फसली विभिन्नता को क्रियात्मक रूप देने की ज़रूरत
आज पंजाब की कृषि दो गम्भीर समस्याओं से घिरी हुई है। फसली विभिन्नता जो अति आवश्यक है, उसमें विगत 25 वर्षों से किए जा रहे प्रयासों के बावजूद कोई सफलता नहीं मिल रही। रासायनिक खाद का इस्तेमाल दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है और यूरिया का उपयोग गेहूं, धान पर बेतहाशा हो रहा है।
पंजाब सरकार तथा पी.ए.यू. द्वारा लम्बे समय से धान-गेहूं के फसली चक्र में बदलाव लाकर इसके अधीन रकबा कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं, परन्तु गेहूं की काश्त के अधीन रकबा बढ़ कर 36 लाख हैक्टेयर को छू गया है और धान की काश्त 32 लाख हैक्टेयर पर होने लगी है। गेहूं की काश्त कम करने के लिए विकल्प ढूंढने की चाहे दरकार नहीं, क्योंकि इसकी पानी की ज़रूरत कम है तथा अनाज सुरक्षा के लिए भी इसकी आवश्यकता है। इस सदी के पिछले दशक में पंजाब सरकार ने धान की काश्त में से 12 लाख हैक्टेयर रकबा निकाल कर दूसरी फसलों जिनमें मक्की, बासमती, दालें, तेल बीज फसलों, गन्ना, फल-फूल तथा सब्ज़ियों की काश्त शामिल है, के अधीन रकबा बढ़ा कर फसली विभिन्नता लाने की योजना बनाई थी। महत्व मक्की, सब्ज़ियों, बागवानी तथा फलों की काश्त को दिया गया। गन्ने की काश्त के अधीन सिर्फ थोड़ा-सा ही रकबा बढ़ सकता है। मक्की की काश्त पर अधिक ज़ोर दिया गया। इसमें भी मामूली सफलता मिली। मक्की की पानी की ज़रूरत भी धान की ज़रूरत के लगभग समान है। फिर किसानों को मंडी में भी मक्की का उचित दाम नहीं मिला। सब्ज़ियों की काश्त के अधीन भी अधिक रकबा नहीं बढ़ रहा। किसानों को उपभोक्ता जो दाम देते हैं, उसका बहुत कम हिस्सा मिलता है। मध्यस्त ही मुनाफा खा जाते हैं। आलू की काश्त के अधीन सब्ज़ियों की काश्त के अधीन कुल रकबे में से लगभग आधा रकबा है। गत वर्ष किन्नू तथा आम के उत्पादकों को विशेषकर बहुत कम ठेका मिला, जिस कारण नया रकबा इनकी काश्त के अधीन लाने के लिए उनमें उत्सुकता दिखाई नहीं दी। कुछ वर्ष पहले सहकारी सभाओं या सरकारी एजेंसियों के माध्यम से किसानों को सब्ज़ियों का उत्पादन बढ़ाने संबंधी तथा मंडीकरण की योजना बनाई गई थी, जो लुधियाना, जालन्धर, अमृतसर जैसे शहरों के आसपास कलस्टर बना कर सब्ज़ियों की काश्त करने के लिए केन्द्र की ओर से दी गई आर्थिक सहायता से चलाई जानी थी। इस योजना में भी जो किसानों के संगठन बना कर केन्द्र स्थापित करने का प्लान था, उसमें भी किसानों तथा सरकार ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। परिणामस्वरूप यह योजना भी लगभग विफल हो गई। विगत समय पंजाब सरकार ने फूलों की काश्त बढ़ाने की योजना भी बनाई थी परन्तु क्रियात्मक रूप में इसमें कोई सफलता नहीं मिली।
हाल ही में किसानों को बासमती के जो लाभदायक दाम मिले, उस कारण बासमती की काश्त के अधीन रकबे में अवश्य वृद्धि हुई। जो बढ़ कर 6-7 लाख हैक्टेयर तक पहुंच गया। इस वर्ष मंडी में बासमती की किस्मों के दाम में जो गिरावट आई, उससे आगामी वर्ष किसानों में इस फसल की काश्त के लिए अधिक उत्साह बने रहने की सम्भावना दिखाई नहीं देती। फसली विभिन्नता की सफलता के लिए कोई सुनिश्चित किरण नज़र नहीं आती। प्रश्न पैदा होता है कि क्या सरकार तथा अन्य संबंधित संस्थान धान की काश्त के अधीन रकबा कम करके फसली विभिन्नता को क्रियात्मक रूप देने हेतु गम्भीर नहीं? रासायनिक खाद की खपत प्रत्येक वर्ष बढ़ रही है। खपत 242 किलोग्राम से पार हो गई है। गेहूं की काश्त में प्रति एकड़ पी.ए.यू. द्वारा 55 किलो डायअमोनियम फास्फेट (डी.ए.पी.) तथा 100 किलो यूरिया डालने की सिफारिश की गई है, परन्तु किसान 200 किलो प्रति एकड़ से अधिक यूरिया तथा 100 किलो प्रति एकड़ से अधिक डी.ए.पी. डाल रहे हैं। इसी प्रकार धान में पी.ए.यू. द्वारा प्रति एकड़ 90 किलो यूरिया तथा 27 किलो डी.ए.पी. डालने की सिफारिश की गई है, परन्तु किसान इससे कहीं अधिक डाल रहे हैं। यूरिया तो अधिकतर किसान 200 किलो प्रति एकड़ तक डालने लग पड़े हैं। अधिक नाइट्रोजन डालने से फसलों को बीमारियां लगती हैं, जिसके बाद कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ता है।
फसली घनत्व बढ़ने से रासायनिक खाद का और भी अधिक इस्तेमाल शुरू हुआ। बायो खाद, ब्लू ग्रीन एल्गी (नील-रहित फफूंद) तथा वर्मी कम्पोस्ट जैसी गैर-रासायनिक खाद उपलब्ध नहीं हैं। रासायनिक खाद का इस्तेमाल कम करने के लिए किसान गोबर से वर्मी कम्पोस्ट बना कर भी इस्तेमाल कर सकते हैं, परन्तु वर्तमान की कृषि में ऐसे इस्तेमाल की बहुत कम गुंजाइश है। ज़रूरत है रासायनिक खाद का इस्तेमाल कम करने की तथा इस संबंधी विशेषज्ञों की सिफारिशें मानने की।