उत्सव का ही नहीं, आत्म-मंथन का अवसर बने स्वतंत्रता दिवस

स्वतंत्रता दिवस भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए केवल एक ऐतिहासिक तारीख भर नहीं है बल्कि यह गौरव, आत्मसम्मान और बलिदान की अनंत स्मृतियों का दिवस है। 15 अगस्त, 1947 को हमें वह स्वतंत्रता प्राप्त हुई, जिसके लिए लाखों गुमनाम और प्रसिद्ध वीरों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। सात दशकों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश के कोने-कोने में तिरंगा फहराने, राष्ट्रगान गाने और देशभक्ति के गीतों में डूबने का उत्साह आज भी वैसा ही है, जैसा स्वतंत्रता के पहले वर्ष में रहा होगा किन्तु इस भावनात्मक लहर के बीच जब हम लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति का आकलन करते हैं तो कई प्रश्न मन में सिर उठाने लगते हैं। 
भारत ने आज़ादी के 78 वर्षों में तकनीकी, वैज्ञानिक, औद्योगिक और अंतरिक्ष के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। देश ने गरीबी उन्मूलन, शिक्षा विस्तार और स्वास्थ्य सेवाओं में भी महत्वपूर्ण कदम बढ़ाए हैं। चंद्रमा और मंगल तक तिरंगा पहुंचाना, परमाणु शक्ति संपन्न होना, डिजिटल क्रांति के माध्यम से विश्व में अपनी अलग पहचान बनाना, ये सब उपलब्धियां हमें गर्व से भर देती हैं लेकिन इन्हीं वर्षों में लोकतांत्रिक मूल्यों का क्षरण, राजनीतिक गिरावट, बढ़ता भ्रष्टाचार और अपराध, सामाजिक असमानता और हिंसा जैसी चुनौतियां भी समानांतर रूप से बड़ी हैं। यह विरोधाभास आज़ादी के वास्तविक स्वरूप पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। लोकतंत्र का सबसे पवित्र स्थल संसद और राज्य विधानसभाएं जहां राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर गंभीर विमर्श और नीति निर्धारण होना चाहिए, वहां आए दिन शोरगुल, हंगामे, नारेबाज़ी और कार्यवाही ठप करने जैसी घटनाएं सामान्य हो गई हैं। आंकड़ों के अनुसार संसद की कार्यवाही के हर एक मिनट में औसतन अढ़ाई लाख रुपये का खर्च आता है यानी एक घंटे में डेढ़ करोड़ रुपये और एक दिन में नौ करोड़ रुपये से अधिक। 
समाज में बढ़ते अपराधों की तस्वीर और भी चिंताजनक है। महिलाओं और बच्चियों के साथ दुष्कर्म, हत्या और उत्पीड़न की घटनाएं आए दिन सुर्खियों में रहती हैं। कोलकाता में महिला डॉक्टर के साथ हुई क्रूरतापूर्ण घटना ने पूरे देश को हिला दिया था। कड़े कानून होने के बावजूद अपराधियों के मन से भय समाप्त हो चुका है, मानो उन्हें विश्वास हो कि सत्ता, पद या धन के सहारे वे कानून की पकड़ से बच निकलेंगे। इस स्थिति को ‘सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का’ कहावत चरितार्थ करती है। महंगाई, बेरोज़गारी, आतंकवाद और आरक्षण आधारित राजनीति भी लोकतंत्र के स्वास्थ्य को चोट पहुंचा रही है। महंगाई लगातार बढ़ रही है, जिससे आम आदमी की जीवन-यात्रा और कठिन होती जा रही है। 
आज हम एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहां मन की स्वतंत्रता और कार्य की स्वतंत्रता का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। राष्ट्रहित के स्थान पर स्वहित सर्वोपरि हो गया है। स्वतंत्रता का मतलब अब कई लोगों के लिए ‘कुछ भी करने की छूट’ बन चुका है, भले ही वह कदम देशहित के विपरीत क्यों न हो। कुल मिलाकर आज आवश्यक है कि हम अपने लोकतंत्र को पुन: उस पवित्र स्वरूप में स्थापित करें, जिसमें संसद और विधानसभाएं नीति और विचार-विमर्श का मंच बनें, राजनीति जनसेवा का साधन बने, कानून का भय अपराधियों के मन में पुन: स्थापित हो और समाज में नैतिकता, ईमानदारी और उत्तरदायित्व की भावना पुन: जागृत हो। आने वाले वर्षों में हम इस दिशा में ठोस कदम उठाने में सफल हुए तभी हम स्वतंत्रता की 100वीं वर्षगांठ पर गर्व से कह पाएंगे कि हमने अपने लोकतंत्र को मज़बूत, पारदर्शी और जनहितकारी बनाया है। 

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