24 जनवरी राष्ट्रीय बालिका दिवस पर विशेष दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा...

 

लगता है, इस शीर्षक वाली यह पंक्ति हमारी प्यारी, छोटी, मासूम बालिकाएं जो इस दुनिया में कदम रखती हैं, वे इस समाज के लोगों को अपने कोमल व शांत चेहरे और आंखों द्वारा कहती हैं और अरसे से कहती आ रही हैं।
अब पहले से समय काफी बदल गया है, कुछ वर्गों के लोगों की सोच में काफी नयापन आ गया है। ऐसे बदलाव से इन मासूम बालिकाओं की अनकही आवाज़ समाज के पढ़े-लिखे, उदार व खुली सोच वाले लोगों तक पहुंची है तथा वह लड़कियों को लड़कों के बराबर के अधिकार, रहन-सहन प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील हैं। यानी दोनों में कोई अंतर महसूस नहीं करते।
ऐसे वर्गों के यत्नों से ही 2008 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और भारत सरकार द्वारा 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस के तौर पर मनाना निर्धारित किया गया ताकि लोगों को लड़कियों के साथ होती असमानता संबंधी जागरूक किया जा सके।
कैसी विड़म्बना- एक तरफ तो हम देवियों की पूजा करते हैं, लेकिन अफसोस बालिकाओं के जन्म पर खुश नहीं होते, यह कैसी सोच है कि हम भगवान और देवियों की पूजा करके पुण्य कमा लेंगे और दूसरी तरफ भगवान की बनाई बालिकाओं की कदर न करके पाप के भागीदार नहीं बनेंगे। भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार के धर्म और संस्कृतियां हैं, ज्यादातर के अपने रीति-रिवाज़ व मान्यताएं हैं। लेकिन इस मामले में सभी की सोच एक तरफ और अपनी-अपनी है, सुचेत वर्ग काफी हद तक बालिकाओं का बहुत सम्मान करता है लेकिन कई पिछड़ी सोच वाले लोग अभी भी यह सोच कर बैठे है कि लड़की नहीं, लड़का ही होना चाहिए। 
ठीक ही कहा जाता है कि अगर लड़के को पढ़ाते हैं तो अकेले इन्सान को पढ़ा रहे हैं, परन्तु यदि लड़की को पढ़ाते हैं तो पूरे परिवार को पढ़ा रहे हैं। बालिकाएं एक आशीर्वाद होती हैं, कितनी भूमिकाएं निभाती हैं बेटी, बहन, पत्नी, दोस्त। एक घर की नींव को स्तंभ की तरह संभाल कर रखती हैं और बदले में सिर्फ सम्मान चाहती हैं। लड़की पढ़ी-लिखी होगी तो कल को अपने बच्चों को अपने खुले नज़रिये के साथ बड़ा करेगी और आगे से आगे यह क्रम चलता रहेगा।
इस समाज के कुछ वर्गों में पैदा हुई जागरूकता का परिणाम है कि लड़कियां आज पढ़ाई, नौकरियों, यहां तक कि अपने घर, परिवार, मां-बाप की देखभाल और रोज़मर्रा के कार्यों में लड़कों से आगे निकल गई हैं।
एक बालिका को पैदा होने से लेकर होश संभालने तक प्रेरणा के एक प्रयास की ज़रूरत है। उसको यह अहसास दिलाने की ज़रूरत है कि वह अनमोल है। उसको आगे बढ़ने के मौके देने की ज़रूरत है।
पढ़े-लिखे समाज की बात करें तो समाज के उच्च वर्ग में भी लड़की का शोषण कुछ ओर ही ढंग, तरीके से किया जाता है। मां-बाप, परिवार को हमेशा अपने पर मान महसूस करवाने और बड़ी मंज़िलें छूने के लिए बहुत कुछ सहती लड़की को अपना अस्तित्व कायम करने के लिए हर दिन लड़ाई लड़नी पड़ती है। 
जिनके घर बेटी या बेटियां पैदा होती हैं उनकी सोच और व्यवहार बहुत हद तक बदल जाता है। इस हीरे की कदर दिन-प्रतिदिन उनके मन में बढ़ती जाती है और उनके दु:ख, तकलीफों में बेटी का कोमल हाथ मलहम का काम करता है, बुढ़ापे की लाठी बनकर बेटियां अपने अस्तित्व का फज़र् निभाती हैं।
भ्रूण हत्या या बच्चों को पैदा होते ही छोड़ देने की प्रथा हमारे देश में अभी भी बहुत प्रचलित है, यदि एक लड़की हो भी जाए तो दूसरी लड़की न होने की अरदास की जाती है।
हमें लड़की प्रति यह सोच हटाने के लिए इस देश में से अनपढ़ता को समाप्त करना पड़ेगा। छोटे-छोटे क्षेत्रों व गांवों में लड़कियों की इज्जत करनी सिखानी पड़ेगी। लोगों की सोच और इसका दायरा बदलना पड़ेगा ताकि जब लड़की पैदा हो तो उसका खुले दिल से स्वागत हो। सख्त कानून लागू करने पड़ेंगे ताकि रास्ते में जाती लड़की की तरफ कोई आंख उठाकर देखने से पहले दो बार सोचे।
हमारी सरकारें और कई संस्थाएं बालिकाओं के लिए अच्छा माहौल यकीनी बनाने का बहुत प्रयत्न करती रहती हैं। सभी प्रयत्न तभी कामयाब होंगे जब समाज में लोग अपने बेटों को लड़की का सम्मान करना पहले दिन से सिखाएंगे। आओ सभी मिलकर प्रण करें कि बालिकाओं को पढ़ाने का दायित्व ज़रूर उठाएं, पढ़ाने के अलावा उनको इस समाज में विचरन, शरारती तत्वों का सामना करना, हिम्मत को हमेशा साथ रखना सिखाएं, हर कदम पर उनको उत्साहित करें तभी हमारा देश और तरक्की कर सकेगा।
जिनकी बालिकाएं घर से बाहर कदम रखती हैं उनके मन में हमेशा बेटी की चिंता रहती है जब तक उनकी बेटी उनके सामने नहीं आ जाती, क्योंकि हम सब जानते हैं कि समाज के बहुत सारे लोगों की सोच को ग्रहण लग चुका है।
आओ! एक बार फिर राष्ट्रीय बालिका दिवस पर अरदास करें कि काश! हमारा समाज, देश एक सुरक्षित और खुशहाल स्थान बन जाये जहां हमारी बालिकाएं हमेशा खुशी पूर्वक जीवन जी सकें। ऊंची उड़ान भर सकें और हमेशा की तरह अपने परिवार का नाम रोशन कर सकें।