तेरी गठरी में लागा चोर, मुस़ािफर जाग ज़रा’

जिस शिक्षा क्रांति का इंतजार देश के करोड़ों वंचितों को था, वह शायद हो गई है। दूर-नज़दीक के गांव-कस्बों के सरकारी स्कूलों की रंगत फिरती नज़र आने लगी है। जीर्ण शीर्ण इमारतें तो सम्भली नहीं, हां अधिकांश स्कूल जहां पहले एक ही अध्यापक सब कक्षाएं देखता था, और छोटी कक्षाओं के बच्चों को बड़ी कक्षाओं के बच्चे पढ़ाते थे, अब वहां एक की जगह दो अध्यापक नज़र आने लगे हैं और नोटिस बोर्ड पर सूचना भी थोड़ घट कर पंख फट फटाती है, कि इस बार कोर्स की किताबें ऐन इम्तिहान से पहले नहीं, दाखिले के केवल कुछ महीने बाद ही प्राप्त हो जाएंगी। वल्लाह।
आजकल कानून व्यवस्था के सुधर जाने की घोषणाएं अधिक बुलन्द आवाज़ से होने लगी हैं, इसलिए अब चोर चकारों ने इन स्कूलों का भी रुख कर लिया। एक-एक स्कूल पर दो-दो थाने भी होने लगे। पकड़ा तो कोई चोर कम ही जाता है, इसलिए वे एक बार मेज़-कुर्सियों को उठा कर ले गए, दूसरी कक्षाओं में बिछे टाटों के गायब होने की भी नौबत आ गई। आखिर स्कूल प्रभारी गुरु जी को दरवाज़े पर नोटिस लगाना पड़ा, कि ‘चोर महाशय, अब तो इस स्कूल के दरवाज़े पर लगे ताले के सिवाए स्कूल के पास कुछ भी नहीं है। मेहरबानी करके इसे बख्श दीजिए, नहीं तो फिर कक्षाएं खुले आसमान के नीचे लगाने की नौबत आ जाएगी।’ बिल्कुल, उसी तरह जैसे आप उज्जवला योजना के अधीन इन बच्चों के मां-बाप को रोटी पकाने के लिए गैस के सिलैण्डर बांट गए। उसके बाद इनके दाम इतने चढ़े, अन्तर्राष्ट्रीय मंडियों में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के सस्ता होने के बावजूद इनके दाम में कोई कमी नहीं आई, क्योंकि देश की गैस कम्पनियों को कोविड काल में इतना घाटा पड़ा बताया गया कि अब उसकी क्षतिपूर्ति करनी थी। इसलिए बन्धु, देश के आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने या बनाये रखने के लिए इनका घाटा पहले पूरा होना चाहिए। चाहे सुरसा की आंत की तरह यह घाटा कभी पूरा होता नज़र न आये, और इनके दामों की पतंग आकाश में इतनी ऊंची उड़ती है कि गैस के चूल्हे पर उपले रख कर फिर से चूल्हा जलाने की नौबत आ गई। गैस के चूल्हे पर उपलों की आग से रोटी पकाते लोग। लो देशी-विदेशी का कैसा सम्मिश्रम हो गया, और तुम कहते हो इस देश के लोग अपनी जड़ों से टूट रहे हैं? अरे हमारी ़गरीबी ने तो विदेशी को भी स्वदेशी और आधुनिकता को भी अपने न बदलने वाले अतीत से जोड़ दिया।
नहीं बदलेंगे हम! अपने पुरातन में से अर्नाचीन की तलाश करेंगे, इसलिए तो देखो सरकारी स्कूलों का कायकल्प किया था, तो भी छात्र निजी स्कूलों से नाम कटवा कर नहीं आये, हां चोर अवश्य सेंध लगाने आ पहुंचे। अब एक विनती है उनसे हमारे द्वारा का ताला भी न उतार कर ले जाना, नहीं तो हमारा अस्तित्व ही न मिट जाए, और नौबत फिर वही हो कि ‘नील गगन के तले, धरती का बाल पढ़े।’ क्या पढ़े? कम से कम वह तो नहीं कि जो नई शिक्षा नीति के प्रारुप में लिखा है। अजी किताब छपेगी, तो बदलाव सामने आएगा न। आजकल तो इनकी फोटोस्टेट भी अब ऊंचे दाम पर बिकने लगे, और सर्वेक्षक हैरान हैं कि यहां तो ऐसे स्कूल भी हैं जहां एक भी अध्यापक नहीं। जो था वह बदली करवाकर चला गया। नए के आने का इंतजार है। इसलिए बीच के इस सक्रान्त काल में काम चलाऊ ज़िन्दगी के साथ बड़ी कक्षा के छात्रों या बेकार नौजवानों के गिरोह में से समाज सेवी रही स्वयं सेवकों की तलाश अध्यापन के लिए की जाती रही है। 
यहां ऐसे स्कूल हैं जहां छुट्टियां अधिक और कामकाजी दिन कम होते हैं। अब स्कूलों की छुट्टियों के इन दिनों में नया आदेश आ गया कि स्कूल का सामान सरपंच के हवाले कर जाओ। स्कूलों की गठरी को भारी होता देख कर चोर इस पर बार-बार कृपा कर रहे हैं। कानून व्यवस्था के सुधर जाने का कोलाहल बढ़ गया है इसलिए चोरों की दीदा दिलेरी देखिये कि वह एक ही स्कूल पर दो-दो बार सेंध मारने आ रहे हैं।
बेशक ऐसी ़खबरें केवल स्कूलों तक ही सीमित नहीं। जन-कल्याण धर्मी सरकारों द्वारा शिक्षा क्रांति के अतिरिक्त चिकित्सा क्रांति की भी घोषणाएं होने लगी। इधर जनगणना के नये आंकड़ों के अनुसार भारत इन देशों में आ गया है जहां जन्म विकास दर कम हो रही है। बेशक जन्म विकास दर तो कम हो रही है, लेकिन आबादी के लिहाज़ से भारत दुनिया का नम्बर एक का देश बन गया। इन विरोधाभासी आंकड़ों के बीच औरतों की बुर्दा-फरोशी से अधिक बच्चे चुरा कर बेचने का व्यवसाय ज़ोर पकड़ने लगा। बेशक औरतों के अपहरण, दुष्कर्म और उनकी निर्मम हत्याओं की खबरें कम नहीं हुईं। ज्यों-ज्यों नारी सशक्तिकरण और समानाधिकार की बातें अधिक होती हैं, त्यों-त्यों औरतों के विरुद्ध अपराधों की ये घटनाएं और भी वीभत्स होकर सामने आती हैं। लेकिन इसके साथ ही बढ़ी हैं सरकारी प्रसूति गृहों से बच्चे चुरा कर बेच देने की घटनाएं। कमबख्त घटनाएं भी ऐसी हैं कि एक ही प्रसूति गृह के सरकारी कक्ष से ऊपर नीचे के दिनों में लगातार बच्चे चुरा कर बेचे जा रहे हैं। चोर तो पकड़ में नहीं आये, हां एक खबर अवश्य पकड़ में आ गई कि बच्चा चोरी होता है तो अधिक दाम पर बिकता है, और बच्ची चुराई जाती है तो कम दाम पर बिकती है।
 नारी समानाधिकार आन्दोलनकारी इस विडम्बना से आक्रान्त हैं कि चुराए गए बच्चे की कीमत चुराई गई बच्ची से अधिक क्यों मिलती है? अब क्या बुर्दा-फरोशी की इन घटनाओं में भी इस देश के पुरुष वर्चस्ववादी की गन्ध आती रहेगी? लेकिन ऐसा सहने की आदत इस देश के जन-जन को हो गई है। बन्धू यहां कानून व्यवस्था के सुधर जाने की बात होती है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि चोरी घट गई, बल्कि यह कि अब चोर ही पकड़े नहीं जा रहे, वे शायद साधु और भद्रजनों का वेष धारण कर ऊंचे समाज में प्रवेश करते जा रहे हैं, और ऊंचे स्वर में प्रवेश करते जा रहे हैं, और ऊंचे स्वर में समाज को बदल देने के नारे लग रहे हैं।