लोकतंत्र के लिए घातक हैं चुनाव आयोग पर लगते आरोप

संख्याओं का खेल है संसदीय लोकतंत्र। एक वोट से भी हार जीत संभव है। मतों के एक प्रतिशत से भी कम का झुकाव किसी दल की सरकार बनवा सकता है अथवा उसे सत्ताच्युत करा सकता है। तमाम चुनावी संघर्ष बहुमत और संख्या बल के लिए ही है। राजनीतिक दल हों या चुनाव आयोग सभी प्रत्याशी की गुणवत्ता के बारे में कम और ज्यादा से ज्यादा संख्या में मतदान को प्रेरित करते हैं। संख्याओं की अंतिम गिनती का सर्वाधिकार चुनाव आयोग के पास सुरक्षित है। चुनाव आयोग जो निर्णायक आंकड़ा देगा वही आधिकारिक और विश्वसनीय माना जायेगा। अगले पांच बरसों के लिये देश का सियासी भविष्य निर्धारित करेगा परन्तु यह दुखद तथ्य है कि जो चुनाव आयोग लगातार मतदान प्रतिशत बढ़ाने का आह्वान कर रहा है, उसी पर बहुत-सी जगहों पर मतदान धीमा करवाने का आरोप लग रहा है। उसकी विश्वसनीयता, निष्पक्षता, कार्यदक्षता पर अदालतें तक सवाल उठा रही हैं, जवाब मांग रही हैं। अभी मतदान के दो चरण बाकी हैं और उस पर हर चरण में आंकड़ों में हेरफेर के आरोप लग चुके हैं। मतदान और चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी की हज़ारों शिकायतें उसके पास लम्बित हैं। उसके द्वारा पहले चरण का मत प्रतिशत बताने में 11 दिन क्यों लगे या दूसरे चरणों का आंकड़ा इतनी देरी से क्यों जारी हुआ अथवा हमेशा पड़ने वाले मतों की संख्या बताई जाती थी, इस बार महज प्रतिशत में क्यों या फिर इसमें तात्कालिक प्रतिशत में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी कैसे? 
इसका कोई माकूल जवाब नहीं है। फार्म 17 सी जिसमें मतदान के तत्काल बाद, कुल पड़ने वाले मतों की कुल संख्या होती है और यह न सिर्फ पार्टी के एजेंट, उम्मीदवार को दिया जाता रहा है बल्कि सार्वजनिक भी होता रहा है, इस बार क्यों नहीं। हर चरण के बाद प्रेस वार्ता की परम्परा क्यों टूटी ऐसे तमाम सवाल के गायब जवाब उसकी विश्वसनीयता और कामकाज पर सवाल खड़े कर रहे हैं। ज्यादातर आकलन कहते हैं कि इस स्थिति के लिये खुद चुनाव आयोग दोषी है परन्तु क्या यही अंतिम सत्य है? देश में निर्वाचन आयोग सर्वाधिक शक्तिशाली और स्वतंत्र निकाय है। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार चुनाव आयोग शक्ति का भंडार है। संविधान का आर्टिकल 324 उसे चुनाव प्रक्रिया, उस पर परोक्ष तौर पर पड़ने वाले प्रभावों पर नियंत्रण का पूरा अधिकार देता है। वह अपने विवेक का इस्तेमाल कर उचित फैसला ले, किसी भी तरह की कार्रवाई कर सकता है। 
मगर सरकार के अलावा तकरीबन सभी मानते हैं कि चुनाव आयोग अपनी शक्तियों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है। उसे एक ऐसे पक्षपातपूर्ण रेफरी की तरह दिखाया जा रहा है, जो दी गई शक्तियों और पूर्व नियमनों के सीमित दायरे में भागदौड़ कर कभी कभी महज सीटी बजाता है। वह भी किसी के उल्लंघन पर सीटी बजाने में सुस्ती तो किसी तरफ  फाउल होने पर चुस्ती दिखाता है। रेफरी अपने विवेक से कोई नियम नहीं बनाता। स्वयं संज्ञान नहीं लेता न ही पूर्वपेक्षा पर आधारित कोई कार्रवाई करता है। चुनाव आयोग की तमाम तरह की खामियों की चर्चा चहुं ओर है परन्तु उसकी की दुश्वारियों और चुनौतियों की चिंता शायद ही किसी को हो। बेशक चुनाव आयोग का अपने दायित्व के परिपालन में असफलता समूचे लोकतंत्र के लिये त्रासद होगी। लोकतंत्र में स्वतंत्र, निष्पक्ष, पारदर्शी, विश्वसनीय चुनाव की सफलतापूर्वक सम्पन्नता ही संबंधित चुनाव आयोग की साख और सम्मान को सुरक्षित रखता है। इन कसौटियों पर खरा उतरा चुनाव ही चुनी गई सरकार की सच्ची वैधानिकता तय करती है। आज अगर चुनाव आयोग को विफल माना जाता है तो इसके लिये क्या अकेले उसे ही दोषी ठहराना ठीक होगा? इस संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र के सर्वाधिक पवित्र और विस्तृत अनुष्ठान के दौरान उसकी चूक में क्या लोक और तंत्र दोनों का कोई हाथ नहीं है।
चुनाव आयोग से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की अपेक्षा उचित है लेकिन अपने विशाल लोकतांत्रिक देश में जहां मतदाता अपने अधिकारों और चुनावी अनुशासन के प्रति बहुत सचेत न हों। तृटिहीन चुनावी व्यवस्था कितना संभव है इसका वस्तुपरक आंकलन शायद नहीं होता। चुनावी व्यवस्था की अवसंरचना, सुरक्षा जैसे कारकों पर चुनाव अयोग का आंशिक नियंत्रण रहता है। उन्हें छोड़ दें। पर जिन मुख्य व्यवस्थाओं पर उसका पूर्ण नियंत्रण है उसके प्रति हालिया दौर में जिस तरह का उसका व्यवहार दिखा उससे उसकी कथित स्वतंत्रता पर संदेह उपजता है। 
चुनाव प्रक्रिया चालू होने के बाद जांच एजेंसियों को ‘मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट’ के दायरे में लाना चाहिए या नही,ं इस सवाल का जवाब भले बाद में मिले लेकिन चुनाव आयोग स्व-विवेक से चुनाव तक इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकता है परन्तु मौजूदा दौर में क्या ऐसा संभव दिखता है? चुनाव में सबके लिये बराबर अवसर हों, सभी एक समान चुनाव खर्च करें, सार्वजनिक भाषण और सार्वजनिक संवाद में मर्यादा बनाए रखें, चुनावी भाषणों में हेट स्पीच और तथ्यहीन बातें न हों, चुनावी प्रचार और भाषणों में धर्म, जाति संप्रदाय के बूते वोट न मांगे जाएं। मतदाताओं को लुभाने के लिये ऐसी घोषणाएं जिनका कोई आर्थिक वित्तीय आधार नहीं है, उन्हें रोकें। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर