बहुमत ज़िंदाबाद
मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़ द्वारा की गई तोड़ फोड़ की खबर बोल्ड लेटर में छपी थी, मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे। चित्र देखकर मैंने बिलौटे से पूछा, ये क्या? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है। चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है। मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी वह मेरे कहे पर कभी नहीं देती। बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है। चूहाें के पास संख्याबल है। इसलिये अब उनकी ही चलती है।
मैंने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एंड आर्डर की कोशिश करती पुलिस पर पथराव किया। मैंने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है, एक वो परसाई के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्हाेंने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पुलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो रहे हैं। मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा?
तभी मुझे एक मां अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा! परजाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर! मैं जान बचाकर पलटकर भागा, मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे, जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये। भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा। भीड़ का कोई चेहरा नही होता। वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नहीं है पर होता ज़रूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है। हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है। भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं। इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियों की ज़रूरत होती है। इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर, गुम जाती है, तितर-बितर हो जाती है, फिर इस भीड़ को वीडियाें कैमराें के फुटेज में कितना भी ढूंढ़ाें कुछ खास मिलता नहीं है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के। तब इस भीड़ को लिंचिंग कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है। यह भीड़ गाय के कथित भक्तों को गाय से बड़ा बना देती है। ऐसी भीड़ के सामने पुलिस बेबस हो जाती है।
भीड़ एक और तरह की भी होती है। नेतृत्व की अनुयायी भीड़। यह भीड़ संवेदनशील होती है। इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है। गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी। दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है। ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है। ज़रूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनाें चेहराें से परिचित करवाया जाये तभी माब लिंचिंग रुक सकती है। गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति बने रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली जुवान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये ज़रूरी है कि हम सुशिक्षित हो कि कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में बदल न सके। (सुमन सागर)