जब बच्चा करे बातें अपने आप से

दो साल का होते-होते बच्चा बहुत कुछ बोलने लगता है और बहुत कुछ सीखता समझता है। अब तक वह अपने आस-पास के वातावरण में ढल चुका होता है। वह बहुत सी बातों को अपना लेता है जो वह देखता है और सुनता है। वह माता-पिता के निर्देशों को समझता है और वह वही बातें अपने गुड्डे-गुड्डियों, अपने टेडी बीयर्स के साथ करता है। उन्हें निर्देश देता है, निर्देशों के न मानने पर उन पर गुस्सा निकालता है, उन्हें डांटता है, उन्हें हल्के हाथों से मारता है, उन्हें कपड़े पहनाता है, जूते पहनाता है क्योंकि इन सब क्रि याओं को वह अपनी मम्मी या पापा द्वारा करते देखता है। बच्चों की ये क्रियाएं सामान्य होती हैं।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 3 से 7 वर्ष तक बच्चा स्वयं से बातें करे तो माता-पिता को घबराना नहीं चाहिए, उसे सामान्य समझना चाहिए क्योंकि इस आयु तक बच्चे स्वयं से खेलते हैं, काल्पनिक चरित्र के साथ बातें करते हैं क्योंकि उन पर घर के वातावरण और स्कूल के वातावरण का पूरा प्रभाव होता है।
मनोचिकित्सक से पूछने पर पता चला कि सारे बच्चे ऐसा नहीं करते। कुछ बच्चे ही ऐसा करते हैं। जो बच्चे जल्दी बोलना सीखते हैं और उनके माता-पिता व्यस्त रहते हों तो वे स्वयं से ही बातें करते हैं।
वैसे खुद से बातें करने वाले बच्चे अपनी कुछ समस्याओं को खुद सुलझा लेते हैं। विपरीत परिस्थितियों से कैसे निपटा जाए, इसकी कुछ क्षमता उनमें आ जाती है। वैसे ऐसे बच्चे स्वभाव से शर्मीले होते हैं। स्वयं से बातें करना या कल्पना लोक में रहने की प्रवृत्ति उन बच्चों में अधिक देखी जाती है जिन बच्चों पर माता-पिता पूरा समय नहीं दे पाते या आपस में झगड़ते रहते हैं।
ऐसी स्थिति में बच्चों को अधिक प्यार दें, उनके साथ अधिक समय बिताएं, उनके साथ कुछ इस प्रकार के खेल खेलें जिसमें वो आनंद महसूस करें। यदि उन्हें किसी बात को समझाना हो तो सकारात्मक समझाएं। नकारात्मक सोच उनमें न भरें। उन्हें डराएं नहीं, उनमें उत्साह भरें। बच्चों को अधिक डराने से बच्चों के विकास में रूकावट आ सकती है।
सात वर्ष बाद भी बच्चा अधिक समय कल्पनालोक में रहे तो उसे मनोचिकित्सक को दिखाएं। ऐसे बच्चों पर ध्यान दें कि वह इस स्थिति में दिन में कितने समय तक खोया रहता है। इसकी जानकारी चिकित्सक को दें ताकि उसका विकास ठीक से हो सके।  (उर्वशी)