माई री, मैं कासे कहूं पीर
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
बिस्तर पर लेटा विनोद सोच रहा था, ‘क्या हुआ होगा सदानन्द के साथ?’ उसे तो बस इतना ही पता चल सका था कि वह किसी मुकद्दमे में फंस गया है। दरअसल बीए की परीक्षा के बाद सदानन्द को उसके पिताजी के कारण वन विभाग में नौकरी मिल गई थी। अब नौकरी लग गई तो रिश्तेदारों के दबाव से विवाह भी हो गया। यहां तक तो सारा मित्र मण्डल साथ ही था। वे दोनों भी सदानन्द के विवाह में आये थे। फिर वन विभाग की नौकरी के कारण सदानन्द की पोस्टिंग शिमला के सुदूर क्षेत्र किन्नौर में हो गई। विनोद इंजीनियरिंग का कोर्स करने रुड़की चला गया और राहुल आगे पढ़ने के लिए देश से बाहर। अब तक फोन की सुविधा उनके घरों में नहीं थी। बस डाक का सहारा था। फिर अचानक सदानन्द का पत्र व्यवहार बंद हो गया, परन्तु इन दोनों का सम्पर्क बराबर बना हुआ था।
राहुल दो साल बाद ही अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर भारत लौट आया और विनोद की नौकरी दिल्ली नगरपालिका में बतौर सब डिवीजन ऑफिसर लग गई। विदेश से लौटकर राहुल ने बताया कि लंदन में एक लड़की के चक्कर में उसे कॉलेज से सस्पेंड कर दिया गया। इधर उस लड़की ने भी उसके साथ भारत आने से साफ इन्कार कर दिया था। हालांकि राहुल के लिए यह बड़ा झटका था फिर भी कुछ ही समय बाद उसने खुद को संभाल लिया। अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान था। उसने पिता से कहकर घर के साथ खाली पड़ी जगह पर प्रेस लगा लिया परन्तु बहुत कोशिश करने पर भी वे दोनों सदानन्द को नहीं खोज पाये क्योंकि अभी हिमाचल में प्रगति की रफ्तार बहुत धीमी थी। आज की तरह सब जगह सड़कें और संचार साधन नहीं थे। फिर समय के साथ सब विस्मृत होता चला गया। पुरानी यादों में घिरे पता नहीं कब विनाद को नींद ने घेर लिया।
फरवरी की हल्की सर्दी और शिमला का समरहिल, जहां धूप नियामत थी। राहुल ने गोरखे को कुर्सियां बाहर रखने को कहा और दोनों मित्र धूप में निकल आए।
‘तुम तब तक अखबार देखो, मैं प्रेस में चक्कर लगाकर आता हूँ। कुछ काम देने हैं, समय पर न दिये तो व्यापार पर असर पड़ता है।’ कहकर राहुल प्रेस की ओर निकल गया और विनोद ने टेबल पर पड़े हिन्दी अंग्रेज़ी के अखबार टटोलने शुरू कर दिये।
‘बहादुर...’
राहुल की आवाज़ सुनकर उसने सिर उठाया, वह गोरखे को कॉफी लाने को कहकर पास पड़ी कुर्सी खींचकर बैठ गया।
‘हां, तो मिस्टर राहुल मेहरा! रात की कहानी आगे बढ़ेगी या कुछ और काम बाकी है?’ विनोद ने थोड़ा-सा व्यंग्य का सहारा लिया तो राहुल ठट्ठाकर हंस पड़ा।
‘यार! तू नहीं सुधरेगा।’
‘देख भाई! तू भी जानता है कि मैं तुम्हारे पास दुनिया भूलकर आता हूँ और जब कॉलेज के दोस्त बैठे हों और हम गुजरे जमाने में न पहुंचें तो अपने-अपने दड़बे में ही भले। यह कम्बख्त सदानंद हमारा सबसे प्यारा दोस्त रहा है। उसके अचानक गुम हो जाने से हम सभी कितने परेशान थे और अब बरसों बाद जब उसका पता चला है तो....’ उसने बात अधूरी छोड़ दी।
‘कह तो ठीक ही रहे हो, पर सब कुछ जानने के लिए हमें एक बार फिर मनाली जाना होगा क्योंकि उस दिन मैं मनाली टैक्सी लेकर गया था। मौसम खराब होने से टैक्सी वाला शोर मचाने लगा तो मुझे वापस आना पड़ा। मेरी गाड़ी सर्विस के लिए गई थी।’
‘पर यह बता कि तुझे वो मिला कहां? तुम तो खरगोश देख रहे थे न?’ विनोद ने पूछा।
‘हां! देख तो खरगोश ही रहा था पर उसकी आदतें उसे कहीं छुपने थोड़ा न देती हैं। उसके गीत दूर से ही उसकी पहचान करवा देते हैं।’ राहुल ने कॉफी खत्म करके गोरखे को मग उठा ले जाने को कहा और बोला, ‘उस दिन मैं मनाली ही रुक गया था, थोड़ा काम था। कुछ लोगों से मिलना भी था। दूसरे दिन सुबह ही मैं एस.डी. फार्म जा पहुंचा। फार्म का मैनेजर बहुत अच्छे स्वभाव का लगा। वह मुझे बड़े अच्छे से फार्म की एक-एक जानकारी दे रहा था। मैं वहां बड़ी दिलचस्पी से उन लाल आंखों वाले बड़े-छोटे खरगोशों को देख रहा था।
‘कब से है यह फार्म यहां?’
‘पक्का तो पता नहीं साहब, पर सुना है कि बीस साल हो रहे हैं। मैं तो पिछले छ: साल से हूँ।’
‘सब आप ही देखते हो?’ मैंने फिर पूछा।
‘जी हां। यह चार लोग और हैं। शर्मा जी साहब बीच-बीच में चक्कर तो लगाते हैं, पर ज्यादा टोकाटाकी नहीं करते। हां नज़र बहुत पैनी है, उनकी नज़र से कुछ नहीं छिपता।’
‘उनके परिवार के और लोग?’
‘नहीं साहब! कोई नहीं है।’
‘क्यों?’
‘पता नहीं साहब, सुना है कि पिछले मैनेजर को उन्होंने इसीलिए निकाल दिया था कि उसने उनके परिवार के बारे में पूछा था। शायद कुछ ज्यादा ही पूछा था क्योंकि वह उनका बहुत मुंह लगा था। मेरी नौकरी की शर्त में यह भी लिखा था कि मुझे बस अपने काम से काम रखना है। मेरे घर में मैं अकेला कमाने वाला हूँ इसलिए मैं अपनी हद में ही रहता हूँ।’ (क्रमश:)