गज़ल-देश सेवा की राहें कड़ी हो गईं

देश सेवा की राहें कड़ी हो गईं।
कुर्सियां आदमी से बड़ी हो गईं।
आगे वरदी के सच्चाई रोती रही,
चूड़ियां हाथ की हथकड़ी हो गईं।
आये बेरी पे पत्थर तो ऐसा लगा,
बेटियां म़ुफलिसों की बड़ी हो गईं।
आज इससे द़गा, कल है उससे द़गा,
कुर्सियां आजकल लोमड़ी हो गईं।
ज़हर पीकर किसानों ने की ़खुदकुशी,
अर्थियां जब बजट की खड़ी हो गईं।
जब से सत्ता ने चौकों में मुजरा किया,
सब की नज़रें ‘उमा’ फुलझड़ी गईं।

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