राष्ट्रीय अस्मिता के साथ सौदा होगी चीनी एफडीआई 

लगता है कि वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध,  साल 2020 की पूर्वी लद्दाख झड़प, चीन-पाकिस्तान के बीच निरन्तर प्रगाढ़ होते सम्बन्ध, भारत के पड़ोसी देशों को भारत के खिलाफ भड़काते रहने की चीनी फितरत, आतंकवाद-नक्सलवाद-विघटनकारी ताकतों को चीनी शह, तिब्बत से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक चल रहे चीनी दांवपेचों से न तो भारतीय संसद ने सबक लिया है और न ही हमारे नौकरशाहों ने अन्यथा संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण में वे कतई नहीं कहते कि चीन से लगातार बढ़ते आयात और वहां से आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के बीच बेहतर सामंजस्य बनाने की ज़रूरत है।।
 दरअसल, इनकी सोच सिर्फ इस बात तक सीमित है कि इससे न सिर्फ चीन से बढ़ते आयात को कम किया जा सकता है बल्कि अमरीका और दूसरे देशों में निर्यात बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। हद तो यह कि आर्थिक सर्वेक्षण में साफ तौर पर माना गया है कि चीन की आर्थिक शक्ति और वैश्विक आर्थिक मंच पर उसकी अहमियत को देखते हुए उसको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इस क्रम में सर्वेक्षण ने ब्राज़ील व तुर्की का उदाहरण भी दिया है कि कैसे इन देशों ने चीन निर्मित इलेक्ट्रिक वाहनों का आयात बंद कर दिया है, लेकिन चीन की कम्पनियों को अपने यहां निवेश करने के लिए प्रोत्साहन देने की नीति बनाई है।
इसका मतलब साफ है कि आर्थिक सर्वेक्षण करने वालों ने भारत को ‘आ बैल मुझे मार’ वाली सलाह दी है। ये लोग अपने आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए देश की संप्रभुता को विदेशी कम्पनियों के हाथों गिरवी रखना चाहते हैं, यह जानते हुए भी कि ईस्ट इंडिया कम्पनी भी कभी व्यापारी बन कर आई थी और आहिस्ता-आहिस्ता पूरे देश पर काबिज़ हो गई। स्वाभाविक सवाल है कि क्या मोदी सरकार कुछ सबक लेने को तैयार नहीं हैं।? राष्ट्रीय हितों को दांव पर लगाती प्रतीत होती हैं।  यह ठीक है कि वर्ष 2020 में पूर्वी लद्दाख में चीनी सैनिकों की घुसपैठ के बाद भारत सरकार ने चीन की कम्पनियों को लेकर कड़ा रवैया धारण कर लिया है। इसी क्रम में चीन की कई कम्पनियों को भारत में अपना कोराबार तक बंद करना पड़ा है या सीमित करना पड़ा है। हालांकि इस दौरान चीन से होने वाले आयात पर कोई खास असर नहीं पड़ा। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2023-24 में भारत व चीन के बीच द्विपक्षीय कारोबार 118 अरब डालर के करीब रहा जबकि इस अवधि में भारत से चीन को होने वाला निर्यात सिर्फ 17 अरब डालर का है। इस तरह से भारत का व्यापार घाटा 84 अरब डालर का हो चुका है।
भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण में जिस तरह से यह बताने की कोशिश हुई है कि चीन से आयात बढ़ाने से बेहतर है कि वहां की कम्पनियों को भारत में निवेश के लिए तैयार किया जाए, उससे तो यही प्रतीत होता है कि कांग्रेस की तरह अब भाजपा भी चीन के समक्ष झुकने को तैयार प्रतीत हो रही है और आर्थिक सर्वेक्षण के बहाने वह चीनी एजेंडे को भारत पर थोपना चाहती है। इसे पीछे रूस का परोक्ष दबाव है या फिर अरब देशों का, पता नहीं। भले ही सर्वेक्षण में यह तर्क दिया गया है कि अमरीका और यूरोपीय कम्पनियां चीन प्लस वन (चीन के साथ किसी अन्य देश पर भी आयात के लिए निर्भरता) की नीति पर चलने लगी हैं। ऐसे में अगर भारत में चीन की कम्पनियां निवेश करती हैं तो इस बदले माहौल का भी फायदा उठाया जा सकता है।
इस सर्वेक्षण में यहां तक दलील दी जा चुकी है कि हमारे पास जो विकल्प है, उसमें अमरीका को निर्यात बढ़ाने के लिए चीन से एफडीआई को बढ़ाना ज्यादा ठीक कदम है और ऐसा पूर्व में पूर्वी एशियाई देशों ने भी किया है, लेकिन क्या ऐसी अदूरदर्शी सलाह देने वाले आर्थिक विशेषज्ञों को यह नहीं पता कि ब्राज़ील, तुर्की या अन्य पश्चिमी देशों के विपरीत भारत की स्थिति बिल्कुल अलग है। भले ही अतीत की तरह वर्तमान में भी भारत और चीन के बीच प्रेम की बहुत गुंजाइश है, लेकिन चीन की नीतियों के दृष्टिगत भारत की नीति उसके मौजूदा भूभाग के परिप्रेक्ष्य में विस्तार वाली होनी चाहिए ताकि वह चीन के मुकाबले आर्थिक व सैन्य मज़बूती तो हासिल करे ही, रणनीतिक रूप से भी उस पर बढ़त बनाए रखे। मोदी सरकार ने गत 10 वर्षों में आत्मनिर्भर होने के लिए एक से बढ़कर एक प्रयास किए हैं, जो फिलवक्त नाकाफी हैं। (अदिति)

#राष्ट्रीय अस्मिता के साथ सौदा होगी चीनी एफडीआई