चलो चूं-चूं चीं-चीं को बचाएं, धरती को और प्यारी बनाएं 20 मार्च गौरैया दिवस पर विशेष

 

मनोवैज्ञानिक कहते हैं अगर आपकी नींद सुबह पक्षियों की चहचहाहट से खुलती है, तो आप जिंदगी में कभी मानसिक रोगों का शिकार हो ही नहीं सकते। एक जमाना था जब अगर सभी नहीं तो कम से कम दुनिया के 70 से 80 प्रतिशत लोगों की नींद सुबह गौरैया की चहचहाहट से ही खुलती थी। उत्तर भारत में करीब हर घर में दिन में एक बार गौरैया के दर्शन हो ही जाते थे। लेकिन अब दुनिया की यह सबसे आम और इंसानों के साथ घुल मिलकर रहने वाली छुटकी पक्षी हर गुज़रते दिन के साथ धरती से गायब होती जा रही है।
गौरैया के लुप्त होने की इसी चिंता के चलते साल 2010 में नासिक की एक संस्था नेचर फॉर एवर सोसायटी ने लोगों में इसके प्रति जागरूकता बढ़ाने और इसको बचाने के उद्देश्य से विश्व गौरैया दिवस मनाने की शुरुआत की। उद्देश्य यही था इस प्यारी और घरेलू पक्षी को हर हालत में बचाया जाए। यह बात फ्रांस के इको-सिस एक्शन फाउंडेशन को भी बहुत अच्छी लगी और वह भी इस मुहिम में शामिल हो गया। साल 2011 से ये दोनों संस्थाएं पूरी दुनिया में 20 मार्च को विश्व गौरैय्या दिवस मनाने की अलख जगा रही हैं।
नासिक की जिस संस्था ने लोगों के बीच गौरैया के लुप्त होने को बचाने की जागरूकता फैलाने की शुरुआत की, उस संस्था की शुरुआत मोहम्मद दिलावर ने की। टाइम मैगज़ीन ने छोटे शहर के इस बड़े पर्यावरण प्रेमी की पूरी कहानी छापी और मोहम्मद दिलावर को हीरोज ऑफ  द एनवायरनमैंट के खिताब से नवाजा। आज हर साल एक नयी थीम के साथ विश्व गौरैय्या दिवस मनाते हैं। इस साल की थीम है- आई लव स्पैरो यानी मैं गौरैया को प्यार करता हूं। आज गौरैय्या बची रहे इसके लिए हर किसी को यह कहना चाहिए।  
इस छोटी सी फुदकने वाली पक्षी गौरैय्या या फुदकन के लिए आज दुनियाभर के लोगों में प्यार और इसके संरक्षण हेतु भावनाएं हैं। लेकिन जिस तरह की हमारी जीवनशैली बनती जा रही है, शहर कंक्रीट के जंगलों में बदलते जा रहे हैं, उसमें गौरैय्या जैसी पक्षी के लिए दिन ब दिन जीना मुश्किल होता रहा है। आज दुनिया के कई देशों ने गौरैया को बचाने की कई तरह की मुहिम चला रखी है। हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली ने इसे अपना ‘राज पक्षी’ घोषित किया हुआ है। बावजूद इसके दुनिया से 70 से 80 प्रतिशत गैरैय्या खत्म हो चुकी हैं। शायद ऐसा इसलिए भी है; क्योंकि आज इंसान को वास्तविकता से ज्यादा आभाषी या वर्चुअल प्रिय है। चीज की नकल करने में माहिर हम लोग, आज गौरैय्या की कृत्रिम चहचहाहट सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। इसलिए हमने गौरय्या की चहचहाहट को रिंगटोन और नोटिफिकेशन वाइस में बदल दिया है।
दरअसल हम इंसान इतना चतुर हो गये हैं कि हम अपने अलावा हर किसी की उपस्थिति को फालतू समझते हैं और उनके मशीनी रिप्लेसमैंट चाहते हैं। हम पशुओं की, पक्षियों की वास्तविक मौजूदगी नहीं वर्चुअल मौजूदगी चाहते हैं। लेकिन भले मोबाइल, कम्प्यूटर या कृत्रिम म्यूजिक के तमाम दूसरे साधनों से हम गौरैय्या की हूबहू आवाज़ निकाल लें, लेकिन उसकी चहचहाहट में जो जैविक खुशी और आकर्षण है, वह उसकी नकल में नहीं ला सकते। कृत्रिम घोसलों की अपनी एक सीमा है। इसलिए गौरैय्या को हमें अपने घरों और अपने पास बुलाने के लिए सचमुच में उन्हें प्यार करना पड़ेगा, उनके जिंदा रहने की स्थितियां बनानी होगी। शहरों में, पार्कों में और सड़कों के किनारे पेड़ लगाने होंगे। शोरगुल कम करना होगा। रात में जो हम उजाले की बारिश कर देते हैं, उससे बच नहीं सकते तो इसे कम तो करना ही होगा। तब जाकर हम अपनी फुदकन को बचा पाएंगे और उसकी चूंचूं, चींचीं को सुन पाएंगे।
अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां को गौरैय्या को सिर्फ किताबों, फिल्मों और वीडियों में ही न देखे बल्कि वह उन्हें जिंदा देखे तो हमें अपनी जीवनशैली में एक समावेशी भाव लाना ही होगा। जिसमें अपने अलावा तमाम दूसरे जीव जंतुओं की भी जगह हो। हमारी जिंदगी में हर पल बढ़ती सूचना और संचार माध्यमों की दखल और इसे संभव बनाने वाले टावरों से निकलने वाले रेडिएशन से भी गौरैय्या की जिंदगी पर लुप्त होने के बादल मंडरा रहे हैं। इसलिए सरकारों को सिर्फ गौरैय्या को राजपक्षी ही घोषित करके अपनी जिम्मेदारी से पला नहीं झाड़ना बल्कि ऐसे वातावरण को मुहैय्या कराना सुनिश्चित करना होगा, जिस वातावरण में गौरैया या स्पैरो बेफिक्री फुदक सके चीं चीं और चूं चूं का हमें राग सुना सके। एक जमाना था जब हर तरफ इसके लिए भोजन भी मौजूद था। पेड़ पौधों में आवास भी सहजता से उपलब्ध था और नदी, पोखरों में पानी भी। लेकिन अब न तो पक्षियों को भोजन, पानी मुहैय्या कराने वाले पारंपरिक पेड़ बचे हैं, न ही ज्वार, बाजरा, मक्का और काकून जैसी फसलें, जिनमें इनके लिए खुले दाने सार्वजनिक रूप से मौजूद थे। अब वैज्ञानिक धीरे-धीरे ऐसी फसलें विकसित कर रहे हैं, जिनके दाने इनके बीजों के खोल में बंद होते हैं। इसलिए हमें सबकी एवज़ में धरती को सिर्फ अपने उपभोग के लिए ही नहीं बनाना चाहिए इसमें सबका हक है। हमारी फुदकन का भी।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर