ग्रामीण क्षेत्रों की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए नई सरकार को

ग्रामीण भारत ने भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में 240 सीटों तक सीमित कर दिया। अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सहयोगी न होते तो नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री भी नहीं बन पाते। भाजपा अब संसद में बहुमत के लिए अपने सहयोगियों पर निर्भर है। भाजपा ने 2024 में अपने एक तिहाई ग्रामीण संसदीय क्षेत्रों को खो दिया जो तीव्र ग्रामीण संकट को दर्शाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), अग्निवीर और उच्च बेरोज़गारी, इन सभी ने भाजपा के चुनावी संकट में योगदान दिया। भाजपा ने 2024 के चुनाव में 126 सीटें ही बरकरार रखीं, जबकि उसने 2019 के चुनाव में 251 ग्रामीण सीटें जीती थीं, लेकिन भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने 221 ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण लोकसभा क्षेत्रों में जीत हासिल की। इनमें से ज़्यादातर सीटें उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान से आयी हैं। दूसरी ओर ‘इंडिया’ ब्लॉक ने 2024 के चुनाव में 157 ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की।
नयी राजग सरकार को ग्रामीण समस्याओं से जुड़े मुद्दों पर तुरंत ध्यान देना चाहिए। किसान समुदाय इतनी मुश्किल में है कि वह राहत का इंतज़ार नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगली तिमाही के पीएम किसान सम्मान निधि का भुगतान जारी करके किसानों के प्रति अपनी सरकार की प्रतिबद्धता का बड़ा प्रदर्शन किया है, लेकिन इस डीबीटी (डायरेक्टटू बैंक ट्रांसफर) में कुछ खास नहीं है। 
17वीं किस्त का भुगतान अप्रैल के अंत में किया जाना चाहिए था, लेकिन आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण ऐसा नहीं हो सका और पूरे चुनाव अभियान के दौरान ग्रामीण असंतोष उबलता रहा। किसानों को लाभकारी कृषि मूल्य नहीं मिल रहे थे, ग्रामीण बेरोज़गारी बहुत ज़्यादा थी, एक दशक से मज़दूरी में स्थिरता थी और खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ रही थीं। लाखों किसानों सहित आम जनता को नुकसान उठाना पड़ा। स्वाभाविक रूप से मोदी सरकार को दोषी ठहराया गया और हाल के चुनावों में उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। 
पिछले डेढ़ दशक में ग्रामीण संकट बढ़ा है। उर्वरक, बीज, डीज़ल और कीटनाशकों की ऊंची कीमतों के कारण कृषि में उत्पादन की लागत लगभग तीन गुना बढ़ गयी है। ये सभी कृषि अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक हैं। हालांकि सरकार समय-समय पर विभिन्न फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती रही है, लेकिन किसान संकट में हैं और अपनी फसल को बाजार में बेचने में असमर्थ हैं। 
आर्थिक दृष्टि से दो प्रकार की आय होती है। एक सामान्य और दूसरी वास्तविक जबकि नाममात्र आय (मुद्रा के संदर्भ में) में न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ थोड़ी वृद्धि देखी गयी, वास्तविक आय में गिरावट आयी। वास्तविक आय उपभोग किये गये खाद्य और घरेलू औद्योगिक वस्तुओं की क्रय शक्ति (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक) से जुड़ी हुई है। अनुमानों के अनुसार, पिछले 15 वर्षों में वास्तविक आय में 60 प्रतिशत की कमी आयी है, जिसका मुख्य कारण बाज़ारों में कृषि और औद्योगिक वस्तुओं के बीच मूल्य असमानता है। इस मूल्य असंतुलन के परिणामस्वरूप देश में कुल अनुमानित 42 लाख करोड़ रुपये के कुल कृषि उपज में से लगभग 28 लाख करोड़ रुपये का हस्तांतरण हुआ है।  सुपर मार्केट में उपभोक्ता द्वारा कृषि उत्पादों की प्रत्येक रुपये की खरीद पर किसान को मात्र 26 से 30 पैसे मिलते हैं। अधिशेष अनाज व्यापारी, मिल मालिक और कॉर्पोरेट घराने जेब में डाल लेते हैं। किसानों को मिलने वाली वास्तविक आय उनके परिवारों का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, जिससे ग्रामीण संकट पैदा होता है। कृषि क्षेत्र का निराशाजनक प्रदर्शन औसत कृषि विकास में मंदी से परिलक्षित होता है। किसानों की आय दोगुनी करने का मोदी सरकार का वायदा केवल बातें ही थीं।
ग्रामीण संकट पर नीति निर्माताओं का पर्याप्त ध्यान नहीं गया है। ग्रामीण परिवारों को रोज़गार और सहायता प्रदान करने के बजाय केंद्र सरकार ने विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए बजट आवंटन में कटौती की है। उदाहरण के लिए, पिछले 2-3 वर्षों में मनरेगा के लिए आवंटन में लगातार कमी आ रही है। अप्रैल में मनरेगा के तहत काम की मांग में 48.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई। (संवाद)