बालासोर रेल दुर्घटना : एंटी कोलीज़न डिवाइस क्यों इस्तेमाल नहीं हुआ ?

 

रेल दुर्घटना के बाद कई कोनों से यह सवाल उठा कि जब रेलवे द्वारा विकसित स्वदेशी ‘एंटी कोलीजन डिवाइस’ और इसकी परीक्षित प्रणाली मौजूद है, तब सरकार ने उसे इस्तेमाल क्यों नहीं किया? अगर ऐसा होता तो इस दुर्घटना को रोका जा सकता था। जीपीएस और रेडियो कॅम्युनिकेशन तथा सेंसर पर आधारित कवच टेक्नोलॉजी को आरडीएसओ यानी रेलवे डिजाइन एंड स्टैंडर्ड ऑर्गेनाइजेशन ने विकसित किया है, यह 400 मीटर की दूरी के अंदर उसी ट्रैक पर दूसरी ट्रेन का पता लगा लेती है, जिसके बाद ट्रेन में ऑटोमेटिक ब्रेक लग जाते हैं। इसको सिक्योरिटी सिस्टम का उच्चतम स्तर का दर्जा प्राप्त है। 1999 में कैथल में जब शिवा अवध एक्सप्रेस और ब्रह्मपुत्र मेल ट्रेन आमने सामने टकरा गई थीं, उसके बाद भारतीय रेल ने इस प्रणाली पर गंभीरता से काम किया। 
पिछले साल रेलमंत्री ने सदन में कहा था कि माननीय नरेन्द्र मोदी जी की प्रेरणा से भारतीय वैज्ञानिकों ने यह उपकरण विकसित किया। रेल हादसों को रोकने के लिए इस तकनीक को सभी व्यस्त रूटों पर लगाया जाएगा। रेल विशेषज्ञों के साथ पूर्व रेलमंत्री ममता बनर्जी, फारुख अब्दुला और तमाम विपक्षियों ने ट्रेन प्रोटेक्शन एंड वार्निंग सिस्टम और कवच के इस्तेमाल न करने के मुद्दे को उठाया है। मगर रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने दुर्घटना के 36 घंटे बाद यह कहकर सबको निरुत्तरित कर दिया कि इस मामले से एंटी कोलीजन डिवाइस का कोई लेना नहीं है। यह प्रणाली तब काम करती है, जब दो ट्रेनें आमने सामने की टक्कर की स्थिति में हों। यहां मामला सिग्नल के उपकरण, मशीन और इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग प्रणाली में खराबी और उसके तृटिपूर्ण प्रदर्शन का है। इलेक्ट्रिक पॉइंट मशीन संचालन पॉइंट स्विच को लॉक करने के लिए रेलवे स्टेशन का महत्वपूर्ण उपकरण है। यह रेलगाड़ियों को सुरक्षित परिचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और लगाते समय हुई कमियों की वजह से असुरक्षित स्थितियां पैदा हो सकती हैं। 
इलेक्ट्रोनिक इंटरलॉकिंग उस बदलाव की पहचान कर ली गई है, जिसके कारण यह हादसा हुआ। सैद्धांतिक तौर पर यह बात सही है; क्योंकि यह रेल दुर्घटना आमने सामने की नहीं है। इंटरलॉकिंग विफलता के बारे में रेलवे बोर्ड ने यह कहकर कि सिग्नल रखरखाव प्रणाली की निगरानी और उसे तुरंत ठीक नहीं किया गया तो गंभीर दुर्घटनाएं हो सकती हैं, कार्यवाही की मांग की थी पर रेलवे सतर्क नहीं हुआ, सिग्नलिंग प्रणाली की विफलता से ट्रेन के बेपटरी होने की इस साल 48 दुर्घटनाएं हुई हैं। ज्यादातर मालगाड़ियां शिकार हुईं, कुछ लोको पायलट मरे, मानव विफलता को खत्म करने और पुरानी यांत्रिक प्रणालियों को बदलने के लिए बिंदुओं और संकेतों के केन्द्रीकृत संचालन के साथ पूरी तरह निरापद बताकर इलेक्ट्रिकल/इलेक्ट्रोनिक इंटरलॉकिंग सिस्टम 2015 के बाद बहुत जोर शोर से अपनाए जाने के बाद आज उसी को कठघरे में खड़ा करने की नौबत क्यों? सिग्नलिंग प्रणाली की मशीनी विफलता पर दोष मढना आसान है। 
रेलमंत्री के इस जवाब ने हमलावर विपक्षियों का मुंह तो बंद कर दिया, लेकिन इसके बाद इस मुख्य प्रश्न के साथ कि जब भारत में 80 प्रतिशत रेल दुर्घटना गाड़ियों के बेपटरी होने से होती है, तो अब तक इस समस्या का इलाज क्यों नहीं? पर इसके अलावा रेलवे सुरक्षा के तमाम महत्वपूर्ण दूसरे सवाल भी रेलमंत्री के सामने मुंह बाये खड़े हैं, क्या उसके जवाब से वे सबको निरुत्तर कर सकेंगे? तेज़ रफ्तार वंदे भारत ट्रेनों की लगातार शुरुआत से पहले क्या हमने जांचा कि हमारी पटरियां, सिग्नल व्यवस्था और दूसरी प्रणालियां 125 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से अधिक चलाने लायक हैं, यह गति दुर्गति तो नहीं करा देगी? इसी साल सितम्बर में कैग ने रेलवे की अपनी ऑडिट रिपोर्ट में कहा था कि रेल सुरक्षा में बड़ी खामियां हैं। रेल पटरियों की स्थिति का आकलन की कारगुजारियों में 30 से 100 प्रतिशत की कमी आयी है। रेल मंत्रालय पता करे कि ट्रेनों के पटरी से उतरने और टक्करों से रोकने के लिए क्या उपाय किए गए और वह कितने कारगर हैं। 
रेल मंत्रालय ने इसको कितनी गंभीरता से लिया, रेल मंत्री ने इसके लिए क्या कदम उठाए? कवच अभी तक 23000 में से मात्र 59 इंजनों में ही क्यों लगाया जा सका है? 68000 किलोमीटर के रेल नेटवर्क का महज तीन प्रतिशत हिस्सा ही कवच से कवर क्यों है? राष्ट्रीय रेल सुरक्षा कोष और ट्रैक नवीनीकरण के लिए धन आवंटन में कमी क्यों? उसके कोष का महज 20 प्रतिशत ही मूल उद्देश्यों पर क्यों व्यय हुआ, बाकी का उपयोग क्यों नहीं? मंत्रालय ने रेल सुरक्षा आयुक्त शक्तियों में कटौती का क्या उद्देश्य है? रेलवे के सभी 39 जोन मानव संसाधन की कमी से क्यों जूझ रहे हैं? लोको पायलट को जबरिया ज्यादा घंटों तक ड्यूटी क्यों देनी पड़ रही है।  ओड़ीशा की बालासोर रेल दुर्घटना के बाद मुआवजा, ट्रैक मरम्मत तथा दूसरे राहत कार्यों के प्रति सरकार की तत्परता स्वागत योग्य है। उस रेल मार्ग पर जल्द ही सब सुचारु हो जायेगा, रेलमंत्री ने दुर्घटना के कारणों पर उठे सवालों का जवाब भी दे दिया लेकिन रेलयात्रा कब पूर्णत: निरापद होगी और यात्रियों की सच्ची सुरक्षा कब बहाल होगी? इंस्पेक्शन में भारी कमी, हादसों के बाद जांच रिपोर्ट जमा करने या स्वीकार करने में विफलता, कब दूर होगी। सरकार और रेलवे दुर्घटनाओं के प्रति अपनी ज़ीरो टालरेंस का वायदा कब पूरा करेगी? इन प्रश्नों का उत्तर संभवत: नहीं मिलेगा। रेल और रेलयात्रियों की सुरक्षा, संरक्षा के प्रति आज़ादी के बाद से लेकर अभी तक कोई सरकार पर्याप्त गंभीर नज़र नहीं आती है। बीते 23 सालों में देशवासियों नें 1000 से ज्यादा बड़ी रेल दुर्घटनाएं देखीं हैं जिसमें हजारों लोगों की मौत हुई और घायलों की गिनती तो बहुत बड़ी है। रेल से संबंधित तमाम दुर्घटनाएं आये दिन होती हैं। रेलवे ट्रैक पर काम करने वाले 500 से अधिक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी सालाना मरते हैं, दर्जनों मालगाड़ियां बेपटरी हो जाती हैं पर बड़ी खबर नहीं बनती। 
बड़ी दुर्घटनाओं पर जांच आयोग बनते हैं, बहुधा फैसला आम नहीं होता कुछ कर्मचारियों को दोषी बताकर मामला रफा दफा हो जाता है। इस बार भी हमेशा की तरह जांच कमेटी बनी है, नतीजा क्या निकला किसी को पता नहीं चलेगा। ऐसे में लोगों में यह धारणा है कि सरकार पहले की तरह इस बाद भी मामले को फाइलों में ही दफन कर देगी गलत नहीं है। रेल मंत्रालय पहले इतनी संवेदनशीलता दिखाता था कि रेलमंत्री भीषण दुर्घटनाओं के बाद अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुये इस्तीफे की पेशकश करते थे, पद त्याग देते थे एक दशक से वह परंपरा भी समाप्त है इस परंपरा का निर्वहन होना तय है। विपक्ष की मांगों और रेलवे की सुरक्षा प्रणालियों पर उठते सवालों का कोई असर होगा यह फिलहाल नहीं दिखता है। 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के अपने प्रयास में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए भारत के परिवहन बुनियादी ढांचे का उन्नयन एक प्रमुख प्राथमिकता है पर ऐसे में यह स्वप्न पूरा होने में संदेह नज़र आता है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर