आज भी लोकप्रिय है कठपुतली नृत्य

सबसे पहले कठपुतलियां किसने बनाई ओर ये किसके इशारों पर नाचीं, यह कोई नहीं जानता है। लेकिन कठपुतली कला सदियों से चली आ रही है, इस बारे में कोई दो राय नही। आज भले ही कठपुतली कला, समय के हाथों की कठपुतली बन गई है, लेकिन पुराने समय में मनोरंजन की एक समृद्ध परंपरा कठपुतलियों से जुड़ी रही है। विश्व के तकरीबन हर पुराने देश में इस प्राचीन लोक-कला का अस्तित्व रहा है और कठपुतली-संसार को विभिन्न नामों से पुकारा गया है। महाभारत में कठपुतली कला के लिए ‘रूपजीवन’ शब्द का प्रयोग किया गया है। संस्कृत ग्रंथों में कठपुतली को ‘पुतुल कला’ कहा गया है। अंग्रेजी में इसे ‘पपेट शो’ का नाम दिया गया है। 
कठपुतली कला का जन्म कहां हुआ इसको लेकर अब भी एक राय नहीं है। कुछ विद्वान इस कला को यूरोप की देन मानते है, तो कुछ का मत है कि कठपुतली खेल की उत्पत्ति भारत में हुई और यह खेल फिर यहां से अन्य देशों में गया। प्रमुख विद्वानों का मानना है कि पुतलियों का उदय भारत में ही हुआ और यहीं से यह कला व इसकी पौराणिक कथाएं दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में फैली। आज रूस, चेकोस्लोवाकिया, ब्राज़ील, चीन और जापान में कठपुतली कला न केवल जिंदा है, बल्कि इस कला में नए-नए प्रयोग भी हो रहे है। चेकोस्लोवाकिया का विख्यात ‘मैक्सिम गोर्की थियेटर’ तो कठपुतली कला का स्वर्ग कहा जाता है। वियतनाम का जल पुश्रल थियेटर पुश्रल कला का मक्का माना गया है। इसी तरह ब्राज़ील की कठपुतली कला भी लोकप्रिय हैं यूरोप में कठपुतली कला को रंगमंच से भी जोड़ा गया है और इस कला पर कई नाटक लिखे जा चुके है। 
भारत में कठपुतली कला का इतिहास बहुत पुराना है और पौराणिक ग्रंथों में इसका जिक्र है। राजा भोज का ‘सिहांसन बत्तीसी’ कठपुतलियों का विश्वविख्यात आख्यान है। विक्रमादित्य के दौर में सिंहासन बत्तीसी की 32 पुतलियां रात को अपने मोहक नृत्य से सम्राट को रिझाती थी। पंचतंत्र में पुतलियों का उल्लेख कई जगह आया और पुतलियां इंसानी करतब दिखाने के लिए मशहूर थी। कुछ विद्वान कठपुतली कला को वेदों के समय का मानते है। वीरकरीता नामक गं्रथ में उल्लेख है कि पार्वती के पास एक ऐसी मोहिनी पुतली थी, जिसे उन्होंने भगवान शंकर से छिपाकर रखा था। इसके अलावा भारतीय साहित्य में भी कठपुतली कला का उल्लेख मिलता है। सिंधु घाटी की सभ्यता से मिले अवशेषों में भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि भारत में इस कला का प्रचलन हजारों वर्षों से रहा है। 
भारत में इस प्राचीन लोक-कला का उद्गम स्थल राजस्थान है। राजस्थान को अनेक लोककलाओं की जननी माना जाता है। यह आम धारणा है कि कठपुतली कला राजस्थान से ही विदेशों तक गई। हर जगह की कठपुतली कला की अपनी अलग शैली और पहनावा है। सभी शैलियों में पुतलियों का निर्माण तथा संचालन प्रक्रियाएं अलग-अलग होती हैं। राजस्थान की कठपुतलियां काठ के ही एक टुकड़े से बनी होती है। लेकिन इनके हाथ कपड़े से बनाकर जोड दिए जाते हैं इन कठपुतलियों ने लंबे लटकते लहंगे पहन रखे होते है और इन्हें अपने सिद्धहसत हाथों से जब राजस्थानी कलाकार नचाते है, तो आंखे झपकना भूल जाती है। सिंहासन बत्तीसी, पृथ्वीराज-संयोगिता विवाह, अमरसिंह राठौर, राजा विक्रमादित्य, अकबर आदि के किस्से और ऐतिहासिक प्रेम कहानियां व पौराणिक कथाएं इन कठपुतली कलाकारों के पसंदीदा विषय हैं। कुछ विद्वान दसताना पुतलियों को आधुनिक कठपुतली का जनक मानते है। ये पुतलियां दस्तानों की तरह हाथों में पहनी जाती हैं और दोनों हाथों की पुतलियों के अलग-अलग नाम होते हैं। यह शैली आमतौर पर केरल, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल में प्रचलित है। कुल मिलाकर लोक जीवन में कठपुतली कला आज भी मनोरजंन का साधन है। (सुमन सागर)

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