दिल्ली में हवा किस ओर चल रही है ?

जब से लोकसभा चुनाव, हरियाणा चुनाव और महाराष्ट्र चुनाव में सर्वे-एजेंसियों की भविष्यवाणियां और आंकड़े फ्लॉप हुए हैं तभी से इनकी दूकानें तकरीबन बंद-सी पड़ी हैं। इसीलिए दिल्ली चुनाव के दौरान इनके रायशुमारी वाले सर्वेेक्षण दिखाई नहीं दे रहे हैं। जो भी हो, यशवंत देशमुख के नेतृत्व में काम करने वाली संस्था सी-वोटर के साल-भर चलते रहने वाले ट्रैकर के कुछ आंकड़े हफ्तावार क्रम से सामने आ रहे हैं। इनसे दिल्ली के इस ज़बरदस्त दंगल का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। सबसे पहले इसके आंकड़े पांच जनवरी को मिले थे। इनके अनुसार जब मतदाताओं से पूछा गया कि कौन आम आदमी पार्टी सरकार बनाये रखना चाहता है, और कौन बदलना चाहता है, तो 49 प्रतिशत ने कहा कि वे इसे बनाये रखना चाहते हैं, और 43 प्रतिशत ने कहा कि वे बदलने के लिए वोट करने जा रहे हैं। यानी सरकार को तीन प्रतिशत की बढ़त हासिल दिखी। दस दिन बाद यानी 15 तारीख को जब ये आंकड़े आये तो इसी प्रश्न के उत्तर में दिखाई पड़ा कि अब 51 प्रतिशत सरकार बनाये रखने के पक्ष में हो चुके हैं, और 45 प्रतिशत बदलने का दावा कर रहे हैं। यानी तीन प्रतिशत का सरकार समर्थक रुझान बढ़ कर छह प्रतिशत हो गया है। फिर सात दिन बाद 22 जनवरी को ये आंकड़े पता चले। इसमें सरकार समर्थक प्रतिशत 52 प्रतिशत दिखा, और विरोधी प्रतिशत 47 प्रतिशत था। खास बात यह थी कि सरकार समर्थक वोट पूरे के पूरे आम आदमी पार्टी को मिलने हैं, लेकिन सरकार विरोधी वोटों को दो जगह बंटना है। कुछ न कुछ वोट कांग्रेस को भी मिलेंगे। यानी, ‘आप’ की मुख्य विरोधी भाजपा को एंटीइनकम्बेंसी के पूरे वोट नहीं मिलने वाले। यह स्थिति ‘आप’ की स्थिति को और मज़बूत कर देती है। 
यह ट्रैकर एक और सवाल पूछता है। मुख्यमंत्री के रूप में लोगों की पहली पसंद क्या है? इस मामले में तीनों तारीखों में अरविंद केजरीवाल ज़बरदस्त बढ़त (45 प्रतिशत से ज्यादा) बनाते हुए दिखे। कांग्रेस के अजय माकन को केवल 2 प्रतिशत और भाजपा के मुख्यमंत्री चेहरे के 16 प्रतिशत लोगों ने चुना। ज़ाहिर है कि अरविंद की लोकप्रियता ‘आप’ की चुनावी मुहिम की चालक-शक्ति बनी हुई है। ‘आप’ की चालक-शक्ति का दूसरा पहलू है ़गरीब जनता का समर्थन और स्त्रियों का समर्थन। ये दोनों मतदातामंडल ‘आप’ को उसके औसत वोटों से कहीं बढ़-चढ़ कर समर्थन दे रहे हैं। इनकी दम पर ही यह पार्टी दस साल बाद भी अपनी एंटीइनकम्बेंसी का मुकाबला कर पा रही है। उसकी लोकप्रियता पहले जैसी तो नहीं है, पर बढ़त अभी उसी के पास है। 
आम आदमी पार्टी का भारतीय राजनीति के क्षितिज पर आगमन ताज़ा हवा के एक झोंके की तरह हुआ था। 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में उसे आधी-अधूरी सफलता मिली और अगले ही साल 2014 में लोकसभा चुनाव में उसे बहुत बुरी हार का सामना करना पड़ा। लेकिन, 2015 के दिल्ली चुनावों में उसने इतिहास बना कर दिखा दिया कि वह लम्बी दूरी की धावक है। मुझे याद है कि उन दिनों पत्रकारीय हलकों में अक्सर चर्चा होती थी कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अरविंद केजरीवाल की नेतृत्वकारी क्षमताओं और लीक से हट कर राजनीति करने के प्रशंसक हैं, बावजूद इसके कि उन्होंने और अमित शाह ने इस पार्टी को उभरने से रोकने की भरसक कोशिश की थी। इस पार्टी ने कांग्रेस को इसलिए चिंतित कर दिया था कि केजरीवाल की राजनीति उसी स्पेस पर अपना दावा ठोक रही थी जो दरअसल कभी कांग्रेस का था, और जिस पर भाजपा कब्ज़ा करने में नाकाम थी। यह स्पेस था आम तौर पर ़गरीब लोगों की एक ऐसी पार्टी का स्पेस जिसका किरदार न तो क्षेत्रीय हो, और न ही जो किसी एक जाति-बिरादरी के बुनियादी समर्थन पर आधारित हो। तीसरी बार सत्ता में आने के लिए जूझ रही आम आदमी पार्टी के साथ आज भी दिल्ली का यह ़गरीब समाज मज़बूती के साथ खड़ा हुआ है। अगर अरविंद केजरीवाल तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले पाये तो उसमें इसी ़गरीब वोटर की सर्वप्रमुख भूमिका होगी। केजरीवाल का वैल्फेयर मॉडल दिल्ली के इसी विपन्न व्यक्ति को ध्यान में रख कर बनाया गया है। 
दिल्ली सरकार को दस साल पूरे हुए हैं, पर लगता ऐसा है कि जैसे उसने तीस साल पूरे कर लिए हों। इस कार्यकाल में उसने न जाने कितने चुनाव लड़ लिए, न जाने कितने विवादों से गुज़री, और न जाने कितनी बहसों को जन्म दे दिया। एक तरह से महानगर आधारित यह छोटा सा दल और उससे जुड़ा राजनीतिक प्रयोग हमारे लोकतंत्र की खामियों और खूबियों का आईना बन चुका है। इस आईने में जो छवियां दिखाई पड़ रही हैं, उनसे कुछ अहम सवाल उपजते हैं। मेरे ़ख्याल से उनमें सबसे अहम यह है कि लोकतंत्र में जब कोई दल पहला चरण पार करके दूसरे चरण में पहुंचता है, (यानी चुनाव जीतने के बाद उसे सत्ता मिल जाती है) तो उस दूसरे दौर में उसे राजसत्ता का इस्तेमाल किस तरह करना चाहिए? ध्यान रहे कि यह सवाल केवल आम आदमी पार्टी के संदर्भ में ही पहली बार नहीं पूछा जा रहा है। जब नब्बे के दशक में बसपा को उत्तर प्रदेश में पहली बार सत्ता का स्वाद मिला था, उस समय भी मेरे जैसे प्रेक्षक ने पूछा था कि अब दलित ‘गुरु किल्ली’ (आम्बेडकर राजसत्ता को ‘मास्टर की’ कहते थे जो पंजाबी बोलने वाले कांशी राम की भाषा में ‘गुरु किल्ली’ थी) का क्या करेंगे? उनके प्रतिनिधियों का आचरण उन सरकारों से भिन्न किस प्रकार होगा जो द्विजों द्वारा नियंत्रित और संचालित पार्टियों की होती रही हैं? आज हमारे पास घटनाओं की पश्चात-दृष्टि है और हम जानते हैं कि बसपा राजसत्ता का दूसरों से भिन्न इस्तेमाल करने में नाकाम रही। क्या आम आदमी पार्टी की गति भी यही होने वाली है? आ़िखरकार केजरीवाल की पार्टी भी दूसरी पार्टियों से ‘कुछ हट कर’ राजनीति करने के लिए मैदान में उतरी थी। इसलिए यह सवाल पूछा जाना ज़रूरी है। 
इसका एक सकारात्मक जवाब यह है कि शहरी गवर्नेंस की एक नयी पार्टी के तौर पर आम आदमी पार्टी ने कुछ असाधारण सफलताएं भी हासिल की हैं। चालीस प्रकार की जनसेवाओं को दिल्ली के नागरिकों के दरवाज़े तक पहुंचाने वाली योजना पर अमल की शुरुआत एक ऐसी अनूठी उपलब्धि है जिसका भारत के लोकतांत्रिक शासन में कोई और मिसाल नहीं मिलती। किसी और राज्य में इसे कल्पित तक नहीं किया गया है। इसी तरह से शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चों पर इस सरकार द्वारा किया गया काम भी उसके आलोचकों तक से प्रशंसा प्राप्त कर चुका है। इस सफलता के दो पहलू उल्लेखनीय हैं। पहला, इन निर्णयों को लेने और इन कामों को करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए इस सरकार को उपराज्यपाल और केंद्र सरकार से काफी लोहा लेना पड़ा। दूसरी तरफ देश के अन्य राज्यों में गवर्नेंस का सबसे अधिक उपेक्षित अगर कोई क्षेत्र है तो वह यही है। भ्रष्टाचार और नाकारापन की बहुतायत और दूरंदेशी के अभाव में हर जगह स्वास्थ्य, शिक्षा और जनसेवाओं का कबाड़ा हो चुका है। दिल्ली सरकार इस दिशा में मिसाल कायम करके सारे देश के लिए नमूना बन चुकी है। केजरीवाल के एक बार फिर जीतने का अर्थ यह होगा कि उनके और उनकी पार्टी के राष्ट्रीय महत्त्व में काफी वृद्धि हो जाएगी। लेकिन अगर वे भाजपा का आक्रामकता और योजना के सामने परास्त हो गये तो फिर उनके राजनीतिक भविष्य पर एक बड़ा सवालिया निशान लग जाएगा। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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