शहीद भगत सिंह सिर्फ पोस्टर नहीं, एक सोच है! 

एक शहीद के खून से अनेक शहीद पैदा होते हैं, इसका स्वत: सिद्ध प्रमाण है। 30 अक्तूबर 1928 को इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध वकील सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में सात सदस्यीय आयोग लाहौर आया। उसके सभी सदस्य अंग्रेज थे, इसलिए पूरे भारत में इस कमीशन का विरोध हो रहा था। लाहौर में भी वैसा ही निर्णय हुआ। केवल काले झंडे और सुनाई देता था साइमन कमीशन गो बैक, इन्कलाब जिंदाबाद। नौजवान देश-भक्ति के गीत गाते हुए साइमन के खिलाफ उठ खड़े हुए थे।
आंदोलनकारी निहत्थे थे, किन्तु मजबूत इरादे से ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ रहे थे। उस समय के मज़बूत इरादे वाले नेता लाला लाजपत राय के नेतृत्व में बच्चे, वृद्ध, नर-नारी सभी नारे लगाते रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ते जा रहे थे। पुलिस की धमकीपूर्ण चेतावनी का कोई असर नहीं हो रहा था, फिरंगियों की निगाह में यह देश भक्तों का गुनाह थीं। खूब लाठियां बरसीं, हड्डियां टूटीं, सैंकड़ों लोग घायल हुए, राष्ट्र भक्तों के रक्त से भारत मां का अभिषेक हुआ। इस पर भी जनसमूह को न रुकते हुए देख पुलिस कप्तान स्कॉट ने अपने हाथ में थामी लाठी से निर्दयतापूर्वक लाला जी की पिटाई की। क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों ने यह सब क्रूरता अपनी आंखों से देखी। उसी शाम लाहौर में विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए लाला लाजपत राय ने कहा था, मैं यह घोषणा करता हूं कि मुझ पर जो लाठियां बरसाई गई हैं वे भारत में ब्रिटिश सरकार के कफन में अंतिम कील साबित होंगी।
17 नवम्बर के दिन लाला जी लाठियों के घाव न सहते हुए शहादत पा गए। पूरा देश शौक एवं क्रोध से हुंकार उठा। नवयुवकों के लिए यह चुनौती थी। भगत सिंह और उनके साथियों के लिए यह राष्ट्र का अपमान था। उन्होंने नारा लगाया। खून का बदला खून। पंजाब के बेटों ने लाला लाजपत राय के खून का बदला खून से लिया। सांड्रस को गोलियों से भून दिया गया।
सांड्रस की मौत के बाद लाहौर से सुरक्षित निकलकर भगत सिंह कोलकाता पहुंच गए। कुछ दिन वहां रहकर वह बंगाल और उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्रांतिकारियों से भेंट करते हुए दिल्ली पहुंच गए। उन्हीं दिनों अंग्रेजी सरकार दिल्ली की असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्पयूट्स बिल लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी कानून थे और सरकार उन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को कानून बनाने के पीछे उद्देश्य यह था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है, उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए। क्रांतिकारियों की केन्द्रीय कार्यकारिणी बैठक में भगत सिंह ने कहा- ब्रिटिश सम्राज्यवाद में न्याय के लिए कोई स्थान नहीं है। अत: निद्रा-लीन सरकार को जगाने के लिए तीव्र धमाके की ज़रूरत है।
 गंभीर विचार विमर्श के बाद 8 अप्रैल 1929 का दिन असेम्बली में बम फैंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त निश्चित हुए। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी कानून के विरुद्ध थे, तथापि वायसराय इसे अपने विशेष अधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यह तय हुआ कि वायसराय जब पब्लिक सेफ्टी बिल को कानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फैंका। दूसरा बम बटुकेश्वर दत्त ने फैंका। पूरा हाल धुएं से भर गया और भगदड़ मच गयी। भगत सिंह और दत्त वही दृढ़ता से खड़े रहे। उन्होंने एक पत्रक भी फैंका, कि बहरे कानों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज़ की जरूरत होती है।
23 मार्च 1931 संध्याकाल को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देशभक्ति के अपराधी के दोषी करार देकर फांसी पर लटका दिए गए। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय की थी, लेकिन जन आक्रोश से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि में ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और आधी रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे इनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। शहीद त्रिमूर्ति भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु भारत मां की स्वतंत्रता के लिए फांसी के फंदे पर झूल गये। अंतिम श्वास तक गर्जना करते रहे, इन्कलाब जिंदाबाद, डाउन डाउन यूनियन जैक, राष्ट्रीय झंडा ऊंचा रहे और अंग्रेजी साम्राज्यवाद का नाश हो। 
24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहां पहुंचे जहां इन शहीदों के शरीर की पवित्र राख और कुछ अस्थियां पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए, उन अस्थियों को संभालते हुए अंग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। देश और विदेश के प्रमुख नेताओं और समाचार पत्रों ने अंग्रेजी सरकार के इस काले कारनामे की तीव्र निंदा की। अब देश में शहीदों के सपनों को साकार करने का दायित्व हमारी वर्तमान और भावी युवा पीढ़ी के कंधों पर होगा।


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