समाज और कानून व्यवस्था में टकराव क्यों होता है ?
हमारे देश में लगभग साढ़े बारह सौ कानून हैं और हर बार संसद में नये कानून बनते रहते हैं। इसी प्रकार राज्यों में भी होता है। इन कानूनों, नियमों, प्रतिबंधों और व्यवस्थाओं से उम्मीद की जाती है कि नागरिकों का जीवन आसान होगा और वे कभी भी ज़रूरत पड़ने पर इनके अन्तर्गत न्याय की गुहार लगा सकते हैं ।
समाज और कानून
भारत अनेक संगतियों यानी अच्छी बातों और उनके सामने अनेक विसंगतियों यानी खराब और विरोधी विचारों, परम्पराओं तथा मान्यताओं से भरा देश है। यह धर्म, जाति, भाषा, पहनावा, रहन-सहन की बात नहीं है, वह तो विविधता लिए हुए ही हैं, एकता की तलाश करने की भावना से जुड़े हैं। कोई भी अपनी संस्कृति या धरोहर त्यागना तो दूर, तनिक बदलना भी नहीं चाहता। इन पर आंच आती दिखाई देती है तो रक्षा के लिए प्रदर्शन, हिंसा और अनेक असामाजिक गतिविधियां होती हैं। पुलिस, प्रशासन भी यथासंभव कानून के अनुसार कार्यवाही करता दिखाई देता है।
प्रश्न यह है कि जब सब कुछ कानून में तय है तो क्यों उनमें कोई खामी (लूप होल) खोजने लगता है ताकि जो वह चाहता है, कर सके और कानून के उल्लंघन का ठीकरा भी उसके माथे पर न फोड़ा जा सके और लगे कि सब कुछ नियम और कानून के अनुसार हुआ है। यहीं से शुरू होता है रिश्वत यानी सुविधा शुल्क का खेल जो भ्रष्ट तरीके अपनाए बिना पूरा नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि कानून इस बात की गारंटी नहीं हैं कि उनके मुताबिक चल कर आप अपनी मंज़िल पा सकते हैं। यह ऐसी स्थिति है जिसमें इस बात की दावत दी जाती है कि आपको काम कराना है और हमें करना है तो हमारी मेज़ की दराज़ खुली है, उसमें भेंट दीजिए और बाकी हम पर छोड़ दीजिए। यदि कोई इतनी सी बात न समझे तो फिर वो नियमानुसार काम कराने के लिए दर-दर की ठोकरें खाये, अपना समय गवायें और कुछ न हो तो अपने भाग्य को दोष देकर घर बैठ जाये।हमारे देश में लगभग हर बात के लिए नियम और कानून हैं, जैसे कि सड़क पर चलना, गाड़ी चलाना, किसी भी साधन से यात्रा, खरीदना, बेचना, उपभोक्ता संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, वन और वन्य जीव तथा पर्यावरण रक्षण, खेतीबाड़ी, व्यापार, व्यवसाय, नौकरी, मानवाधिकार, प्राकृतिक या मानवीय आपदा, मतलब यह कि एक लम्बी सूची है जो इसका भ्रम पैदा करती है कि यदि कुछ गलत होता है तो कानून, पुलिस, प्रशासन तथा अंत में सरकार तो है न, जो हमें सुरक्षा देने के लिए मौजूद है।
न्याय और अन्याय की परिभाषा
विडम्बना यह है कि समय, काल, परिस्थिति और व्यक्ति की हैसियत के अनुसार ही न्याय और अन्याय की परिभाषा तय होती है। इसके अतिरिक्त यह तय करने में ही दिन, महीने और वर्ष निकल जाते हैं कि जिस तथाकथित अपराध के लिए कोई कार्यवाही की गई है, उसका स्रोत क्या है? हालांकि हरेक बात के लिए समय सीमा निर्धारित है, परंतु न तो कोई कानून है और न ही किसी दंडाधिकारी में इस बात की उत्सुकता दिखाई देती है कि निर्धारित समय नामक प्रावधान का पालन हो।
यह बेबुनियाद तर्क दिया जाता है कि चाहे कितने भी अपराधी बच जायें परन्तु एक भी निर्दोष को सज़ा न हो। यहीं से पक्षपात की शुरुआत होती है, जोड़-तोड़ की प्रक्रिया चलने लगती है, बच निकलने के प्रयास होते हैं और कानून के हाथ चाहे जितने भी लम्बे बताये जायें, उसके अंधे होने का कवच अपराधी को सुरक्षा प्रदान कर देता है। कानून और व्यवस्था की इसी कमज़ोरी के कारण आज संसद हो या विधान सभाएं, उनमें सज़ायाफ्ता, बाहुबली, घोषित उपद्रवी, हत्यारे, दुष्कर्मी और यहां तक कि आतंकवादी पहुंच जाते हैं। यही वे लोग हैं जिनकी किसी भी कानून के बनाने में सब से बड़ी भूमिका होती है। प्रतिदिन इस प्रकार के समाचार मिलते हैं कि दुर्घटना, जानबूझकर और संगठित बेईमानी, हेराफेरी, घोटाले के वास्तविक अभियुक्त पकड़े नहीं जाते, निडर होकर घूमते दिखाई देते हैं, ऐसी बातें उजागर होती हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ जाये और उन तक कानून पहुंच न सके तो फिर यह किसका दोष है?
अब यह देख और सुनकर आश्चर्य नहीं होता, बल्कि क्रोध, बेबसी का एहसास होता है कि कैसी व्यवस्था में जीने के लिए विवश हैं जिसमें पाखंडी, धूर्त, सरगना, भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोर और कालिख को सफेदी सिद्ध करने में पारंगत व्यक्तियों के सम्मुख कानून अपने रखवालों के कृत्यों के कारण धूल चाटता नज़र आता है। यह जानकर अब बुरा लगना बंद सा हो गया है कि आज भी अशिक्षित लोगों की आबादी ही सबसे अधिक है। समाज के केवल एक वर्ग के पास सभी संसाधनों का जमा हो जाना कोई अच्छा संकेत नहीं है। इसी तरह अपने धर्म और जाति के नियम, कायदों के अनुसार ही चलना और उन्हें ही देश के कानूनों को न मानकर सबसे ऊपर रखना कहां की समझदारी है।
उदाहरण के लिए हम आजतक उन लोगों को समाज की मुख्य धारा में नहीं ला पाए जिनका सदियों से चोरी, डकैती, अपहरण ही आजीविका का साधन है। उन्हें अपनी पारिवारिक परम्पराओं के कारण इन सब का प्रशिक्षण दिया जाता है और हम उन्हें जरायमपेशा, कबीलाई कहकर उन पर कोई ध्यान नहीं देते। इस बात को गम्भीरता से नहीं लिया जाता कि उन तक आधुनिक टैक्नोलॉजी, इंटरनेट, मोबाईल और नवीनतम शस्त्र पहुंच गये हैं। हमारे सुरक्षा बलों को पहले से अधिक चुनौती देने में सक्षम हैं।
कानून का सम्मान नहीं, निरादर होता है
आज भारी भरकम और तड़क-भड़क से लैस बहुत-से कानून होने के बावजूद हमारी हर्बल सम्पदा की चोरी और तस्करी विशाल पैमाने पर हो रही है। वन विनाश अपने चरम पर है। प्राकृतिक संसाधनों के शोषण और उनके प्रति गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया रखने के कारण अनेक कानूनों के होते हुए भी कुदरत का कहर बरस रहा है। यह सब इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि हमने कानून तो बहुत बना दिये, लेकिन उनका आदर और सम्मान नहीं होता। इसके विपरीत उनका इस्तेमाल समाज के उस वर्ग को अपमानित और प्रताड़ित करने के लिए किया जाता है जो नियमानुसार चलना चाहता है। कानून चाहे उसकी दृष्टि में गलत या सही हो, परन्तु वह उसका पालन करना चाहता है। कहना न होगा कि हमारी आज की पुलिस व्यवस्था गले तक कथित भ्रष्टाचार में डूबी है। बिना पैसे के लेन-देन और मतलब परस्ती के वहां पत्ता तक नहीं हिलता। इसी प्रकार जितने भी अन्य विभाग हैं जिनकी अनुमति के बिना कोई कार्य, व्यापार, व्यवसाय किया ही नहीं जा सकता, वे अपनी स्वार्थपूर्ति और वसूली किए बिना टस से मस नहीं होते।
निष्कर्ष यह है कि कानून बनाये हैं तो उनका ईमानदारी से पालन करने की व्यवस्था पहले करनी चाहिए। उनमें कोई सुराख ढूंढ सकने की गुंजाइश न हो और उन्हें सभी पर समान रूप से लागू करने की मानसिकता हो। ऐसा न हो कि समर्थ पर तो कोई दोष न लग सके और जो निरीह है, उसकी हंसी उड़ाई जाती रहे। जब हम विकसित देशों में कानून के पालन के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती न करने की कहानियां सुनते हैं तो सोच में पड़ जाते हैं कि क्या ऐसा भी होता है कि कोई अपनी मज़र्ी से कानून का केवल पालन ही न करे बल्कि किसी को उसे नज़रअंदाज़ भी न करने दें। इसके पीछे एक ही रहस्य है और वह यह कि कानून समाज की ज़रूरतें पूरी करने का साधन है न कि उसे दंडित करने का। हमारे यहां सज़ा से खौफ खाने का वातावरण बनाया जाता है न कि स्वयम् ही कानून के पालन करने का। कानून तोड़ने वाले को नायक और जो ऐसा न करे वह खलनायक माना जाता है। सज़ा या जुर्माना कोई अहमियत नहीं रखता बल्कि यह सोच है कि कानून का पालन अपने आप ही होना चाहिए। यह तब हो सकता है जब कानून इस तरह के हों कि भेदभाव किया ही न जा सके। क्या हमारे कानून इस कसौटी पर खरे उतरते हैं? ज़रा सोचिए।