मजमेबाज़ों की वापसी

मेहरबान कद्रदान,
आज आपके शहर में वह पुराना मजमेबाज़ लौट आया है, जो पहले शहर के इकलौते बाग में मजमा लगाकर आपको डिब्बी में से मणि निकाल कर दिखा देने का वायदा किया करता था। मजमों की शुरुआत तो उसने डिबिया में से उड़ने वाला सांप निकाल कर दिखा देने से की थी, लेकिन जल्दी ही जब ऐसे सांपों को देखने में जनता की रुचि नहीं रही और उसका मजमा बिखरने लगा, तो अब वह आपकी जेब में एक टूटी और पुरानी डिब्बी डाल कर मणि निकाल देने का वायदा लेकर आया है। मजमेबाज़ के सामने आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उसका मजमा फिर से जम सकेगा? इस बीच ज़माना बहुत बदल गया है। अब शहर के उजड़ते बागों और टूटती सड़कों से गुज़र जाओ, कहीं मजमे लगे नज़र नहीं आते। मजमे ज़मीन से उठ कर मंचों तक चले गये हैं। आपके बंटने वाली टूटी डिबिया अब न तो आपको सांप निकाल कर दे सकती है और न ही मूल्यवान मणियां। सांपों को डिबिया में से निकाल कर देने की क्या ज़रूरत है। अब तो वे आस्तीनों में पलते हैं, और अपने आश्रयदाता को डसने से बाज नहीं आते। डिबिया में से मणि निकाल कर दिखाने का वायदा करने की यहां क्या ज़रूरत?
ये वायदे अब मंचों से होते हैं। शालधारी जनता के मसीहा दिन-रात अपने गिर्द भीड़ जमा कर हर दिन नये-नये सपने और दावे करके यही सब तो करते रहते हैं। इन सपनों और वायदों में टूटी सड़कों की मुरम्मत, और अधूरे पुलों को पूरा कर देने के वायदे नहीं होते। बेकार हाथों को काम देने के वायदे नहीं होते। डिग्री प्राप्त पढ़े लिखे लोगों को यथोचित काम देने के वायदे नहीं होते। बल्कि ये वायदे होते हैं कि रियायती अनाज बांट कर तुम्हें भूख से मरने नहीं देंगे। ज्यों-ज्यों देश आर्थिक रूप से तरक्की करेगा, इस वायदे की ज़िन्दगी भी लम्बी होती जाएगी। बल्कि एक दिन ऐसा आएगा कि अपना देश पूरी तरह से विकसित हो जाएगा, और इसका प्रमाण होगा कि देश के हर सड़क छाप आदमी को रियायती अनाज बांट दिया जाएगा। उसे मुफ्त लंगर पर जीने की आदत हो जाएगी और दुनिया भर में किये गये सर्वेक्षण बताएंगे, कि इस देश में सबसे अधिक आराम पसन्द लोग बसते हैं। इस देश की आधी आबादी कोई काम नहीं करती। दिन-रात नई उदार अनुकम्पा की घोषणाओं का इंतजार करती हैं। देश धार्मिक होता जा रहा है, क्योंकि उसने जान लिया दया धर्म का मूल्य है। इसलिए मजमेबाज़ जो तरक्की करके मंच सजाने लगा है, तभी कामयाब है जब समय-समय पर नई अनुकम्पा घोषणाएं मुफ्त रेवड़ियां बांटने की तरह करता रहे। पुरानी कहावत में उसका विश्वास अभी भी है कि ‘अन्धा बांटे रेवड़ियां मुड़-मुड़ अपनों को दे।’ इसलिए धर्म-निरपेक्ष समतावादी समाज बनाने की घोषणा केवल किताबों का शृंगार बनी रहने दी गई हैं। अपने लोगों के उपकार के नाम पर अपनी जाति अपने सम्प्रदाय के उपकार का बोलबाला है। आखिर उपकार संस्कृति को अपने-अपने चक्रव्यूहों में कैद नहीं करोगे, तो आपको स्वामी और प्रतिबद्ध समर्थन कैसे मिलेगा?
प्रतिबद्ध का अर्थ यहां समाज के बदलाव के लिए क्रांति के प्रति प्रतिबद्धता नहीं, अपनों के कट्टर समर्थन की है। जितनी कट्टरता बढ़ेगी, उतना ही अपने विशिष्ट वोट पक्के होते जाएंगे। कुर्सियों पर बैठ लोग स्थायी हो जाएंगे। अपना दूसरी दुनिया के जाने के लिए बिस्तर बांधने का समय आये तो अपनी कुर्सी अपने नाते-रिश्तेदारों के हवाले कर जाएंगे। वैसे परिवारवाद के विरोधी हैं वे। लेकिन समय गुज़रने के साथ नई पौध भी तो अपने लिए प्रवेश चाहती है। महामना परिवारवाद का विरोध करते हैं, लेकिन इस विरोध में उनका अपना परिवार अपवाद होता है। आखिर योग्यता भी तो कोई गुण है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हाथ बदलती है। सुना नहीं क्या, ‘राजा का बेटा राजा’ और ‘गरीब का बेटा फटीचर।’ जब आज के गरीब को कल का फटीचर होने से कोई इन्कार नहीं तो आप ही क्यों उसकी चिन्ता में दुबले हुए जा रहे हैं?
बात अभी वोटों की चली थी। या यूं कह लीजिये, वोट बटोरने की चली थी। भई दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है हम। समय-समय पर यहां शांतिपूर्ण चुनाव करवा देने का रिकार्ड है हमारा। यह रिकार्ड बने भी क्यों न। हर चुनाव में प्रतियोगी दल मुफ्त रियायतों की रेवड़ियां बांटने की प्रतियोगिता करते हैं। कभी खाते में हर महीने बिना काम वेतन डालने की घोषणा करते हैं, एक दूसरे से अधिक अनुकम्पा वेतन और फिर बसों में मुफ्त सफर से लेकर अस्पतालों में मुफ्त उपचार तक की घोषणाएं। इन्हें जन-कल्याण का नाम दिया जाता है और लोगों को समझाया जाता है कि यह कल्याण है मुफ्तखोरी की आदत को बढ़ावा नहीं। जो जितना मुफ्तखोरी को बढ़ावा दे, उतना ही अधिक कल्याणकारी। लोग मंचों से इन नई कल्याण घोषणाओं का इंतज़ार करते हैं और काम की जगह आराम को पसन्द करने लगे हैं। रियायत संस्कृति का ही दूसरा नाम शार्ट कट संस्कृति हो गया है। इसे हिन्दी में संक्षिप्त मार्ग संस्कृति कहते हैं। इस संस्कृति में जीते लोग सुबह उठते हैं। हल कुदाल नहीं उठाते, केवल अपना बैंक खाता देखते हैं, कि वे मुफ्त धन-राशि आई कि नहीं कि जिसकी घोषणा कल मंच से हुई थी। जी हां कद्रदान, मेहरबान हमारा मजमा तो यूं मंचों से सजने लगा। जो अपने दर्शकों को जितना स्वप्न-जीवी बना सके, उतना ही सफल और स्थायी मजमेबाज़। देश का क्या है? वह तो यहां ‘सब चलता है’ के मूलमंत्र से चल ही रहा है। जी हां, यहां सब चलता है। काम-धाम में ही नहीं, पढ़ाई लिखाई में भी। लेखन और कला संस्कृति में भी। यहां अध्यवसाय और सृजन की तपस्या मरती है, और पुरस्कार संस्कृति पनपती है। मूल्यांकन का तरीका एक ही रह गया, अपने लिए कितना बड़ा नक्कारखाना सजा सकते हो तुम। नये पेशे उभर रहे हैं। पेशेवर प्रशस्ति गायकों की दुकानें खूब चल रही हैं। लोग मांग-मांग कर या तिकड़म से अपने लिए पुरस्कार जुटाते हैं। अपना नाम सफल आदमियों की रैकिंग में शामिल करवाते हैं, और उसके बाद इन काले धंधों की आलोचना में मुखर हो जाते हैं। शिक्षा संस्थानों के ऐसे बड़े परिसर बन रहे हैं, जो छात्रों की बीड़ से वंचित हैं। यह भीड़ आइलैट्स अकादमियों के बाहर लगी हैं, जहां भगौड़ों को वैध अवैध तरीकों से देश से पलायन करना सिखाया जाता है। अब जब विदेशों में आव्रजकों पर सख्ती शुरू हो गई, तो देश का माफिया तंत्र खुश है कि नशों के पाताल लोक में इन बहिष्कृत लोगों की आमद बढ़ जाएगी।
चिन्ता न करो, इस रूप बदलते समाज में अगर पुस्तक संस्कृति मर गई। लुगदी साहित्य के पाठकों की कमी नहीं रही। महान लेखक अब जासूसी उपन्यास लिख कर किताब मंडियों को ज़िन्दाबाद कर रहे हैं।  ‘ऐसे माहौल में मजमाबाज़ कहां जाएं?’ एक पुराना मजमाबाज़ हमें पूछता है। चिन्ता न करो, हम उसे कहते हैं। सड़कों पर धरना लगाओ, और लोगों का आना-जाना अवरुद्ध करो। फिर भी कोई न सुने, तो बिजली के टावरों पर चढ़ कर प्रदर्शन करो। अब तो वहां जवाबी प्रदर्शन भी शुरू हो गये। खबर मिली है, पिछले दिनों एक सास और बहू ने एक दूसरे के विरुद्ध इन टावरों पर चढ़ कर प्रदर्शन किया। लो यह एक और काम शुरू हो गया। और आप कहते हो, इन देश में काम की कमी है।

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