जगत मौसी लीला मिश्रा के अनसुने किस्से

जब हम कोई फिल्म देखते हैं तो आमतौर से सितारों की छवि व उनके यादगार सीन अपने साथ ले आते हैं लेकिन इन यादों को एक साथ बांधे रहते हैं वह चरित्र कलाकार जो अपने अथक परिश्रम से सितारों को चमकने का अवसर देते हैं, उनके लिए विभिन्न भावनाओं को व्यक्त करने की ज़मीन तैयार करते हैं। आपको फिल्म ‘शोले’ में अमिताभ बच्चन के वह डायलाग तो याद होंगे, जिनमें वह धर्मेन्द्र का रिश्ता लेकर जाते हैं और ‘तारीफ’ में उन्हें शराबी से लेकर कोठे पर जाने वाला तक बता देते हैं। यह सीन चरित्र अभिनेत्री लीला मिश्रा के बिना संभव नहीं हो सकता था, जो फिल्म में मौसी की भूमिका में थीं और फिर हमेशा के लिए मौसी के नाम से ही विख्यात हो गईं। 
लीला मिश्रा का जन्म जायस, रायबरेली में 12 मार्च, 1918 में एक सम्पन्न ज़मींदार परिवार में हुआ था। वह जब मात्र 12 साल की थीं तो उनका विवाह राम प्रसाद मिश्रा से हुआ, जो स्वयं एक पुरातनपंथी ज़मींदार परिवार से संबंधित थे। लेकिन उन्होंने अपने परिवार की परम्पराओं को तोड़ा और वह थिएटर एक्टर बन गये। राम प्रसाद फिल्मों में अपना करियर बनाना चाहते थे, इसलिए बॉम्बे (अब मुंबई) चले आये। लीला मिश्रा भी उनके साथ फिल्म नगरी में चली आयीं। दादा साहेब फाल्के के नासिक मूवीटोन में काम करने वाले मामा शिंदे ने लीला मिश्रा को देखा, उनकी सुंदरता से प्रभावित हुए और मालूम किया कि क्या वह एक्ट्रेस बनना चाहेंगी। इस तरह लीला मिश्रा व उनके पति को ‘सती सुलोचना’ (1934) में क्रमश: मंदोदरी व रावण की भूमिकाएं मिल गईं। लेकिन कैमरा का सामना करने का दोनों को ही अनुभव नहीं था, इसलिए उनके कॉन्ट्रैक्ट्स को रद्द कर दिया गया। 
बहरहाल, किस्मत ने उनकी यात्रा पर विराम नहीं लगने दिया। कोल्हापुर के महाराजा द्वारा स्थापित कोल्हापुर सिनेटोन के लिए काम कर रहे एक वितरक ने लीला मिश्रा को स्पॉट किया। उन्हें व उनके पति को कोल्हापुर ले जाया गया जहां दोनों ने फिल्म ‘भिखारन’ (1935) में काम किया; जिसके लिए लीला मिश्रा को 500 रूपये और उनके पति को 150 रूपये मिले। लीला मिश्रा की पहली महत्वपूर्ण फिल्म ‘गंगावतरण’ (1937) थी, जिसके लिए कम्पनी ने दादा साहेब फाल्के को हायर किया था। कोल्हापुर में यह उनकी आखिरी व एकमात्र टॉकी फिल्म साबित हुई। इसके बाद वह बॉम्बे लौट आयीं।
लीला मिश्रा को फिल्म ‘होनहार’ में बतौर हीरोइन साइन किया गया था। लेकिन उन्होंने फिल्म के हीरो से एक सीन के लिए गले मिलने से मना कर दिया। उनकी परम्परागत सोच व जीवनशैली उन्हें कैमरा के सामने कुछ एक्शन करने से रोकती थी, जिसमें अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष को स्पर्श न करना भी शामिल था। लिहाज़ एक सीमा के बाद लीड एक्ट्रेस के तौर पर उनका कॅरियर आगे प्रगति न कर सका। ‘होनहार’ के निर्देशक ने उन्हें हीरोइन की भूमिका से हटा दिया और उन्हें हीरो की मां का रोल ऑफर किया। इस भूमिका में वह सहज थीं। लिहाज़ा जिस आयु में लड़कियां प्रेमिका की भूमिकाएं करती हैं, लीला मिश्रा मां, मौसी आदि के किरदार निभाने लगीं। इसके बाद वह कलकत्ता (अब कोलकाता) जाकर फिल्मों में काम करने लगीं जैसे फाज़ली ब्रदर्स की ‘कैदी’ (1940), केदार शर्मा की ‘चित्रलेखा’ (1941) और आरसी तलवार की ‘खामोशी’ (1942)। इस फेज़ के बाद वह वापस बॉम्बे आ गईं जहां उन्होंने ‘किसी से न कहना’ (1942) फिल्म की, जिसकी सफलता ने उन्हें प्रमुख चरित्र अभिनेत्री के रूप में स्थापित कर दिया।
अगले कुछ दशकों के दौरान लीला मिश्रा भारतीय फिल्मों की कुछ अति आइकोनिक फिल्मों में दिखायी दीं, लेकिन अधिकतर मां या मौसी ही की भूमिकाओं में। इनमें से सबके नाम लेना तो संभव नहीं है, लेकिन कुछ खास इस तरह से हैं- ‘अनमोल घड़ी’ (1946), ‘आवारा’ (1951), ‘प्यासा’ (1957), ‘राम और श्याम’ (1967), ‘उमराव जान’ 1981), ‘चश्मेबद्दूर’ व ‘कथा’ (1982) आदि। लीला मिश्रा के विस्तृत फिल्मी कॅरियर में एक खास बात तो एकदम से नज़र आती है वह यह है कि विविध प्रकार के फिल्ममेकर उनपर महत्वपूर्ण सहायक चरित्र निभाने के लिए भरोसा करते थे। एक एक्टर के रूप में उनकी ख्याति केवल पॉपुलर सिनेमा तक सीमित न थी। सत्यजीत रे ने उनकी प्रतिभा का इस्तेमाल ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) में हिरया की भूमिका निभाने के लिए किया। वह उनके साथ आगे भी काम करना चाहते थे, लेकिन लीला मिश्रा कोलकाता जाने के लिए तैयार नहीं थीं। उन्होंने ‘लाजवंती’ (1958) में भी काम किया था, जो कांस फिल्म फेस्टिवल में पाल्मे डेओर के लिए नामंकित हुई थी। वह अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलीं और बासु चैटर्जी की ‘बातों बातों में’ (1979) ईसाई महिला के रूप में नज़र आयीं। लेकिन आज दर्शक उन्हें ‘शोले’ (1975) की मौसी के रूप में ही अधिक जानते हैं।लीला मिश्रा का 17 जनवरी, 1988 को मुंबई में निधन हो गया। वह भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक ऐसी अदाकारा के रूप में याद रहेंगी, जिन्होंने अपनी उपस्थिति से कुछ सीनों को हमेशा के लिए यादगार बना। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर