लोकतंत्र को कमज़ोर बनाता है कम मतदान 


गुजरात विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पूरी ताकत लगाने, कांग्रेस द्वारा चुनाव प्रचार के करने, दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान द्वारा जनता को रिझाने के लिए कई तरह के वायदे करने के बावजूद 01 दिसम्बर, 2022 को गुजरात विधानसभा चुनावों में 89 सीटों पर पहले चरण में महज 60 फीसदी मतदान हुआ। जबकि पांच साल पहले 2017 में इन्हीं सीटों के लिए 68 फीसदी मतदान हुआ था। जानकारों को लग रहा था शायद दूसरे चरण के मतदान में इसकी भरपाई हो जाएगी,लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दूसरे चरण में भी 60 फीसदी आस-पास ही सुई रुक गयी। शाम 5 बजे तक तो अधिकृत डाटा 58.80 प्रतिशत का ही था,लेकिन अंतिम डाटा लगभाग 60 प्रतिशत तक पहुंच गया। जबकि साल 2017 में यह करीब 7.56 फीसदी ज्यादा था।
यह अकेले गुजरात विधानसभा चुनाव में ही नहीं  लगभग सभी विधानसभा व लोकसभा चुनावों में ही यही स्थिति है। पिछले कई सालों से चुनाव में लगातार मतदान प्रतिशत घट रहा है। जबकि एक जमाने में भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत ही यही मानी जाती थी कि यहां लोगों में मतदान करने का खूब उत्साह रहता था। भले दुनिया के दूसरे देशों में मतदान के प्रति मतदाता उदासीन होते जा रहे थे, लेकिन भारत में चुनाव लगभग उत्सव जैसा माहौल ही रखते थे। भारत के लोग चुनावों में खूब दिलचस्पी लेते हैं। चुनावी लोकतंत्र के विशेषज्ञ जब भी चुनावों में होने वाले मतदान की चर्चा करते, हमेशा भारतीय मतदाताओं की तारीफ होती। लेकिन लगता है अब धीरे-धीरे भारत में भी लोगों का चुनावों से मोहभंग हो रहा है, इसलिए पिछले एक से डेढ़ दशक से करीब  सभी विधानसभाओं में पहले के मुकाबले कम मतदान हो रहा है।
ऐसा नहीं है कि देश में जब चुनावों की शुरुआत हुई तो बहुत ज्यादा मतदान होता था,नहीं। देश में 1952 में पहले लोकसभा चुनाव सम्पन्न हुए और तब से लेकर 1967 तक कभी भी मत प्रतिशत 50-55 प्रतिशत से ऊपर नहीं गया था। ऐसा होना स्वाभाविक था। एक तो मतदान को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए ज़रूरी मशीनरी और संसाधन दोनों की कमी थी, साथ ही आम मतदाताओं का कोई औपचारिक प्रशिक्षण भी नहीं था। चुनाव के लिए जितने संसाधनों और जिस इंफ्रास्ट्रक्चर की ज़रूरत होती है, शुरुआत में उसका काफी अभाव था। कागज के मत-पत्रों के जरिये मतदान सम्पन्न होता था, वह अपने आप में एक बड़ा तामझाम था। देश में हर जगह यातायात का सुचारू व्यवस्था नहीं थी और निश्चित रूप से देश में मतदाताओं का एक बड़ा प्रतिशत ऐसा भी था, जिसे अपनी वोट की कीमत की जानकारी भी नहीं थी। इस सबके कारण अगर 50-55 प्रतिशत भी मतदान हो रहा था, तो यह कोई छोटी बात नहीं थी। बहुत बड़ी और उत्साहजनक बात थी कि लोकतंत्र के साथ अपने सफर को शुरु करने के समय भी लोग उतना मतदान कर रहे थे, जितना विकसित यूरोपीय देश या अमरीका में नहीं होता था।
भारत में चौथे आम चुनाव यानी 1967 में हुए लोकसभा चुनाव में पहली बार 60 फीसदी मतदान हुआ था। लेकिन उसके बाद मतदान के प्रतिशत में थोड़ा ही सही लेकिन लगातार इजाफा होता रहा। साल 1984, 1989, 1998 में बढ़ते मतदान की प्रवृत्ति देखी गई थी। जबकि इसी दौरान 1991 और 1996 में फिर मतदान 60 से 64 फीसदी के बीच रहा, लेकिन दुनिया के परिदृश्य में भारत में मतदान का यह प्रतिशत भी बहुत अच्छा था। उस समय समाजशास्त्रियों या चुनाव विशेषज्ञों को लोगों की लोकतंत्र में भरपूर दिलचस्पी देखने को मिलती थी। लेकिन 2009 के बाद फिर से चुनावों में मतदान प्रतिशत की या तो कमी आई या स्थिरता दिखायी पड़ने लगी है। 2014-2019 इन दोनों ही आम चुनावों में भले भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला हो और लगभग डेढ़ दशक पहले मज़बूत होती दिख रही स्थानीय पार्टियों का भविष्य भी भरभरता हुआ लगा हो, लेकिन भाजपा को एक बार करीब 300 और दूसरी बार 300 से ऊपर लोकसभा की सीटें मिलने के बावजूद देश में मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ा। यह निश्चित रूप से  चिंतनजनक है। कई राजनेताओं ने इस पर चिंता जताई भी है। 
कई बार कम मतदान होने से सत्तारूढ़ पार्टी को नुकसान होता है और कई बार इससे विपरीत सत्तारूढ़ पार्टी को फायदा भी होते देखा गया है। बहरहाल यहां इस बात पर सोचने और चिंतित होने की जरूरत है कि आखिर भारत जैसे उत्सवधर्मी देश में मतदान प्रतिशत बढ़ क्यों नहीं रहा? एक जमाने तक कम मतदान को लेकर यह निष्कर्ष निकाला जाता था कि कई मतदाता, मतदान तो करना चाहते हैं, लेकिन वे अपने निर्वाचन क्षेत्र में खड़े किसी भी उम्मीदवार को पसंद नहीं करते, इसलिए वोट डालने नहीं जाते। लेकिन अब यह बहाना खत्म हो चुका है, क्योंकि चुनावों में नोटा की भी व्यवस्था हो गई है यानी अगर आप अपने निर्वाचन क्षेत्र में खड़े किसी भी उम्मीदवार को चुनना नहीं चाहते तो आप नोटा का बटन दबा सकते हैं यानी इनमें से कोई नहीं, का विकल्प चुनने की भी आपके पास व्यवस्था है।
चिंताजनक बात है कि अगर भारतीय मतदाता मतदान में रूचि नहीं लेगा तो यह आशंका है कि लोकतंत्र कमज़ोर हो जायेगा, क्योंकि यहां लोगों का मतदान में हिस्सा लेने के लिए उत्साह न रहने का मतलब यह नहीं होता कि उन्हें न्यूनतम लोकतंत्र अपने जीवन में हासिल है और उससे ज्यादा की उन्हें परवाह नहीं है। नहीं, हमारे यहां जब मतदाता मतदान करने नहीं जाता, तो इसका मोटे तौर पर निष्कर्ष यह होता है कि वह बहुत हताश हो गया है, उसे लोकतंत्र पर, नेताओं पर भरोसा नहीं रहा। यह खतरनाक रूझान है।
राजनेताओं को मिल बैठकर इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वे ऐसा क्या करें कि लोगों का मतदान के साथ वही उत्सव वाला रिश्ता फिर से लौट आए जो एक ज़माने में हुआ करता था क्योंकि भारत में मतदाताओं का उत्साह ही है जो लोकतंत्र को मजबूत बनाता है। ऐसे में लगातार कम मतदान होना लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा नहीं है।-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर