जिसकी ‘राल’ से अगरबत्तियां बनती हैं - अगर का पेड़

अगर का पेड़ यानी अगरवुड जिसे आमतौर पर औध या गहरु के नाम से भी जाना जाता है, वास्तव में यह अपनी राल यानी सुगंधयुक्त रेजिन या गीली गोंद के लिए जाना जाता है। इसे और आसानी से इस तरह समझिये कि हमारे घरों में जो सुगंधित अगरबत्तियां और धूपबत्तियां जलायी जाती हैं, वे अगरवुड की ‘राल’ से ही बनती हैं। इसी कारण इस पेड़ का पूरी दुनिया में बहुत ज्यादा कॉमर्शियल महत्व है। मूलरूप से यह सुदूर पूर्वी एशिया का पेड़ है। यह भारत के साथ चीन, मलाया, न्यू गिनी, लाओस, कंबोडिया, सिंगापुर, मलक्का, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार और सुमात्रा में पाया जाता है। भारत में प्राकृतिक रूप से यह उत्तर पूर्व के हिमालयी इलाको में खासकर त्रिपुरा, नागालैंड, असम और मणिपुर में पाया जाता है। इसके बाद इसकी एक प्रजाति दक्षिण भारत के केरल प्रांत में पायी जाती है। भारत में इसके कई नाम हैं जैसे संस्कृत में इसे अगरु कहते हैं, हिंदी में अगर, असमिया में सांचीगाछ, बांग्ला में अगर, गुजराती में अगर, तेलगु में अगर, मलयालम में अकिल और अंग्रेजी में ईगलवुड कहते हैं। क्योंकि इस पेड़ से निकलने वाली राल या सुगंधित रेजिन की बहुत ज्यादा मांग है। इस वजह से पूरी दुनिया में इसकी कीमत बहुत है, यहां तक कि एक किलो राल की कीमत कई लाख रुपये हो सकती है और एक किलो अगरवुड के तेल की कीमत तो 40 हजार पाउंड यानी 35-40 लाख रुपये तक हो सकती है।
अपनी इस अद्भुत कॉमर्शियल वैल्यू के कारण राल के पेड़ों का अंधाधुंध दोहन होता है। इसलिए दुनिया में इनकी संख्या बहुत कम रह गई है बल्कि सबसे अच्छी किस्म वाले राल के पेड़ तो लगभग लुप्तप्राय होने को हैं, इस कारण इस दुर्लभ पेड़ को साल 1995 में वन्य वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कंवेंशन की परशिष्ट दो में रखा गया है यानी इसे लुप्तप्राय की श्रेणी का पेड़ समझा गया है। जहां तक इस पेड़ से होने वाले व्यापारिक फायदों की बात है तो अच्छी क्वालिटी की एक किलो अगरवुड लकड़ी की कीमत उसमें मौजूद राल या सुगंध के आधार पर 1800 रुपये प्रतिकिलो से लेकर 5,40,000 रुपये प्रति किलो तक हो सकती है। अगर यह मान लिया जाए कि कोई किसान अगरवुड के पेड़ों की खेती करता है और एक एकड़ में ये पेड़ लगाकर कम से कम दस साल उनकी अच्छी तरह से देखभाल कर लेता है, तो अगर ये 700 के आसपास स्वस्थ अगरवुड पेड़ तैयार हो गये तो 8 से 9 करोड़ रुपये की कमाई हो सकती है। लेकिन यह 9 अलग-अलग किस्म की अगरवुड प्रजाति के पेड़ों में सबसे अच्छी यानी बेहतर सुगंध वाले अगर के पेड़ से मिलने वाली कीमत का अनुमान है। 
वास्तव में इस पेड़ की लकड़ी सुगंधित तब बनती है, जब इस पेड़, जिसका वैज्ञानिक नाम एक्विलारिया माल्काक्सिस है, की लकड़ी एक खास तरह की फफूंद लगने के कारण संक्रमित होकर घायल हो जाती है और इसमें एक घाव यानी सुराख बन जाता है। इस सुराख के कारण अगरवुड का पेड़ वाष्पशील यौगिकों के जरिये सुगंधित राल बनाता है, जो फफूंद को बढ़ने से रोकता है। यही वजह है कि अगर इस पेड़ में फफूंद ज्यादा बढ़ती है, तो यह पेड़ अपने लिए राल का भी ज्यादा उत्पादन करता है। कहने का मतलब यह है कि जिस सुगंधयुक्त रेजिन या राल के लिए पूरी दुनिया पागल रहती है, दरअसल अगरवुड का पेड़ वह सुगंध अपने जिंदा रहने या फफूंद से बचाव के लिए बनाता है। इस तरह देखा जाए तो कुदरत ने अगर के पेड़ को संक्रमण से बचाव के लिए जो एक विशिष्ट किस्म की राल बनाने की सहूलियत दी है। अगर का पेड़ वास्तव में इसी राल के अत्याधिक सुगंधित होने के कारण ही इंसान द्वारा खतरे से घिर गया है बल्कि कहना यह चाहिए कि इंसान ने इसकी इस खूबी के लिए इसे लगभग खत्म ही कर दिया है। हालांकि अब वियतनाम से लेकर चीन और सुमात्रा तक में अगर के पेड़ की इस राल को कृत्रिम रूप से बनाने की कोशिश की गई है और वियतनाम में तो काफी सफलता भी पायी है, जिस कारण लगता है कि अगले 40-50 सालों के बाद जंगलों में उगने वाले अगरवुड की बजाय रसायनों से बनने वाली कृत्रिम राल से ही सुगंधित अगरबत्तियां, धूपबत्तिया और दूसरी चीजें बनायी जाएंगी।
अगर का पेड़ इसलिए भी खतरे से घिर गया है, क्योंकि सभी धर्मों में अगर से बनने वाली सुगंधों का इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांडों के लिए भी किया जाता है तथा आधुनिक लाइफस्टाइल में वातावरण को साफ और सुगंधमय बनाने के लिए भी विभिन्न उत्पादों में इसका उपयोग होता है। भारत में चार पांच प्रजातियों के अगरवुड पेड़ पाये जाते हैं, लेकिन सबसे अच्छे या सर्वोत्तम क्वालिटी के अगरवुड, बांग्लादेश में सिलहट और भारत में त्रिपुरा व नागालैंड में पाये जाते हैं। अगर, त्रिपुरा का राजकीय वृक्ष है। राल के अलावा इस पेड़ की पत्तियों और लकड़ी में भी काफी हद तक सुगंध रची बसी होती है। इसलिए जहां पर अगरवुड पाया जाता है, दूर तक इसकी खूशबु आती रहती है। अगर सही से विकास हो जाए तो अगरवुड पेड़ की ऊंचाई 18 से 30 मीटर तक होती है। इसके तने की परिधि 1.5 मीटर से 2.5 मीटर तक होती है। इसके तने की छाल भोजपत्र जैसे होती है और इस छाल का आयुर्वेद में विभिन्न औषधियों में इस्तेमाल होता है। तने के ऊपर अगरवुड गरुण के पंखों की तरह अपना विस्तार करते दिखता है, इसलिए इसे ईगलवुड भी कहते हैं, वैसे इसके और भी कई नाम हैं। जैसे ऊद, एलोवुड, हर्टवुड साथ ही इसे देवताओं की लकड़ियों वाला पेड़ भी कहते हैं। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर