शौर्य व बलिदान का एक दुर्लभ अध्याय उदयपुर

गत वर्ष साहित्य मंडल के कार्यक्रम में श्रीनाथद्वारा जाने का अवसर मिला। भगवान श्रीनाथजी के पाटोत्सव के अवसर पर आयोजित इस त्रिदिवसीय समारोह में हमारे आग्रह पर हिम्मतनगर गुजरात से पूज्य स्वामी डॉ. गौरांगशरण देवाचार्य तथा महंत सुनीलदास भी श्रीनाथद्वारा पधारे। इस दौरान हमने श्रीनाथजी के दर्शन लाभ के साथ-साथ ब्रज-भाषा से संबंधित अनेक कार्यक्रमों का आनंद लिया।
श्रीनाथद्वारा में विराजित श्रीनाथ जी के विषय में जो जानकारी प्राप्त हुई उसके अनुसार गोवर्धन स्वरुप यह छवि मथुरा में विराजित थी जिसे मुगलकाल में सुरक्षा की दृष्टि से राजस्थान लाया गया था। सर्वप्रथम श्रीनाथजी  यहां से 19 किलोमीटर दूर घसियार नामक स्थान पर पधारे जिसे फाल्गुन कृष्ण सप्तमी संवत 1728 को  यहां लाकर प्रतिष्ठित किया गया। तभी से प्रभु श्रीनाथजी का पाटोत्सव फाल्गुन कृष्ण सप्तमी को मनाया जाता है जिसमें देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं। इस स्थान का पुराना नाम सिंहाड़ था जो प्रभु श्रीनाथजी के आगमन के बाद श्रीनाथद्वारा हो गया। हमने हाइवे पर स्थित घसियार के प्राचीन मंदिर के भी दर्शन किये। प्रात: मंगला दर्शन के बाद हम हल्दीघाटी सहित उदयपुर के प्रमुख स्थलों का अवलोकन करने का निश्चय किया।
चारों ओर उबड़-खाबड़ पहाड़ और बीच में सुनसान घाटी को हल्दीघाटी क्यों कहा जाता है, इसका उत्तर वहां पहुंचते ही मिल गया। एक संकरे से दर्रें को पार करते ही देखा कि यहां की माटी का रंग पीला है। शायद इसी कारण इस घाटी को हल्दीघाटी का नाम दिया गया। यही वह स्थान है जहां 18 जून, 1576 को मुगल सम्राट अकबर और मेवाड़ के महाराणा प्रताप के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ था।
मुगलों की सेना का नेतृत्व मानसिंह कर रहा था। महाराणा प्रताप की सेना ने छापामार युद्ध पद्धति का अनुसरण करते हुए मुगलों के दांत खट्टे कर दिये। महाराणा प्रताप और मानसिंह में आमने-सामने मुकाबला भी हुआ। प्रताप के भाले के वार से स्वयं को बचाने के लिए मानसिंह हाथी के ओहदे के पीछे छिप गया। इसी दौरान प्रताप के स्वामीभक्त घोड़े चेतक के पैर में चोट लग गई लेकिन उसके बावजूद चेतक ने अपने स्वामी को एक बड़े नाले को पार करवाकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। जिस स्थान पर चेतक ने अंतिम सांस ली, आज वहां चेतक का स्मारक देखकर अहसास हुआ कि वतन पर मिटने वाले घोड़े को जो श्रद्धा प्राप्त है शायद वह मुगलों के चाटुकार रहे मानसिंह को भी प्राप्त नहीं हुई। 
इसी स्मारक के बिल्कुल पास महाराणा प्रताप म्यूजियम बनाया गया है। टिकट लेकर हमने प्रवेश किया। महान राष्ट्र भक्त के इस स्मारक पर बहुत कम चहल-पहल देखकर मन में बहुत ग्लानि हुई क्योंकि आज चरित्रहीन नेताओं-अभिनेताओं के लिए भारी भीड़ उमड़ती है। इस संग्रहालय में हल्दीघाटी और महाराणा प्रताप से संबंधित समस्त जानकारी जैसे अस्त्र-शस्त्र, वेशभूषा, साहित्य आदि को बहुत अच्छे ढंग से दिखाया गया है। यहां एक फिल्म दिखाने के बाद लाइट एंड साउंड  कार्यक्रम के माध्यम से उस काल की घटनाओं को इस तरह से प्रस्तुत किया गया कि इतिहास के वे गौरवशाली क्षण जीवांत हो उठे। इसी संग्रहालय में छोटा सा बाजार भी है। जहां राजस्थानी शैली की कलात्मक वस्तुए बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। एक स्थान पर महाराणा प्रताप की पोशाक में फोटो खिंचवाने की व्यवस्था भी है। 
हल्दीघाटी की ऐतिहासिक धरा को प्रणाम कर हम उदयपुर की ओर बढ़े। अरावली की पहाड़ियों के घुमावदार रास्तों से आगे बढ़ते हुए हम जब उदयपुर पहुंचे तो समय काफी हो चुका था और सुबह से कुछ भी ग्रहण न करने के कारण भूख भी लगी थी इसलिए सबसे पहले दालभाटी-चूरमा का आनंद लिया और उसके बाद उदयपुर की ऐतिहासिक झीलों की ओर बढ़ें।
उदयपुर को झीलों की नगरी कहा जाता है क्योंकि यहां कई झीलें हैं। सबसे खूबसूरत झील है पिछौला झील, जोकि सिटी पैलेस के बिल्कुल साथ है। इसी झील के बीचोंबीच लेक पैलेस है जोकि आजकल पांच सितारा होटल का रूप धारण कर चुका है। इसके अतिरिक्त जग निवास के नाम से मंदिर भी है। इस झील और इन महलों को देखने देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं क्योंकि यहां का नज़ारा सचमुच निराला है।
इसका अवलोकन करते हुए मन में सवाल उठता है कि इतनी गहरी झील के बीचोंबीच ये महल आखिर बनाये भी गये तो कैसे? यह तो सर्वविदित ही है कि इस नगर की स्थापना महाराजा उदय सिंह ने की। कहा जाता है कि एक बार उदय सिंह शिकार खेलते हुए इस झील के किनारे पहुँचे तो यहां धुनी लगाये एक ऋषि बैठे थे। उन दिनों उदय सिंह मुगलों तथा दूसरें अनेक राजाओं की आंखों की किरकिरी बने हुए थे। राजा ने ऋषि को प्रणाम किया जो उन्होंने राजा को झील के किनारे अपनी राजधानी बनाने को कहा और आशीर्वाद दिया कि यहां कोई भी तुम्हारा बाल तक बांका न कर पायेगा। बस तभी से राजा ने चित्तौड़गढ़ को छोड़कर यहीं बसने का निर्णय लिया।
1569 में बनना शुरु हुआ सिटी पैलेस राजस्थान का सबसे बड़ा महल है। भारतीय के साथ-साथ चीन और यूरोप की वास्तुकला के बेहतरीन नमूने को देखना सुखद अनुभव है। आजकल इसके एक भाग को संग्रहालय के रुप में परिवर्तित कर दिया गया है जहां शाही साजो सामान को सुंदर ढंग से प्रदर्शित किया गया है। इतिहासकारों ने इस महल को भारत के विंडसर पैलेस की संज्ञा दी है। इसके अतिरिक्त सहेलियों की बावड़ी, फतेहसागर झील, सज्जनगढ़ में मानसून पैलेस, शिल्पग्राम, मोती की मगरी, जगदीश मंदिर, कांच गैलेरी, सहेलियों की बाड़ी जैसे अनेक दर्शनीय स्थान भी हैं। मोती की मगरी फतेहसागर झील के पास पहाड़ी पर वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की भव्य प्रतिमा है। जिसके चारों ओर सुंदर बगीचे हैं। यहां का रॉक गार्डन भी देखने योग्य है।  
उदयपुर के आसपास के प्रमुख दर्शनीय पर्यटक स्थलों में नागदा, एकलिंगजी, कांकरोली, राजसमंद झील, उदयपुर की सात बहनों का मंदिर, सास-बहू का मंदिर भी प्रसिद्ध हैं। ‘सास-बहू का मंदिर’ जैसा कि नाम सुनकर ही कौतुहल होता है कि यह कैसा स्थान होगा।  यह जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि उदयपुर से 28 किमी दूर प्रसिद्ध एकलिंग जी के मंदिर से थोड़ा पहले कच्चे रास्ते पर खड़ा यह मंदिर वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। विक्रमी संवत 11वीं शताब्दी के आसपास बने सास बहू के मंदिर के विषय में कहा जाता है कि मेवाड़ घराने की राजमाता और उनकी बहू द्वारा निर्मित मंदिर का असली नाम सहस्रबाहू मंदिर था जो बिगड़ कर सास-बहू का मंदिर हो गया।
यहां विष्णु तथा शेषनाग मंदिर हैं। कला संस्कृति के उत्कृष्ठ नमूने के रुप में आज भी विद्यमान ये दोनों मंदिर एक ही परिसर में स्थित हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर सुर-सुंदरियों की प्रतिमाएं सूक्ष्म नक्काशी से उकेरी गई हैं। इनकी भव्यता की तुलना आबू के दिलवाड़ा के मंदिरों से की जा सकती हैं। सास बहू मंदिर के प्रवेशद्वार पर बने छज्जों पर पूरी महाभारत कथा अंकित है। बायें स्तम्भ पर शिव-पार्वती की प्रतिमाएं हैं तो तोरण भी देखते ही बनते हैं। 
सास-बहू के मंदिर के बीच में ब्रह्माजी का मंदिर है। इस मंदिर का गुम्बद छोटा होते हुए भी बारीक जाली जैसी नक्काशी से शोभायमान है। ये मंदिर अत्यंत प्राचीन तो हैं लेकिन अनेक मंदिरों से बेहतर स्थिति मे माने जा सकते हैं। इन्हें संरक्षित स्मारकों की श्रेणी में शामिल तो अवश्य किया गया है लेकिन शासन की ओर से संरक्षण की व्यापक व्यवस्था तो दूर, इसके इतिहास और महत्त्व की जानकारी देने वाला कोई पर्यटन अधिकारी भी न होना क्षोभ उत्पन्न करता है क्योंकि ऐसी लापरवाही से इतिहास के ये मूक गवाह जो आने वाली पीढ़ियों को उसके गौरवशाली अतीत से परिचित करवा सकते हैं, एक दिन लापता हो जायेंगे। उदयपुर का यह संक्षिप्त प्रवास अविस्मरणीय रहेगा। (उर्वशी)