दिलीप कुमार के पसीने छुड़ाने वाले दिग्गज विलेन के.एन. सिंह

‘ये इक्का, ये दुग्गी और ये चौक्की... जानी, पत्ते तुम्हारे बड़े हैं, लेकिन जीतेंगे हम क्योंकि ये है रामपुरी।’ इस किस्म के धमकी भरे डायलाग जब सूट-बूट और हैट पहने व मुंह में पाइप दबाये के.एन. सिंह अपनी घनी भौहों व उनींदी पलकों के बीच बड़ी-बड़ी आंखों से घूरते हुए बोलते थे, तो दर्शकों में घबराहट का होना स्वाभाविक था, लेकिन पर्दे पर उनके साथी कलाकार भी सहम जाते थे। के.एन सिंह अन्य खलनायकों की तरह पर्दे पर चिल्लाते नहीं थे, बल्कि अपनी आंखों व संयम से बोले गये धमकी भरे शब्दों से भय उत्पन्न करने में सफल हो जाते थे। दिलीप कुमार के तो उनकी उपस्थिति में पसीने ही छूट गये थे। 
हुआ यूं कि बॉम्बे टॉकीज़ फिल्म ‘ज्वार भाटा’ से दिलीप कुमार को लांच कर रहा था। उनका पहला ही सीन के.एन. सिंह के साथ था। दिलीप कुमार ने उनकी फिल्में देखी हुई थीं और वह अपने मन में के.एन. सिंह की रौबीली व खतरनाक छवि बनाये हुए थे। के.एन. सिंह को सेट पर साक्षात देखकर दिलीप कुमार घबरा गये। फलस्वरूप निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने के.एन. सिंह से अनुरोध किया कि वह चाय पीने के लिए सेट से बाहर चले जाएं और कुछ देर बाद लौटें। के.एन. सिंह ने इस अचानक आग्रह का कारण मालूम किया तो दिलीप कुमार की घबराहट की बात सामने आयी। के.एन. सिंह ने चाय पीने की बजाय दिलीप कुमार के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें समझाया व उनकी घबराहट दूर की। इस तरह दोनों महान कलाकार पहली ही मुलाकात में हमेशा के लिए दोस्त बन गये।
के.एन. सिंह का देविका रानी चौधरी के बॉम्बे टॉकीज़ में पहुंचने का किस्सा भी दिलचस्प है। कृष्ण निरंजन सिंह, जो बाद में के.एन. सिंह के नाम से विख्यात हुए, का जन्म 1 सितम्बर, 1908 को देहरादून (अब उत्तराखंड में) में हुआ था। वह अपने छह भाई बहनों में सबसे बड़े थे। उनके पिता चंडी प्रसाद सिंह जाने-माने क्रिमिनल वकील थे। उन्होंने के.एन. सिंह को पढ़ने के लिए लखनऊ भेज दिया। हाईस्कूल करने के बाद के.एन. सिंह वापस देहरादून लौट आये, जहां उनके पिता उन्हें जल्द से जल्द उनके पैरों पर खड़ा करना चाहते थे। नतीजतन के.एन. सिंह ने कई कामों में अपने हाथ आजमाए- कभी लाहौर में प्रिंटिंग प्रेस लगायी तो कभी राजाओं व नवाबों को जंगली जानवर सप्लाई किये और कभी चाय बागान मज़दूरों के लिए विशेष जूते बनवाये। लेकिन किसी काम में उनका दिल नहीं लगा, सब असफल रहे और उनके पिता को भारी नुकसान उठाना पड़ा। 
आखिर थककर पिता ने पुत्र को सलाह दी कि वह उनकी तरह वकील बन जाएं और लंदन जाकर बैरिस्टर की शिक्षा ग्रहण करें। के.एन. सिंह के बात समझ में आ गई और वकालत के पेशे को सही से समझने के लिए एक दिन वह कचेहरी गये। वहां का नज़ारा देखकर उनके होश उड़ गये। एक व्यक्ति जिसने वास्तव में कत्ल किया था, उसे वकील के दांव पेचों ने ‘बाइज्ज़त बरी’ करा दिया था। वह वकील के.एन. सिंह के पिता थे। इस नाइंसाफी को देखकर के.एन. सिंह का वकालत के पेशे से मोह भंग हो गया। के.एन. सिंह एथलीट थे और वेटलिफ्टिंग किया करते थे। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनका चयन बर्लिन ओलंपिक के लिए भी हुआ था। वह सेना में भी जाने के इच्छुक थे। लेकिन तभी उनकी एक बहन, जो अपनी शादी के बाद कलकत्ता (अब कोलकाता) में रहती थीं, बीमार हो गईं और उनकी देखभाल करने के लिए परिवार के आदेश पर के.एन. सिंह को कलकत्ता जाना पड़ा। 
कलकत्ता जाते समय देहरादून में ही के.एन. सिंह के दोस्त नित्यानंद खन्ना ने उन्हें अपने ममेरे भाई पृथ्वीराज कपूर के नाम एक सिफारिशी पत्र दिया। पृथ्वीराज कपूर उन दिनों कलकत्ता में ही अपनी नाटक कम्पनी चलाया करते थे। कपूर ने के.एन. सिंह की मुलाकात देबकी बोस से करायी जो उन दिनों न्यू थिएटर्स की फिल्मों का निर्देशन किया करते थे। इस तरह के.एन. सिंह को ‘सुनहरा संसार’ (1936) फिल्म में छोटा सी भूमिका मिली और न्यू थिएटर्स में वह 150 रूपये मासिक के वेतन पर अभिनय करने लगे। उनकी प्रभावी अदाकारी की खबरें बॉम्बे (अब मुंबई) तक पहुंचीं। निर्देशक ए.आर. कारदार ने 1937 में के.एन. सिंह को बॉम्बे आने का निमंत्रण दिया और उन्हें निर्माता फाज़ली भाई की फिल्म ‘बागबान’ में खलनायक का किरदार मिला। 1938 में रिलीज़ हुई इस फिल्म ने के.एन. सिंह को अभिनय संसार में स्थापित कर दिया और वह सोहराब मोदी के मिनर्वा स्टूडियो में 500 रूपये मासिक वेतन पर काम करने लगे। तभी देविका रानी की पारखी नज़र के.एन. सिंह पर पड़ी और उन्होंने उन्हें बॉम्बे टॉकीज़ ज्वाइन करने का निमंत्रण दिया और मालूम किया कि आप कितने वेतन की आशा करते हैं? के.एन. सिंह ने कहा, ‘आप ही तय करें कि मुझे क्या मिलना चाहिए।’ देविका रानी ने उन्हें 1600 रूपये मासिक वेतन पर रख लिया। स्टूडियो सिस्टम टूटने तक के.एन. सिंह बॉम्बे टॉकीज़ से जुड़े रहे। इसके बाद वह स्वतंत्र रूप से अभिनय करने लगे और उन्होंने अपने करियर में 200 से अधिक फिल्मों में काम किया। 
चरित्र भूमिकाओं के अतिरिक्त उन्होंने अधिकतर सफेद कालर वाले सज्जन खलनायक के रूप में काम किया। के.एन सिंह की अंतिम फिल्म ‘दानवीर’ थी, जो 20 सितम्बर 1996 को रिलीज़ हुई। के.एन. सिंह की अपनी कोई संतान नहीं थी। अंतिम वर्षों में जब उन्हें एक बीमारी के कारण दोनों आंखों से दिखायी देना बंद हो गया था, तो वह अपनी भतीजी के साथ रहते थे। वह खुद्दार इतने थे कि उस पर भी बोझ नहीं बनना चाहते थे। अपना सारा काम खुद करने की कोशिश करते थे। भतीजी जब दिन में दफ्तर होती तो वह दोपहर में ख़ुद फ्रिज से खाना निकालकर खाते थे। उन्होंने अपने बैठने की जगह से फ्रिज तक के कदम गिन रखे थे। 31 जनवरी, 2000 को मुंबई में उनका निधन हो गया।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर