लाखों गरीबों को रोटी देता है तेंदू का पेड़

भले ‘आम’ फलों का राजा हो और इसके पेड़ की धार्मिक व सांस्कृतिक महत्ता सर्वोच्च हो। भले सेब का पेड़ अपने मालिकों को अपनी फसल से मालामाल कर देता हो, लेकिन ये तमाम फलदार वृक्ष गरीबों के लिए उतने फायदेमंद नहीं हैं, जितना उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड, विन्ध्याचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडीसा, झारखंड और महाराष्ट्र के जंगलों में पाया जाने वाला तेंदू का पेड़ होता है। जी, हां तेंदू या कहीं-कहीं केंदू पुकारा जाने वाला यह पेड़ लाखों गरीबों को मीठा गूदेदार और स्वादिष्ट फल तो देता ही है, उसे जीने के लिए रोटी भी मुहैय्या कराता है। इसलिए इसे गरीबों का पारिजात कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि तेंदू का पेड़ बिना लगाए अपने आप ही उगता है। यह भारत, श्रीलंका, अमरीका, जापान सहित दुनिया के करीब 53 देशों में पाया जाता है। भारत और श्रीलंका में ये आमतौर पर बिना लगाए स्वत: ही जंगलों में उगता है, मगर चूंकि इसकी हिंदुस्तान में बहुत ज्यादा कारोबारी महत्ता है, इसलिए इस पर जंगलों में सरकार से लेकर माफिया तक का अपनी तरह का पहरा रहता है।
तेंदू के हरे और काफी बड़े पत्तों की बीड़ी बनाने के मामले में बहुत व्यावसायिक महत्ता है, इसलिए इसके फल की खूबी की आमतौर पर चर्चा नहीं होती। लेकिन झारखंड और ओडीसा में केंदू और कई जगहों गाब या गाभ नाम से जाने जाने वाले तेंदू का फल भी खूबियों से भरा होता है। इसमें दो दर्जन से ज्यादा पौष्टिक और तीन दर्जन से ज्यादा औषधीय तत्व पाए जाते हैं।चीकू जैसे आकार का तेंदू का फल उतना ही स्वादिष्ट और मीठा होता है। लेकिन चूंकि तेंदू के पत्तों का करोड़ों अरबों रूपये का व्यावसायिक कारोबार है, इसलिए जिन जंगलों में तेंदू के पेड़ पाये जाते हैं, वहां सरकारी मशीनरी से लेकर माफिया तक का कब्जा होता है, जिसे इसके फलों से कोई लेना देना नहीं होता। यहां तेंदू के पत्तों की बहुत बड़े पैमाने पर व्यावसायिक रूप से तुड़वाई होती है और इसे बीड़ी बनाने वाले कारखानों को बेचा जाता है। इसका एक विशेष किस्म की सिगार बनाने में भी इस्तेमाल किया जाता है।
अगर तेंदू के पेड़ की ऐतिहासिकता की बात करें तो इसके औषधीय गुणों के कारण इसका जिक्र चरक और सुश्रुत संहिताओं में भी है। मुगलों तथा अंग्रेजों के जमाने में तेंदू की लकड़ी का मजबूत फर्नीचर बनता था। इस तरह इस 18 से 15 मीटर तक ऊंचे और शाखा-परशाखा युक्त, सघन व सदाहरित वृक्ष तेंदू की महत्ता हमेशा रही है। इसके तने की छाल गहरे भूरे या कहीं-कहीं लाल रंग की हल्की  खांचदार होती है। इसके पत्ते 13 से 24 सेंटीमीटर तक लंबे और 5 सेंटीमीटर तक चौड़े, कुंठाग्र, चिकने व चमकीले होते हैं। इसके फूल आकार में छोटे, रंग में सफेद व पीले तथा गुच्छों में होते हैं और बेहद सुगंधित होते हैं। इसके फल को तेंदू या केंदू फ्रूट कहते हैं। कच्चे में यह कषाय रस से युक्त होता है तथा पक जाने पर पीले गूदे से युक्त मीठा होता है। इसके फल में चार से आठ तक अंडाकार और बेहद कठोर व चमकीले बीज होते हैं, जो इसके स्वादिष्ट गूदे में धंसे होते हैं। इन्हें खाते वक्त लोग बीज या गुठली निकालकर फेंक देते हैं। चूंकि अब यह बहुत व्यावसायिक पेड़ है, इस वजह से पक्षियों के हिस्से इसके उतने फल नहीं आते, जैसे किसी जमाने में आया करते थे,फिर भी तेंदू के ज्यादातर पेड़ आज भी पक्षियों द्वारा इसके फल को खाने और इन्हें लेकर उड़ने के बाद इसके फल के जो बीज इधर-उधर गिरते हैं, आज भी बारिश के दिनों में उन्हीं बीजों से जंगलों में ज्यादातर तेंदू के पेड़ उगते हैं। हैरानी की बात यह है कि व्यावसायिक रूप से इतने फायदेमंद होने के बावजूद भी आमतौर पर लोग तेंदू का वृक्षारोपण नहीं करते। शायद इसकी वजह यह हो कि यह बिना देखरेख वाली जगहों में ही बेहतर ढंग से फलता फूलता है।
तेंदू के पेड़ का वानस्पतिक नाम डायोस्पायरोस मेलानॉक्सिलोन है। यह एबिनासी कुल का सपुष्पी पादप है। यह भारत और श्रीलंका का देशज है। इसकी छाल बहुत कठोर और सूखी होती है, जिसके जलाने पर चिंगारी व आवाज़ निकलती है। यह जहां पाया जाता है, वे बहुत घने जंगल होते हैं। इसलिए आमतौर पर इन तक आदिवासी लोगों की पहुंच होती है। यह न सिर्फ बड़ी आय का अपितु जीवनयापन का भी जरिया है। तेंदू को अंग्रेजी में पर्सिम्मन और कहीं कहीं डेट प्लम भी कहते हैं। क्योंकि इसके फल का स्वाद खजूर और आलूबुखारे के स्वाद का मिश्रण होता है। इसकी लकड़ी चिकनी और काले रंग की होती है। तेंदू का पेड़ मध्याकार का पर्णपाती पेड़ होता है।  

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