2024 के लोकसभा चुनावों के संदर्भ में भाजपा का मुकाबला करना आसान नहीं

 

तीन साल पहले 26 जनवरी के मौके पर मैंने भविष्यवाणी की थी कि  अगले दस साल बहुसंख्यकवाद के दशक के रूप में गुज़रेंगे। मैंने इसके दो कारण बताये थे। पहला, हिंदू बहुसंख्यवाद के राजनीतिक प्रतिनिधियों द्वारा चुनावी धरातल पर बड़े-बड़े सामाजिक गठजोड़ बनाने की कुशलता का लगातार प्रदर्शन। दूसरा, भाजपा समेत विभिन्न सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा अपनाये जाने वाले एक नये ‘वैल्फेयर मॉडल’ की व्यावहारिक सफलता और राजकीय लोकोपकार के पुराने मॉडल का निष्प्रभावी होना। आज बीस-इक्कीस-बाईस मिलाकर इस दशक के तीन साल पूरे हो चुके हैं। मोटे तौर पर बहुसंख्यकवादी राजनीति का दबदबा ही जारी है। ऐसी बात नहीं कि इसे अस्थिर करने की कोशिशें न हो रही हो। मसलन, इस समय तीन मुकामों पर गैर-भाजपाई राजनीति हो रही है। एक मुकाम है आंदोलनकारी वेग से होने वाली ‘भारत जोड़ो यात्रा’, जिसका उपसंहार कश्मीर में होगा। इसमें कई विपक्षी दल कांग्रेस के निमंत्रण पर जमा होंगे। दूसरी ओर नीतिश कुमार बार-बार पटना से दिल्ली जाकर 2024 के चुनाव को ध्यान में रख कर विपक्षी दलों के नेताओं से मिल रहे हैं, सुगबुगाहट ले रहे हैं। तीसरी तरफ चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता एक तरह के फेडरल फ्रंट बनाने की पहलकदमी लेते हुए दिख रहे हैं। जो भी हो, इन प्रयासों की सफलता का संज्ञान लेने के बावजूद इनकी सफलता की गारंटी नहीं दी जा सकती। लेकिन, भाजपा के बहुसंख्यकवाद की सफलता एक सीधा-सीधा आंखों के सामने खड़ा तथ्य है। इससे इनकार करना खुद अपने हाथों अपनी आंखों में धूल झोंकने के समान है।
आइए, पहले सामाजिक गठजोड़ बनाने की राजनीतिक कला पर गौर करते हैं। भाजपा ने दिखाया है कि इसमें उसका कोई सानी नहीं है। दूसरी तरफ यह देख कर अफसोस होता है कि यह कला ज्यादातर विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस, तकरीबन भूल ही चुके हैं। संसदीय चुनाव हमेशा और हर जगह प्रमुख रूप से सामाजिक गठजोड़ों के ज़रिये ही जीते जाते हैं। बाकी कारकों की भूमिका भी होती है, पर गौण। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 45 से 50 प्रतिशत वोटों का जो सामाजिक गठजोड़ बनाया है, वह पिछले नौ साल में हुए दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों के दौरान उसे एक तरफा जीतें दिलाता रहा है। न तो समाजवादी पार्टी, न बहुजन समाज पार्टी और न ही कांग्रेस उसमें ज़रा भी सेंध लगा पाई है। अभी कुछ दिन पहले ही भाजपा ने दिखाया है कि गुजरात में सरकार विरोधी भावनाओं की बहुतायत के बावजूद चुनावी परिणाम को अपने पक्ष में एक तरफा कैसे बनाया जा सकता है। गुजरात में पटेलों और अगड़ी जातियों के बुनियादी जनाधार पर खड़े होकर भाजपा उसमें पिछड़ों, आदिवासियों और दलितों के वोट और जोड़कर जो मतदाता-मंडल बनाया है- उसने एक बार फिर उसका साथ दिया है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा ने ऊँची जातियों, यादवों को छोड़कर अधिकतर पिछड़ी जातियों, जाटवों को छोड़ कर अधिकतर दलित जातियों और मोटे तौर पर स्त्री वोटरों की हमदर्दी जीतने में सफलता पाई है। फिलहाल ऐसा कोई कारण नहीं दिख रहा है कि ये सामाजिक तबके भाजपा का साथ छोड़ने के बारे में सोचेंगे। माहौल ही कुछ ऐसा बन गया है कि लोगों को भाजपा ही सारे देश पर शासन करने की क्षमता से लैस दिखाई पड़ती है। यह कुछ वैसा ही है जैसा कभी आम मतदाता कांग्रेस के बारे में सोचते थे। 
इस गणतंत्र दिवस पर हमें यही सवाल अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या अगले गणतंत्र दिवस तक (जब नये लोकसभा चुनाव सिर पर खड़े होंगे) क्या इस राजनीतिक परिस्थिति में किसी परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है? इस एक साल में नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे। अगर कश्मीर में भी हुए तो यह संख्या दस की हो जाएगी। इन सभी में भाजपा को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। लेकिन, स्प्लिट वोट या वोटरों द्वारा हर चुनाव के हिसाब से वोट करने के मानस को देखते हुए कुछ राज्यों में पराजय के बावजूद लोकसभा में भाजपा की जीत की संभावनाओं पर सवालिया निशान कम-से-कम आज की ताऱीख में नहीं लगाया जा सकता। विपक्ष की एकता एंडी-इनकम्बेंसी की मात्रा और प्रबलता पर निर्भर है। अगर सरकार विरोधी भावनाएं सामान्य किस्म की हैं, तो नरेंद्र मोदी अपने सामाजिक गठजोड़ और लोकोपकारी मॉडल के दम पर उनसे पार पा लेंगे। अगर ये भावनाएं उफान पर आ गईं, तो उनका मुकाबला करने के लिए उन्हें किसी असाधारण उपाय की आवश्यकता पड़ेगी। पिछली बार पुलवामा पर आतंकी हमले के जवाब में की गई सर्जीकल स्ट्राइक या ‘घुस कर मारा’ वाले चुनावी जुमले ने यह भूमिका निभाई थी। अगर यह जुमला न होता तो आज नरेंद्र मोदी अल्पमत सरकार चला रहे होते। परिस्थितियां अगले साल मार्च तक क्या रंग बदलेंगी, कोई कुछ नहीं कह सकता। सब कुछ वक्त के हाथ में है। इस गणतंत्र दिवस से उस गणतंत्र दिवस के बीच कुछ भी हो सकता है।
(लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।)