‘मुफ्तखोरी’ की घोषणाओं पर ‘लगाम’ ज़रूरी

देश में महंगाई, बेरोज़गारी समेत कई ऐसे मुद्दे हैं जो सच में आम आदमी के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो रहे हैं और इसके पीछे कही न कही देश में जनसंख्या विस्फोट और तमाम राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता पाने के लिए ‘मुफ्तखोरी’ की योजनाओं की घोषणाएं हैं, क्योंकि जब भी चुनाव का समय आता है तो सभी राजनीतिक पार्टियां अपने ‘घोषणा-पत्र में मुफ्त की चीज़ें देने का दावा करती हैं जिससे लोग उनके जाल  में फंस जाते हैं जबकि मुफ्तखोरी की लत कहीं न कहीं उन लोगों को और कमज़ोर बना देती है जो सच में उस मुफ्तखोरी के योग्य नहीं होते, लेकिन फिर भी सरकार के वादों के अनुसार मुफ्त की योजना का लाभ लेते हैं, जिसका कहीं न कहीं देश के आर्थिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक दल तो सत्ता पाने के लिए लोगों को चीज़ें और अन्य सेवाएं मुफ्त में देने की घोषणा करके अपनी राजनीति चमका लेते हैं, परन्तु इसका बोझ देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इस सब से राजनीतिक दलों से कोई सरोकार नही है। जनता भी मुफ्त की योजनाओं के लिए लालायित रहती है। वैसे इसमें जनता का कोई दोष नहीं है। जनता को जब सरकार दे रही है तो लोग उस योजना का लाभ तो अवश्य ही लेंगे, लेकिन राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के समय किये गये वादों पर माननीय उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग की पैनी नज़र होनी चाहिए। मुफ्तखोरी का वादा पूरा करने के लिए आय के स्रोत की जानकारी भी ज़रूरी है क्योकि जब कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आकर अपने द्वारा किये गये मुफ्तखोरी के वादे को पूरा करने के लिए ऋण लेता है और जब सत्ता से बाहर हो जाता है तो एक बड़ी राशि में देश या राज्य पर ऋण के रूप में छोड़ जाता है। इसका विपरीत प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, खासकर उन लोगों पर जो अपने आय का एक बड़ा हिस्सा सरकार को टैक्स के रूप में देते है।
बेशक किसी भी सरकार का कर्त्तव्य है कि गरीबों के लिए कल्याणकारी योजना संचालित करे और उनको भी समाज की मुख्य धारा से जोड़े, लेकिन गरीबों की योजनाओं का लाभ ऐसे लोग भी लेते हैं जो वास्तव में उनके पात्र नहीं होते, क्योंकि सरकार युवाओं, गरीबों, महिलाओं, बेरोज़गारों, किसानों या अन्य लोगों के लिए योजना संचालित करती है जो सच में गरीब हैं या उस पात्रता श्रेणी में आते हैं, लेकिन सम्पन्न लोग भी ऐसी योजनाओं का पूरा लाभ लेते हैं। इस कारण कई पात्र लोग ऐसी योजनाओं से वंचित रह जाते हैं।  सरकार भले ही दावा करे कि गरीबी, महंगाई और बेरोज़गारी कम हुई है, लेकिन हकीकत यह है कि जब तक सरकार अपना कागज़ी आंकड़ा तैयार करती है तब तक गरीबी, बेरोज़गारी और बढ़ चुकी होती है। इन सभी के पीछे कहीं न कहीं जनसंख्या विस्फोट और स्थानीय स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार ही ज़िम्मेदार है जो सरकार की मंशा के अनुरूप कार्य करने में बाधक साबित होता है। राजनीतिक दल भले ही मुफ्तखोरी का लालच देकर सत्ता तक पहुंच जाएं, लेकिन देश को सच में मज़बूत करने के लिए ‘मुफ्तखोरी’ पर लगाम लगाने की ज़रूरत है।
राजनीतिक पार्टी जो चुनाव के पहले गरीबों की तथाकथित हितैषी बनने की बात करती है तथा मुफ्तखोरी का लॉलीपॉप दिखाकर सत्ता तक पहुंचना चाहती है, चुनाव हारने के बाद  गरीबों के लिए मौन हो जाती है। मुफ्तखोरी की घोषणा करने वाले जो राजनीतिक दल हैं, चुनाव हारने के बाद वे अपने पार्टी फंड से अपनी घोषणा का एक भी कार्य क्यों नहीं करते जबकि सभी को भारी मात्रा में चंदा मिलता है। राजनीतिक दलों का प्रेम केवल सरकार के फंड से ही दानी बनना है। इस तरह की मुफ्तखोरी की घोषणाओं पर पूरी तरह रोक लगाई जानी चाहिए क्योंकि मुफ्तखोरी से कहीं न कहीं देश की श्रमशक्ति कमज़ोर पड़ती है। यदि ज़रूरत हो तो यह योजना केवल उन पर लागू हो जो सच में पात्र हैं।

(युवराज)