छोटे कद के बड़े राजनेता थे लाल बहादुर शास्त्री

आज जयंती पर विशेष

यह महज संयोग नहीं है कि महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन एक ही दिन आता है। हकीकत यह है कि इस देश में अगर नैतिकता, साहस और स्वाभिमान की कसौटी पर गांधी के बाद कोई सबसे ज्यादा प्रभावशाली और उन्हीं के जितना ताकतवर राजनेता  है, तो वह लाल बहादुर शास्त्री हैं। हालांकि शास्त्री जी और गांधी जी में एक बुनियादी अन्तर था। जहां गांधी जी अपने राजनीतिक जीवन के उभार के दिनों में ही विश्वविख्यात हो गये थे और अंतिम दिनों तक आते आते तो वह दुनिया की गिनी चुनी जीवित महान हस्तियों में शुमार थे, वहीं लाल बहादुर शास्त्री मूल्यों, राजनीतिक समझ और राजनीतिक कर्मठता के मामले में गांधी जी के बाद सबसे बड़े व्यक्तित्व होने के बावजूद जीवन-पर्यन्त एक साधारण कर्म-योगी बने रहे। शास्त्री जी ने कभी कोशिश ही नहीं की कि उन्हें कोई जाने। लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बन गये तो पाकिस्तान ने यह सोचकर भारत से जबर्दस्ती पंगा लेने की कोशिश की, कि छोटे कद के लाल बहादुर शास्त्री पर वह हावी हो जायेगा। तब शास्त्री जी ने अपना एक ऐसा मजबूत और ताकतवर रूप दिखाया कि पाकिस्तान के होश उड़ गये। न सिर्फ पाकिस्तान को धूल चटाने के मामले में देश और दुनिया के लोगों ने एक अलग ही शास्त्री जी को देखा बल्कि उसके पहले ही अमरीका के साथ जिस तरह से लालबहादुर शास्त्री ने पीएल 480 गेहूं कार्यक्रम के मामले में अपना रूख स्पष्ट किया था, वह भी काबिले तारीफ था। ये दोनों ही ऐसे मामले थे, जब भारत सहित पूरी दुनिया ने शास्त्री जी के छोटे से कद में समाये बहुत बड़े, साहसी और प्रभावशाली राजनेता देखा। 
दरअसल 1954 में अमरीका ने अपने अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत भारत के खाद्यान्न संकट को देखते हुए एक रुपये प्रति किलो के हिसाब से पीएल 480 गेहूं देने का निर्णय लिया, लेकिन जल्द ही अमरीका ने इस गेहूं के एवज में कई नई-नई तरह की शर्तें थोपने की कोशिश की बल्कि खैरात में मिलने वाला यह गेहूं किसी भी खाद्यान्न से ज्यादा गया-गुजरा था। उन दिनों भारत का एक रुपया अमरीका के एक डॉलर के लगभग बराबर ही था। इस तरह देखा जाए तो उस समय का एक रुपया आज के करीब 70 से 75 रुपये के बराबर था यानी भारत एक किलो गेहूं के लिए 70 से 75 रुपये अदा कर रहा था।
अमरीका चाहता था कि भारत उसके समक्ष झुककर रहे और गेहूं देने के लिए उसका एहसानमंद रहे। शास्त्री जी ने उसकी इस मंशा को खारिज कर दिया और उन्होंने भारतवासियों से आह्वान किया कि वे अगर सप्ताह में एक समय का भोजन त्याग देंगे, तो हम किसी हद तक इस खाद्यान्न संकट से निपट सकेंगे। शास्त्री जी का यह कहना था कि लोग सप्ताह में सिर्फ एक बार नहीं बल्कि तीन-तीन दिन एक बार उपवास रखने लगे। साथ ही शास्त्री जी की प्रेरणा से किसानों ने अनाज की पैदावार के लिए जी जान लगा दी। नतीजा यह निकला कि दो सालों के भीतर ही हम करीब-करीब अपने खाने भर का अनाज उत्पादन करने में सक्षम हो गये और अगले पांच साल के भीतर भारत खाद्यान्न के मामले में आत्म-निर्भर हो गया। लेकिन यह कभी संभव नहीं होता अगर शास्त्री जी को अपनी नैतिक आवाज पर भरोसा नहीं होता और खुद उन्होंने आगे बढ़कर देशवासियों को इस अभूतपूर्व खाद्यान्न संकट के समय देशभक्ति दिखाने के लिए आह्वान नहीं किया होता।  प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके जीवन से न तो सादगी गई और न ही जीवन जीने का कठोर अनुशासन, जो उन्हें दुनिया की सबसे ताकतवर शख्सियत बनाता था। 5 सितम्बर 1965 को पाकिस्तान ने जब ‘आ बैल मुझे मार’ के अंदाज में भारत पर जंग की पहल करते हुए हमला बोल दिया, तो इंदिरा गांधी से भी ज्यादा तेजी और आत्मविश्वास से शास्त्री जी ने भारतीय सेनाओं को अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार करने का न केवल आदेश दिया बल्कि लाहौर पर हमला करने का परामर्श भी दिया और महज दो दिनों में भारतीय सेना ने लड़ाई का सारा नक्शा बदल करके रख दिया।
भारत के अमरीका के साथ दो-टूक रिश्तों और पाकिस्तान के साथ शानदार जंग के बाद शास्त्री जी देश के सितारा प्रधानमंत्री और राजनेता तो बन ही गये थे, विश्व में भी उनका वैसा ही कद उभरा जैसे दूसरे संदर्भों में पंडित नेहरू का था। वास्तव में लाल बहादुर शास्त्री छोटे कद के एक ऐसे राजनेता थे, जिनमें साहस और आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा था। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर