तुलसी के मानस पर विवाद का मतलब

 

चन्द्रशेखर बिहार के शिक्षा मंत्री हैं। वह राष्ट्रीय जनता दल से संबंधित हैं। हाल ही में उनके रामचरित मानस पर दिये एक ब्यान से काफी विवाद सामने आ रहा है। उन्होंने कहा है कि तुलसीदास की रामचरित मानस सामाजिक विभेद का प्रचार करती है और समाज में घृणा फैलाती है। 
उनके विरोध में उतरे ज्ञानी जन इस बात से कतई सहमत नहीं हैं। उन्हें लगता है कि जब कोई इस तरह की बातें करता है तो यह रामचरित मानस की मूल भावना के प्रति घोर अज्ञान का ही प्रदर्शन है। उनके अनुसार समस्या इस बात से नहीं कि इस ग्रंथ की आलोचना की जा रही है, क्योंकि हिन्दू धर्म आलोचकों का भी स्वागत् करने को तैयार रहता है। समर्थन इस बात से मिल रहा है कि ईसा पूर्व 7वीं शताब्दी में भौंतिकवादी परम्परा को स्थापित करने वाले ब्रहस्पति ने वेदों की प्रमाणिकता पर ही सवाल उठाये थे, लेकिन तब के समाज या धर्मानुयायियों ने इसे ईशद्रोह के तौर समझा था। तुलसीदास को कुछ विद्वान विश्व मनीशा एवं धरोहर के अनमोल रत्न मानते हैं। तुलसी के राम भक्त भावुक क्षणों में विश्क्त नहीं होते। संघर्ष से गुजरते हैं, कठिनाईयों से दो-चार होते हैं, परन्तु अपना मार्ग नहीं छोड़ते उनके ग्रंथ रामचरित मानस में पाखंड़ी व ढोंगी संतों का पर्दाफाश किया गया है। धर्म के उन ठेकेदारों को ललकारा गया है। जिन्होंने वर्षधर्म के नाम पर उन्हें दु:ख और अपमान दिया है। उनका अपना जीवन भी काफी संघर्षमय रहा है। उनकी भक्ति भावना में लोकभावना नज़र आती है। 
एक अन्य विद्वान तुलसीदास और भारतीयता को यर्थाथवादी शब्द मानते है, क्योंकि राजा से रंक तक और महलों से झोंपड़ियों तक सभी राम नाम की शीतल छाया में हिन्दू हृदय और जीवन की निराशा, असफलता और सामर्थ्य हीनता खोकर नव जीवन की अभूतपूर्व शक्ति पाता है। अयोध्या में राम का परिचय देते हुए बताया कि राम ने सभी के लिए ‘सखा’ शब्द का प्रयोग किया है। समाजिक दृष्टि से निम्न जाति के अपने सहायकों को ‘सखा’ रूप में संबोधित करके एवं उन्हें भरत से भी अधिक प्रिय बतलाकर राम ने उनमें आत्म गौरव का भाव जागृत किया है। 
डा. राकेश कुमार का ध्यान एक और बात पर गया। वह यह कि जब हमारे पास इतनी रामकथाएं उपलब्ध है तो लोक मानस तुलसी के साहित्य से ही क्यों जुड़ता है? क्या इसके पीछे वह लोक भाषा थी जिसके कारण तुलसीदास को इतनी सामाजिक स्वीकृति मिल सकी? इसके बावजूद तुलसी साहित्य में अनेकों अंतर्विरोध-विरोधाभास हैं। इतने अंतर्विरोध-विरोधाभासों के बावजूद यदि कोई कवि इतनी विशाल सामाजिक स्वीकृति पाता है, तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है रामायण को वाचिक परम्परा से जोड़कर उसे लीला काव्य में रूपांतरित रचनांतरिक कर देने का कार्य कोई अन्य कवि नहीं कर सका। रामचरित मानस की 12800 पंक्तियां, 1073 दोहे और सात खंड अगर किसी को प्रभावित नहीं करते तो यह किसकी भूल है? यह ग्रंथ विश्व साहित्य का एक हिस्सा माना जाता है। ऐसे महाकाव्य की बात इसके समग्रता के साथ होनी चाहिए। एक दो पंक्तियां उठाकर चाहे वे प्रसिद्ध हो, पूरे ग्रंथ के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। ऐसे ग्रंथ को दुर्भावना के साथ व्यक्त नहीं किया जा सकता। शिक्षा मंत्री सार्वजनिक जीवन में है। उन्हें सामान्यीकरण से हर हाल में बचाना चाहिए।
उनके कहने से तुलसीदास छोटे नहीं हो जाएंगे। वह ज़रूर विवाद के घेरे में आ गये हैं। तुसलीदास के सम्पूर्ण साहित्य में जो सौन्दर्य है जो संघर्ष है वह लोकमानस को प्रभावित करने की क्षमता रखता है वह अद्भुत है। यह एक कलासिक ग्रंथ है ही।