों में सिर्फ मनजिन्दर सिंह सिरसा की ब़गावत ही एक मात्र उदाहरण है जिसमें अकाली दल बादल से दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी छीन कर अपने समर्थकों को काबिज करने में सफल हुए। परन्तु चर्चा है कि इस बार भाजपा हाईकमान ने सिरसा की योग्यता के बावजूद पंजाब में शिरोमणि कमेटी के प्रधान पद के चुनाव की ज़िम्मेदारी लालपुरा गुट को सौंपी हुई थी। चर्चा है कि ऐसा करने के पीछे बीबी की लालपुरा के साथ निकटता तथा पंजाब भाजपा का भी सिरसा की बजाये लालपुरा के पक्ष में होना प्रमुख कारण था। इस बात की पुष्टि में देखा जा सकता है कि इस बार बादल दल के नेताओं ने ‘सिरसा’ के साथ सीधा टकराव होने के बावजूद एक बार भी सिरसा पर चुनाव में हस्तक्षेप करने के आरोप नहीं लगाए। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि भाजपा हाईकमान ने मनजिन्दर सिंह सिरसा को इस चुनाव से दूर रहने के लिए ही कहा था। हालांकि बादल विरोधी एक प्रमुख नेता ने चुनाव के बाद निजी बातचीत में यह कहा कि यदि कमान सिरसा के हाथ में होती तो बादल दल को नुकसान अधिक हो सकता था। चर्चा है कि लालपुरा तथा पुरी गुट सिरसा की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा गृह मंत्री अमित शाह के साथ निकटता से चिंतित हैं और सिरसा राष्ट्रीय राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए प्रयासरत हैं, जो लालपुरा तथा पुरी गुट को सही नहीं बैठता। 
बीबी जगीर कौर की भविष्य की नीति
ये तो मुस्तकबिल बताएगा तुझे अहल-ए-चमन, 
तुम चमन-ज़ारों के वारिस हो या हकदार नहीं?
शिरोमणि कमेटी की प्रधानगी के चुनाव के बाद पंजाब की राजनीति में सबसे अधिक पूछा जा रहा प्रश्न यही है कि अब बीबी जगीर कौर का राजनीति भविष्य क्या होगा? यदि राजनीति के अर्थ हमेशा दो जमा दो चार ही होते हैं तो स्पष्ट था कि वह मान अकाली दल को छोड़ कर शेष सभी बादल विरोधी दलों के एकमात्र नेता बन जाते और वह भाजपा से समझौता करके सुखबीर सिंह बादल को सीधी टक्कर देने के में समर्थ होते, परन्तु राजनीति कभी भी दो जमा दो चार  जितनी आसान नहीं होती। पहली बात तो यही है कि क्या बादल विरोधी सभी नेता अपने-अपने दल भंग करके बीबी जगीर कौर को प्रधान मान लेंगे? दूसरी बात है कि भाजपा इस हार के बाद भी बीबी जगीर कौर को समर्थन देगी या नहीं? जबकि बीबी स्वयं आरोप लगा रही हैं कि बादल दल अभी भी आंतरिक तौर पर भाजपा के साथ समझौता करने की ताक पर है। तीसरी बात यह है कि, क्या शेष अकाली दल जो राज्यों के अधिक अधिकार का समर्थक है, भाजपा तथा आर.एस.एस. की ‘एक देश एक कानून’ की नीति को स्वीकार करने के लिए तैयार होगा? फिर एक अन्य चर्चा भी सुनाई दे रही है कि भाजपा बीबी जगीर कौर को भाजपा में शामिल करके उन्हें पंजाब का नेतृत्व करने की पेशकश भी कर सकती है। परन्तु वास्तविकता क्या है, यह तो समय ही बताएगा। वैसे स्वयं बीबी जगीर कौर ने चुनावों के बाद अपनी राजनीति के संबंध में जो स्पष्ट रूप में कहा है, उसका अर्थ तो यही निकलता है कि वह अब स्वयं तो धार्मिक क्षेत्र में भी कार्य करेंगी और राजनीतिक क्षेत्र में वह स्वयं कोई चुनाव लड़ने की अपेक्षा अन्य को चुनाव लड़ाने को ही प्राथमिकता देंगी। 
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