ऋषि-मुनियों का पसंदीदा पेड़ है देवदार

 

भारतीय संस्कृति में पेड़, नदियां, पहाड़ ये सब समाज का जीवंत हिस्सा रहे हैं। इसीलिए सबके साथ हमारे खास रिश्ते हैं। यहां हर पेड़ का एक नाम है और उसकी एक विशिष्ट महत्ता। देवदार का पेड़ जो हिंदुस्तान में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, नेपाल और तिब्बत से जुड़े इलाकों के अलावा पूर्वोत्तर की ऊंचाई पर पाया जाता है। देवदार के पेड़ का वैज्ञानिक नाम है- सेडरस डेओडारा। यह एक सीधे तने वाला ऊंचा शंकुधारी पेड़ है। यह विशेष रूप से ऊंचे हिमालय में पाया जाता है। 1500 मीटर से लेकर 3200 मीटर तक की ऊंचाई में यह शंकुधारी वृक्ष अपनी भिन्न-भिन्न कदकांठी के साथ मौजूद रहता है। कहीं-कहीं यह 20 मीटर का, तो कहीं-कहीं इसकी लंबाई 60 मीटर तक होती है और इसके तने भी 2 से 3 मीटर तक चौड़े होते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कितना मजबूत और अपने वातावरण के लिए कितना महत्वपूर्ण पेड़ है। 
संस्कृत भाषा में देवदार को ‘देवदारू’ कहते हैं जिसका मतलब है, ‘वुड ऑफ द गॉड’ या देवताओं की लकड़ी। कहा जाता है कि यह भगवान शिव का परमप्रिय वृक्ष है, इसीलिए प्राचीनकाल में ऋषि, मुनि ऊंचे हिमालय में इसी देवदार वृक्ष के नीचे तपस्या किया करते थे। पहाड़ों में कहते हैं, जिस घर के आस-पास देवदार का पेड़ होता है, उसके इर्दगिर्द अनहोनी घटनाएं नहीं घटतीं। ऐसी जगहों में सकारात्मक हवाएं बहा करती हैं। बहरहाल जहां तक देवदार के पेड़ की रोजमर्रा की जिंदगी में महत्ता का सवाल है, तो अरोमा थैरेपी के लिए सबसे तीखी सुगंध वाला तेल इसी देवदार के पेड़ से मिलता है। इसकी लकड़ी जैसा कि नाम से ही पता चलता है सारे धार्मिक कर्मकांडों में विशिष्ट लकड़ी के रूप में इस्तेमाल की जाती है, लेकिन इससे भी ज्यादा इसका इस्तेमाल तेल और दवाओं के साथ-साथ अगरबत्तियां बनाने के काम में होती है।
बाजार में बिकने वाली पवित्र देवदार की लकड़ी, इन्हीं देवदार पेड़ों से आती है। यह सुगंधित लकड़ी होती है और अगरबत्ती बनाने के काम में इसे प्राथमिकता दी जाती है। देवदार के पेड़ से बहुत महंगा फर्नीचर बनता है। इससे न मुड़ने और सूखने वाले लकड़ी के फ्रेम बनते हैं। चूंकि देवदार की लकड़ी में बड़ी मात्रा में तेल होता है और एंटीफंगल गुणों से भरपूर होता है। इसलिए यह त्वचा की तमाम बीमारियों में बहुत उपयोगी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर ऊंचे हिमालय के ग्लेशियरों की बर्फ को पिघलने से बचाना है, तो पर्वत चोटियों में देवदार के वृक्षों की घनी श्रृंखला ज़रूरी है। जहां पर चंदन की लकड़ी उपलब्ध नहीं होती, वहां उसकी जगह देवदार की लकड़ी का उपयोग कर लिया जाता है। लेकिन अगर हम इमारती लकड़ियों के लिए सबसे मजबूत किसी पेड़ की खोज करें तो वह देवदार ही होगा। 
समुद्रतल से 12000 फीट की ऊंचाई तक पाये जाने वाले देवदार की लकड़ी लोहे और स्टील जैसी मजबूत होती है। देवदार के पेड़ की कई प्रजातियां होती हैं। इसलिए एक तरफ जहां कुछ देवदार 60 मीटर से भी लंबे होते हैं, वहीं कुछ देवदार बौनी प्रजाति के भी होते हैं जो महज 3 से 5 फीट तक ही लंबे होते हैं, लेकिन इनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। इसलिए वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि पहाड़ों में जहां भूस्खलन की समस्या है, वहां बौने देवदार के जंगल लगाने चाहिए, तो भूस्खलन की समस्या खत्म हो जायेगी। आमतौर पर 150 से 200 सालों तक जीने वाले देवदार के कुछ पेड़ों की उम्र 300 सालों से भी ज्यादा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक देवदार का पेड़ जहां हमारी धार्मिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के केन्द्र में है, वहीं इस पेड़ में बायोकेमिकल भी अच्छी मात्रा पाया जाता है। आज पूरी दुनिया में देवदार की लकड़ी से निकलने वाले सिडोर आयल की बहुत मांग है। क्योंकि इसके बहुत सारे औषधीय उपयोग हैं। देवदार को सदाबहार लार्ज कोनिफर ट्री भी कहते हैं। इसकी पत्तियां सुई की तरह नुकीली होती हैं। 
देवदार के पेड़ के तने में, इसकी पत्तियों में और बाकी लकड़ी में भी कई तरह के मूल्यवान केमिकल पाये जाते हैं। इनमें है- टैक्सीफोलिन, सिडरिन, डिओडेरिन, टैक्सीफिनौल, लेलोनॉल और एंथोल। देवदार के पेड़ दुनिया को सबसे मोटी लकड़ी देते हैं और अपनी इसी मजबूत कदकांठी के कारण इन्हें ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने वाला महत्वपूर्ण पेड़ भी माना जाता है। उत्तराखंड में ये नैनीताल, जागेश्वर, और लोहाघाट में काफी बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। इससे सैकड़ों तरह की हर्बल औषधियां बनती हैं। पेट की बीमारियां, पाचन और डायरिया में इसकी बनी दवाएं बहुत कारगर होती हैं। यही नहीं देवदार के पेड़ की लकड़ियों का लेप चेहरे की त्वचा को बहुत सॉफ्ट बनाती है।

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