पुरी दुनिया में धूम है बिहार की लोककला सिक्की की

सिक्की एक तरह की घास या खर होती है, जो बिहार के मिथिलांचल में नदियों, तालाबों और कई बार यूं ही सड़कों के किनारे भी बारिश के दिनों में उग आती है। जब यह करीब चार-चार फिट ऊंची हो जाती है, तब लोग इसे काटकर सुखा लेते हैं, कुश के स्वाभाव वाली इस घास के जरिये सदियों से कई तरह की टोकरियां और रोजमर्रा के इस्तेमाल वाली दूसरी चीजें, जो आमतौर पर लकड़ी की बनती हैं, वो सब बनायी जाती हैं। अगर मिथिकीय आख्यानों पर भरोसा करें तो राजा जनक के समय से ही इस हस्तशिल्प की परंपरा रही है। जानकारों के मुताबिक सिक्की घास से बनने वाले आकर्षक हस्तशिल्प, देश ही नहीं दुनिया के सबसे आकर्षक और लोकप्रिय हस्तशिल्प हैं। इनकी देश ही नहीं अब तो विदेशों में भी खूब मांग है। साल 2007 में सिक्की घास के इन उत्पादों को जीआई टैग प्राप्त हुआ, तब से बिहार के दरभंगा और मधुबनी ज़िलों की मूलरूप से यह देश ही नहीं पूरी दुनिया में चर्चा और कारोबारी आकर्षण का विषय बनी हुई है। लंदन से लेकर म्यूनिख तक और रोम से लेकर न्यूयार्क तक आज सिक्की हस्तशिल्प के उत्पादों की खूब मांग है।
प्राकृतिक वनस्पति से बनी इस स्टाइलिश दस्तकारी को आज पूरी दुनिया में अपने कलात्मक रंग बिरंगी टोकरियों, मूर्तियों, थैलों और बैठने की मोटी चटाईयों से लेकर अनेक सजावटी सामानों के लिए जाना जाता है। सिक्की घास यूं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी बड़े पैमाने पर उगती है, लेकिन इसके व्यवसाय और कलात्मकता की जो ऊंचाई बिहार के दरभंगा और मधुबनी ज़िलों के दस्तकारों ने हासिल की है, वैसी कलात्मकता उत्तर प्रदेश या दूसरी किसी भी जगह के कलाकारों को नहीं मिली। सिक्की से बनी कलाकृतियां बेहद मनमोहक होती हैं। आज जीआई टैग के कारण सिक्की घास के उत्पादों की देश के महानगरों से ज्यादा विदेशों में मांग है, लेकिन बिहार में इसका महत्व लोग सदियों से जानते रहे हैं। यही वजह है कि साल 1969 में दरभंगा की विंदेश्वरी देवी को इसी सिक्की कला के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार हासिल हुआ था।
पहले सिक्की घास से बनी इन कलाकृतियों को शुभ अवसरों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। फिर आधुनिक लाइफस्टाल में सिक्की घास के विभिन्न दैनिक उपयोग के उत्पाद, एक तरफ जहां घर की सजवाट और उसे कलात्मक लुक देने के लिए किए जाने लगे, वहीं प्लास्टिक से बिगड़ती धरती की सेहत को ध्यान में रखते हुए कई लोग सिक्की कला के विभिन्न उत्पादों को प्लास्टिक उत्पादों की जगह रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल करने लगे हैं। यह अलग बात है कि सिक्की कला को समर्पित ये दैनिक उत्पाद अपनी कलात्मकता के साथ-साथ आज प्लास्टिक से पैदा हुए खतरों का सम्मानीय विकल्प बनकर भी उभरे हैं। हालांकि ये थोड़े महंगे हैं, लेकिन जिस तरह से प्लास्टिक पूरी दुनिया में स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है, उसे देखते हुए शुद्ध घास के उत्पाद जहां कलात्मक हैं, पवित्र हैं, अपनी बनावट की कुशलता के कारण महत्वपूर्ण आर्ट का हिस्सा हैं, वहीं उपभोक्ता के स्वास्थ्य की गारंटी है। साथ ही इस कला के जरिये लोगों को रोज़गार भी मिल रहा है।
बिहार में लाखों महिलाएं विशेषकर मधुबनी और दरभंगा ज़िले की महिलाएं सिक्की घास से कई तरह के कलात्मक उत्पादों को बना और बेचकर अपने घर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी हुई हैं। हर साल कई हजार करोड़ रुपये के ये सिक्की घास के उत्पाद विदेशों को निर्यात भी होते हैं। लोग अपने घर का इंटीरियर निखारने के लिए भी इनका उपयोग करते हैं। चूंकि ये पूरी तरह से प्राकृतिक घास के उत्पाद होते हैं, इसलिए प्रदूषण और प्लास्टिक से हर जगह राहत देते हैं।
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