गाज़ा पट्टी की कहानी ‘अरशद’ थिएटर की ज़ुबानी
मेडिट्रेनियन सागर के तट पर पड़ती गाज़ा पट्टी के निवासियों का विवाद 75 वर्षों से खबरों में है। आज से तीन हज़ार वर्ष पहले जब दुनिया भर के आदिवासी लोग रेत के टिब्बों की भांति फलते-फूलते, बिगड़ते तथा टप्परीवासियों की भांति प्रतिदिन नये ठिकाने ढूंढते थे, यहां रहने वालों ने इस पट्टी की रेत में रहना शुरू कर दिया था। इस पट्टी के दक्षिण में मिस्र देश था और उत्तर में सीरिया। मिस्र वासियों ने इन लोगों को जिनमें फिलिस्तीनी भी शामिल थे, ‘सागर जाये’ कहना शुरू कर दिया। फिर जब इस रेत में इज़रायली भी आ घुसे तो गाज़ा पट्टी वालों ने इज़रायलियों के वहां पांव नहीं लगने दिये।
इनमें से गाज़ा पट्टी के निवासी नई वस्तुएं बनाने एवं इस्तेमाल करने के शौकीन थे और खाने-पीने के भी। वे शराब की निकालनी जानते थे और अपने उपयोग के लिए लोहा व तांबा ढाल कर बर्तन एवं हथियार तक बना लेते थे। वे इज़रायलियों को अपनी इस कला की भनक नहीं लगने देते थे। रम्बे-खुरचियों की मरम्मत या दातरियों के दंदें निकालने के भी वे इज़रायलियों से पैसे लेते थे। धीरे-धीरे उनके इस पट्टी में पांच बड़े ठिकाने अस्तित्व में आ गए, जिनके नाम अशोध, एक्रोन, एशकी लोन, गाथ तथा गाज़ा हैं। वे प्रत्येक शहर के प्रमुख को राजा कहते थे और पांच राजा मिल कर अपने सामाजिक एवं आर्थिक मामले भी हल करते थे और अपनी रक्षा के लिए सैना भी तैयार करते थे। अरब देश भी उनकी पीठ थपथपाते थे। तब तक यह सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, जब तक इज़रायलियों ने इन्हें दबाने तथा इनसे काम लेने या इनके अधिकार छीनने की योजनाबंदी नहीं की थी।
पांच बड़े शहरों की बात तो एक तरफ रही, इज़रायलियों की तबाही का शिकार हुए गांवों की संख्या 400 है, जिनके निवासियों को उनकी अपनी ज़मीन से बेदखल कर दिया गया। उनके स्कूल, कालेज, अस्पताल तथा आधारभूत ढांचा ध्वस्त होने के कारण वे शरनार्थी शिविरों में रहने के लिए मजबूर हो गए थे। ब्रिटिश शासकों के उभार के दिनों में क्या फिलिस्तीनी और क्या इज़रायली, सब ब्रिटेन के अधीन हो गए। जब 1948 में अंग्रेज़ों को वह धरती छोड़नी पड़ी तो वे जाते समय सभी अधिकार इज़रायलियों को दे गए। कुछ इस प्रकार का घटनाक्रम जैसा अखंड हिन्दुस्तान के टुकड़े करने से हुआ। वे फिर भी जी रहे हैं और ज़िन्दगी का आन्नद लेने की इच्छा रखते हैं।
विगत दो दशकों से अरशद नामक ‘थिएटर’ मंडली ने अपने मंचन के माध्यम से इनके दुख-दर्द को आम लोगों तक पहुंचाया है। पंजाब से ‘हुण’ नामक पुस्तक शृंखला ने अरशद थिएटर के मन-वचनों को पंजाबी पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है। अनुवाद कमल दुसांझ का है। निक-सुक का उद्देश्य भी इसे आगे ले जाना है। पेश है चुनिंदा मनो-वचन के चुनिंदा शब्द :
यह पहली बार था कि गाज़ा का गलियां साफ थीं। कहीं भी कागज़ का टुकड़ा या लकड़ी का तिनका नहीं था। खाना बनाने का सवाल ही नहीं था। मेरी अम्मी ने ओवन से ब्रैड लाने के लिए कहा। क्या देखता हूं कि ब्रैड लेने वालों की कतार गाज़ा से वैस्ट बैंक तक लम्बी थी। लोग आठ घंटे से इंतज़ार कर रहे थे। ब्रैड के स्थान पर इज़रायली जहाज़ों की बमबारी शुरू हो गई। अफरा-तफरी मच गई। कई भागने वालों के हाथों में आधी ब्रैड के टुकड़े थे, जो उन्होंने अपने सीने से लगाए हुए थे। लोग घायल हो रहे थे, मर रहे थे। मैं खाली हाथ खड़ा था। किसी के शब्द सुनाई दिए, ‘शुक्र है अल्लाह का तूं बच गया।’ मैं खाली हाथ घर पहुंचा तो अम्मी की डांट, वह आज तक नहीं जनतीं कि मैं खाली हाथ क्यों था।
-महमूद नाज़िम जन्म 1994
मैं पासपोर्ट मंत्रालय के निकट रीगल स्कूल में पढ़ती हूं। यह मंत्रालय सबसे पहले युद्ध की मार में आया। मैं तब पांच वर्ष की थी। सभी मंत्री भाग कर स्कूल में आ घुसे। मेरे अतिरिक्त सभी लड़कियां रोने लग पड़ी। सिर्फ मैं ही हंस रही थी। क्यों? इसकी मुझे अभी तक भी समझ नहीं आई। मैं तो सिर्फ इतना जानती हूं कि उसके बाद मैं और साहसी हो गई हूं और पूरे साहस से भविष्य की ओर बढ़ रही हूं।
-हीबा का ऊद जन्म 1995
गाज़ा में मेरा बड़े होना भी उपलब्धि था। वहां तो प्रत्येक बच्चे के दरवाज़े पर पहरा था। फिलिस्तीनी बच्चे बूढ़े जन्म लेते ही हैं। यहां बच्चा चाहे छह वर्ष की आयु का है, वह परिवार को सहारा देता है।
-यासमीन कातेब जन्म 1996
शाम को अंधेरा होते ही आकाश राकेटों से चमकने लगता है। सभी सिरों पर रात मंडराती है और रात की रौशनी दिन की भांति चमकती है। गाज़ा में वक्त की रफ्तार नापने के मापतोल अलग हैं। घंटे का मतलब 60 शहीद तथा 33,600 घायल हैं। 60 घर तबाह हो जाएं तो एक मिनट में, यदि 60 माताएं रुदन करें तो एक सकिंट में।
-महमूद बलावी जन्म 2014
मेरे भीतर का सब कुछ मर रहा है। शोर-शराबा, चीख-पुकार, एम्बुलैंसें तथा सायरन। आस-पास खंडहर तथा तबाही। कोई चीख-पुकार के नवीन कह रहा है। मैं उत्तर नहीं दे सकता। मेरे मुंह में धूल एवं मिट्टी भर गई है। मेरे निकट कोई नहीं रहा। मेरी सांस मुझे परेशान कर रही है। रींग-रींग कर अपने दरवाज़े पर तक पहुंचता हूं तो घर तो मलबा हो चुका है। सभी सदस्य घर खाली कर रहे हैं। जिस रिश्तेदार के घर पहुंचते हैं, वहां 30 से अधिक लोग हैं। धमकी आती है तो अपने ही घर लौटते हैं। केवल मरने की खातिर। बिखरी हुई चीज़ें ढूंढता हूं, तो बमों के खोल मिलते हैं। यह दहला देने वाला सपना एवं घटनाक्रम 51 दिन चलता है।
हमारे अनेक प्रेमी छोड़ गए। स्वर्ग में चले गए। मुझे दुख, दर्द तथा पीड़ा देखने के लिए छोड़ गए। मैं नहीं मरा। मेरी आत्मा मर गई है।
-नवीन ज़ैद जन्म 2014
अंतिका
(सुरजीत पातर/जन्म दिन 14 जनवरी)
मेरे प्यारे पिंड, मायें धरतीये
परतीये इयों, ज्यों सी पूरन परतिया
बाग जो सुक्का सी हरिया हो गया
बोल सुण के कहिंदी अन्नीं इच्छरां
तूं मेरा पूरन ऐं, लगदा इस तरां
मां के सीने लग के पूरन रो पिया
मां दा दिल ममता दा सोमा हो गया
दुध दीयां बूंदां सी सीनियों सिम्मीयां
तक्किया चड़दा चन्न अंखां अन्नीयां
धरत मां लई हां असीं पूरन समान
पिंड ने सानूं पालिया कीता जवान।