जब मानव सभ्यता ने अपनी ही परछाईं से युद्ध किया

28 जुलाई प्रथम विश्व युद्ध पर  विशेष 

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत आशाओं, खोजों और औद्योगिक प्रगति का समय था। मानव जाति विज्ञान, संचार, व्यापार और उपनिवेश विस्तार के युग में प्रवेश कर रही थी लेकिन इसी प्रगति की पृष्ठभूमि में वह असहिष्णुता, सैन्य होड़, राष्ट्रवाद और औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा की चिंगारियां भी सुलग रही थीं जो एक दिन समूची मानवता को भस्म कर देने वाले महायुद्ध में बदल गईं। यह था प्रथम विश्व युद्ध, जिसे उस समय ‘महायुद्ध’ (ञ्जद्धद्ग द्दह्म्द्गड्डह्ल 2ड्डह्म्) कहा गया क्योंकि मानव इतिहास में ऐसा व्यापक और विनाशकारी संघर्ष पहले कभी नहीं हुआ था।
इस युद्ध का औपचारिक आरंभ 28 जुलाई, 1914 को हुआ लेकिन इसके बीज लम्बे समय से बोए जा रहे थे। यूरोप में वर्षों से सैन्य तैयारियां, गठबंधनों की राजनीति, उपनिवेशों की होड़ और राष्ट्रीय स्वार्थों का जाल बुना जा रहा था। जब 28 जून, 1914 को ऑस्ट्रो-हंगेरियन राजकुमार फ्रांज़ फर्डिनेंड की हत्या सर्बिया के एक राष्ट्रवादी द्वारा कर दी गई, तो यह एक ऐसी चिंगारी बनी जिसने पहले से भरे बारूद को सुलगा दिया। कुछ ही दिनों में यूरोप के लगभग सभी बड़े देश युद्ध में कूद पड़े। इस तरह एक छोटी सी घटना ने वैश्विक तबाही का रूप ले लिया।
युद्ध दो बड़े गुटों में लड़ा गया- एक ओर थे मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, बाद में अमरीका भी) और दूसरी ओर थीं मध्य शक्तियां (जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, उस्मानी साम्राज्य)। ये केवल नाम थे, किन्तु असल में यह टकराव था वर्चस्व और अस्तित्व का, भूख और भय का, अंध राष्ट्रवाद और आत्मरक्षा का। इस युद्ध में आधुनिक हथियारों, टैंकों, जहाज़ों, हवाई बमों और रासायनिक गैसों का पहली बार बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ। यह ‘खाइयों का युद्ध’ था, जहां सिपाही महीनों तक कीचड़ और मौत के बीच खड़े रहे।
इस युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही कि यह केवल लड़ाइयों तक सीमित नहीं रहा, यह मानवता के हर कोने को छू गया। खेतों से लेकर कब्रगाहों तक, स्कूलों से लेकर अस्पतालों तक सब पर इसका असर पड़ा। करोड़ों लोग मारे गए, लाखों घायल हुए और असंख्य मानसिक रोगी बन गए। साहित्य, कला और समाजशास्त्र ने इस युद्ध को केवल एक सैन्य संघर्ष ही नहीं बल्कि एक सभ्यतागत आत्मघात के रूप में दर्ज किया।
भारत उस समय ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था। लगभग 13 लाख भारतीय सैनिक और श्रमिक इस युद्ध में शामिल किए गए। फ्रांस, बेल्जियम, मिस्र, मेसोपोटामिया और अफ्रीका के मोर्चों पर भारतीय जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दी। लगभग 74,000 भारतीय सैनिक युद्ध में मारे गए। यह लड़ाई केवल बंदूकों की नहीं थी, यह भारत की आत्मा के लिए भी एक कसौटी थी। इसने भारतीयों में स्वराज की भावना को और गहरा किया। साथ ही यह सवाल भी जन्मा कि क्या हम किसी और के झगड़े में अपनी जान दे रहे हैं?
युद्ध का अंत 11 नवम्बर, 1918 को हुआ जब जर्मनी ने आत्मसमर्पण किया। इसके बाद 1919 में हुई वारसा संधि ने जर्मनी को अपमानजनक शर्तों के साथ जिम्मेदार ठहराया। इस संधि ने एक असंतुलन पैदा किया, जो अंतत: द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बना। युद्ध के बाद राष्ट्रसंघ (द्यद्गड्डद्दह्वद्ग शद्घ ठ्ठड्डह्लद्बशठ्ठह्य) की स्थापना हुई, जो भविष्य में युद्धों को रोकने का प्रयास था परंतु वह भी विफल रहा।
प्रथम विश्व युद्ध ने चार बड़े साम्राज्यों को समाप्त कर दिया— जर्मन, ऑस्ट्रो-हंगेरियन, उस्मानी और रूसी। इसने लोकतंत्र की अवधारणा को बल दिया, उपनिवेशवाद के खिलाफ आंदोलन तेज़ किए और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति की एक नई दिशा तय की। यह युद्ध विचारों, व्यवस्थाओं और वर्चस्व की भी टकराहट थी जहां मनुष्य ने पहली बार अपने ही बनाए आधुनिक हथियारों से स्वयं को लगभग नष्ट कर दिया।
इस युद्ध से यह भी एक शिक्षा मिली कि जब मानवता शक्ति की अंध दौड़ में संवेदनशीलता, संवाद और सह-अस्तित्व को भूल जाती है, तब इतिहास केवल वीरगाथाएं नहीं, विलाप और विनाश भी लिखता है।
आज जब दुनिया फिर से वर्चस्व की राजनीति, हथियारों की होड़ और भू-राजनीतिक तनावों की ओर बढ़ रही है, तब प्रथम विश्व युद्ध की याद हमें चेताती है, शांति कोई स्वाभाविक अवस्था नहीं, बल्कि सतत प्रयास से अर्जित की गई चेतना है।
मो. 90412-95900

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