महंगाई के कारण बदल रही है दुनिया की सियासी तस्वीर

इस वर्ष उन देशों में चुनाव हो रहे हैं, जिनमें दुनिया की लगभग आधी आबादी बसी हुई है। जनवरी में ताइवान में हुए आम चुनावों से शुरू हुआ यह सिलसिला नवम्बर में अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के साथ ही खत्म होगा। आर्थिक और भू-राजनीतिक तनाव के बीच हरेक देश में अलग-अलग चुनावी मुद्दे हैं, मगर महंगाई सब पर हावी है और उसकी वजह से दुनिया की सियासी तस्वीर बदल रही है।
इंडोनेशिया में हरे प्याज की कीमतों से लेकर यूरोप भर में ईंधन की महंगाई तक खानपान, ऊर्जा और बुनियादी सुविधाओं की बढ़ती कीमतों ने पूरी दुनिया में लोगों के जीवन स्तर पर खासा असर जाला है। लोगों को हो रही इस परेशानी की कीमत सरकारें और उनके नेता चुका रहे हैं। भारत में भी इस बार के आम चुनावों में महंगाई बड़ा मुद्दा रही और उसकी वजह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन 300 सीटों से नीचे ही सिमट गया। 2014 और 2019 में अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा पार करने वाली भारतीय जनता पार्टी इस बार 240 सीटों पर ही रह गई। यद्यपि महंगाई ने भारत की सियासी तस्वीर पर तो मामूली असर ही डाला, किन्तु यूरोप में उसने सियासत को झकझोर ही दिया। वहां के देशों में हुए संसदीय चुनावों में मुख्य धारा की पार्टियों को हार झेलनी पड़ी और ब्रिटेन में तो दशकों बाद कंज़र्वेटिव पार्टी की करारी हार हुई। यूरोप की ही तरह अफ्रीका में भी महंगाई बदलाव ला रही है। दक्षिण अफ्रीका लम्बे अरसे से महंगाई से जूझ रहा है और जीवन स्तर तथा बेरोज़गारी के प्रति नाखुशी चुनावी नतीजों में नज़र आई। वहां की अफ्रीकन नैशनल कांग्रेस को इस नाखुशी की वजह से बहुमत गंवाना पड़ा। अफ्रीकी देश घाना में इसी साल दिसम्बर में चुनाव होने हैं और माना जा रहा है कि लगातार बढ़ती गरीबी ही तय करेगी कि राष्ट्रपति नाना अकुफोऐडो की जगह कौन लेगा। 
अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव से पहले होने वाले सर्वेक्षण जो बाइडन के लिए मुश्किल का संकेत दे रहे हैं। वहां ज़्यादातर मतदाता बाइडन से नाखुश हैं क्योंकि उन्हें लग रहा है कि राष्ट्रपति जनता को बेहतर रोज़ी-रोटी कमाने के मौके देने की दिशा में कुछ नहीं कर रहे हैं। अमरीका की जनता का बड़ा हिस्सा मानता है कि आर्थिक आंकड़े बेहतर होने के बाद भी उनका  जीवन स्तर लगातार खराब होता जा रहा है।
तथापि, मेक्सिको में महंगाई सत्ता नहीं बदल पाई। वहां सत्तारूढ़ मोरेना पार्टी एक बार फिर सरकार में आ गई मगर इसकी वजह गरीब मतदाताओं को दिल खोल कर बांटी गई सब्सिडी रही। 
दुनिया भर में आर्थिक नीतियां बनाने वाले मान रहे हैं कि महंगाई धीरे-धीरे सामान्य होती दिख रही है मगर उनका कहना है कि अब भी इस पर काबू नहीं किया गया है और कई अर्थ-व्यवस्थाओं के बिखरने का डर अभी भी बना हुआ है। केन्द्रीय बैंकों के समूह बैंक ऑफ इंटरनैशनल सेटलमैंट्स के प्रमुख आगस्टिन कार्सटिन्स ने जून में चेतावनी दी थी, ‘कई तरह के दबाव पड़े तो वैश्विक अर्थव्यवस्था बेपटरी हो सकती है।’
तो खुलेगी सरकारों की मुट्ठी!
महंगाई से जूझती जनता को राहत देने और सत्ता तक पहुंचने के लिए सभी राजनेता करों में भारी कटौती का वादा कर रहे हैं। वे जनता के लिए खज़ाने का ताला खोलने को भी तैयार हैं। यह बात अलग है कि इससे दुनिया भर पर चढ़ा कज़र् और बढ़ जाएगा, जो कोरोना महामारी के बाद रिकार्ड स्तर पर पहुंच चुका है। 
जून में बैंक ऑफ इंटरनैशनल सेटलमैंट्स की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया था कि चुनावी वर्ष में खज़ाने खोले जाने का जोखिम बहुत अधिक है, जिसके कारण महंगाई को काबू में लाने की कोशिशों पर पानी फिर सकता है। ब्रिटेन और फ्रांस में बजट पर नज़र रखने वाले कह रहे हैं कि सरकारी धन खर्च करने के ज़्यादातर वादे तो यकीन करने के काबिल ही नहीं हैं। 
अमरीका में ट्रम्प ने भी करों में वैसी ही कटौती करने का वादा किया है, जैसी उन्होंने 2017 में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान की थी। उनकी आर्थिक टीम ने तो पिछली बार से भी ज़्यादा कर कटौती पर चर्चा की है। उधर बाइडन कम्पनियों और धनी लोगों पर कर बढ़ाने की बात कर रहे हैं और वादा कर रहे हैं कि वार्षिक 4 लाख डॉलर से कम कमाने वाले परिवारों पर कर नहीं बढ़ाया जाएगा। दिलचस्प है कि अमरीका पर इस समय 34 लाख करोड़ डॉलर से अधिक का कज़र् है। अगर सभी देशों पर ऐसे ही कज़र् बढ़ता रहा तो वैश्विक अर्थ-व्यवस्था भंवर में फंस सकती है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने सराकरों से कज़र् कम लेने की अपील भी की है मगर चुनावों में महंगाई के दंश से बचने में लगी कोई भी पार्टी शायद ही उसकी बात सुनेगी। 
दक्षिणपंथियों को मिला बल
पश्चिमी देशों में महंगाई ने दक्षिणपंथी पार्टियों को लोगों का दुलारा बना दिया है। ये पार्टियां दूसरे देशों से लोगों को बेरोकटोक आने देने का विरोध करती हैं और राष्ट्रवादी नीतियों पर चलती हैं। मार्च में पुर्तगाल में चेगा पार्टी की सीटें चुनाव के बाद चार गुणा हो गईं और वह देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। तीन माह के बाद धुर दक्षिणपंथी पार्टियों ने यूरोप भर में संसदीय चुनावों में खासी बढ़त बना ली। फ्रांस में मरीन ल पेन की नैशनल रैली रविवार को बहुमत हासिल नहीं कर पाई मगर यह दक्षिणपंथी पार्टी इस समय फ्रांस की त्रिशंकु संसद में सबसे बड़ी पार्टी है। ब्रिटेन में भी कंज़र्वेटिव पार्टी की हार में दक्षिणपंथी रिफार्म पार्टी का बड़ा हाथ रहा। विदेशियों के देश में बसने का विरोध कर रही इस पार्टी ने 40 लाख से अधिक वोट हासिल किए। बेशक इसे मुट्ठी भर सीटें ही मिलीं, परन्तु कंज़र्वेटिव पार्टी के बहुत-से वोट काटने में यह सफल रही।

(धन्यवाद सहित, ‘बिज़नेस स्टैंडर्ड’ हिन्दी समाचार में से)