हिन्द-पाक विभाजन के समय सत्ता का तबादला शांतिपूर्ण ढंग से क्यों न हो सका ?

कारवां जिन का लुटा राह में आज़ादी की,
कौम का, मुल्क का उन दर्द के मारों को सलाम।

बानो ताहिरा सैयद का यह शे’अर भारत की आज़ादी की वर्षगांठ के अवसर पर स्वत:स्फूर्त्त याद आ गया, क्योंकि वास्तव में आज़ादी की राह में जिन पंजाबियों के काफिले लूटे गए और विशेषकर आज़ादी के समय हुए अन्याय से भरे देश के विभाजन में लूटे गए काफिलों का इस भारतीय कौम या देश के रहबरों ने एहसान तो क्या मानना था, सलाम तो क्या करना था, अपितु उनके साथ आज़ादी के बाद भी स्थान-स्थान पर अन्याय हुआ। सबसे बड़ा धक्का तो हमारी मातृ भाषा को धर्म के आधार पर विभाजित करके किया गया। पंजाब के पहले विभाजन के बाद इसी आधार पर इसे तीन और टुकड़ों में बांट दिया गया जबकि न्याय की मांग तो यह थी कि सिखों तथा पंजाबियों की आज़ादी की लड़ाई में दी गई कुर्बानियों तथा विभाजन में सहन की गई असहनीय पीड़ा को देखते हुए समूचे पंजाब में पंजाबी पहली भाषा के रूप में लागू की जानी चाहिए थी। हिन्दी तथा अंग्रेज़ी दूसरी तथा तीसरी भाषा बना ली जाती। खैर, आज विषय यह नहीं है। आज का विषय तो आज़ादी के समय सहन किए गये संताप का है। 
बात 20 फरवरी, 1947 की है, जब तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमैंट एटली ने हाऊस ऑफ कॉमन्स (संसद) में घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार जून, 1948 से (पहले) एक ज़िम्मेदार भारत सरकार को सत्ता तबदील करने का इरादा रखती है। इसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सरकार द्वारा सत्ता का तबादला शांतिपूर्ण सुनिश्चित बनाना था। 
उल्लेखनीय है कि मिस्टर ब्लैकबर्न ने इस घोषणा का स्वागत करते हुए पूछा था कि क्या सरकार वायसराय तथा भारत के अधिकारियों के उन कदमों को समर्थन देगी, जिन्हें वे यह सुनिश्चित करने के लिए उठा सकते हैं कि भारत के भाईचारे हिंसा तथा भय के बिना अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने के योग्य हों? प्रधानमंत्री का जवाब था, ‘मेरे माननीय दोस्त, आप भरोसा रखें कि भारत के विचारों का सही प्रतिबिम्ब प्राप्त करने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाएगा।’
परन्तु जो हुआ, इसके विपरीत हुआ और बहुत जल्दबाज़ी में हुआ। यह जल्दबाज़ी ही वास्तव में पंजाब तथा बंगाल के लोगों का संताप बनी, जिसमें एक अनुमान के अनुसार 10 लाख से अधिक लोग मारे गए। हालांकि 2 से 20 लाख लोगों के उजड़ने की बात तो सभी स्रोत ही मानते हैं। इनमें 50 से 80 लाख सिख तथा हिन्दू भी थे। इसमें सिखों का एक कौम के रूप में सबसे अधिक नुकसान हुआ, सांस्कृतिक भी, धार्मिक भी और आर्थिक भी। 
वास्तव में वायसराय लुइस फ्रांसिस एल्बर्ट विक्टर निकोलस जार्ज माउंटबैटन पर ही भारतीयों को आज़ादी सौंपने का ज़िम्मा था। ब्रिटिश वकील सर सिरल रैडक्लिफ को भारत-पाक विभाजन की रेखा खींचने  अर्थात विभाजन का ज़िम्मा सौंपा गया था। 
बेशक ‘यदि’ कभी किसी ने नहीं बयाही, ‘यदि’ हमेशा एक कल्पना होती है, परन्तु ऐतिहासिक घटनाओं तथा गलतियों के मूल्यांकन के लिए ‘यदि’ का अपना महत्व होता है। 
यह सामान्य घटनाक्रम है कि देश के विभाजन की समय सीमा यदि जून 1948 तय की गई थी तो आमतौर पर इतने बड़े कार्यक्रम मुश्किल से ही पूरे होते हैं, परन्तु यहां तो जल्दबाज़ी की हद ही कर दी गई कि दो माह में मामला निपटा दिया गया और नतीजा इतिहास के सबसे बड़े संहार तथा विस्थापन का निकला। यदि जल्दबाज़ी करने की बजाय 15 अगस्त, 1947 की बजाय 15 जून, 1948 तक यह मामला गहन विचार-विमर्श से निपटाया जाता तो यह तय है कि यह त्रासदी नहीं होती। हां, बेशक फिर भी हिन्दुओं, सिखों तथा मुसलमानों के बीच कहीं-कहीं दंगे होते, कुछ हज़ार लोग मरते, परन्तु ऐसा ज़ुल्म न होता। इस विभाजन के घाव चाहे मुसलमान हों, हिन्दू हों या सिख हों, पंजाबियों को अपने शरीर पर ही सहन करने पड़े हैं। इफ़्ितखार आऱिफ हिज़रत के शब्दों में : 
मिट्टी की मुहब्बत में हम आसुफ़्ता-सरों ने,
वो कज़र् उतारे हैं कि वाजिब भी नहीं थे। 
(आकूफ़्ता-सरों = नाराज़ या गुस्से से भरे हुए दिमाग वाले) 
ज़िम्मेदार मास्टर तारा सिंह नहीं, जिन्ना, नेहरू तथा अंग्रेज़
कई लोग अनजाने में ही मास्टर तारा सिंह को विभाजन के समय हुई हिंसा का ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं जबकि स्पष्ट रूप में यह अंग्रेज़ों की जल्दबाज़ी, मुहम्मद अली जिन्ना तथा जवाहरलाल नेहरू की मास्टर तारा सिंह के परामर्श को दृष्टिविगत करने का परिणाम है। वास्तव में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों द्वारा भारत के विभाजन तथा आज़ादी की प्रक्रिया को जल्दी पूरा करने की मांग की जा रही थी जबकि हालात की सितमज़रीफी यह है कि मास्टर तारा सिंह ने पहले तो देश के विभाजन का ही कड़ा विरोध किया था। इस बात की गवाही तो जे.एस. ग्रेवाल, डोमनीन लैपाइरे, लैरी कोलिन्ज़, इश्तियाक अहमद तथा कई अन्य बड़े लेखकों की किताबें भी देती हैं। 
मास्टर तारा सिंह ने साथियों सहित 16 अप्रैल, 1947 को पंजाब के राज्यपाल सर इवान जैनकिन्स से एक बैठक में स्पष्ट रूप में मांग की थी कि यदि पंजाब का विभाजन सुनिश्चित है तो सिखों की सुरक्षा तथा हितों को यकीनी बनाने के लिए (पहले) आबादी तथा सम्पत्ति का तबादला आवश्यक है, परन्तु अफसोस कि दो जून, 1947 को लार्ड माऊंटबैटन ने इस मांग को रद्द कर दिया जबकि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने इसे बहुत हल्के में लिया। यह बैठक वायसराय, कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा अकाली प्रतिनिधियों की संयुक्त बैठक थी। 
उल्लेखनीय है कि इससे भी पहले 2 अप्रैल, 1946 को दिल्ली में मास्टर तारा सिंह, ज्ञानी करतार सिंह, महाराजा यादविन्दर सिंह तथा हरदित्त सिंह मलिक ने मुहम्मद अली जिन्ना के साथ बैठक की थी जिसमें जिन्ना ने सिखों के पाकिस्तान में रहने तथा सम्मानजनक स्थान की पेशकश की थी, परन्तु पाकिस्तान शुद्ध मुस्लिम धार्मिक अकीदे वाला देश बनना था। इसलिए मास्टर तारा सिंह को पाकिस्तान में सिखों की सुरक्षा का भरोसा नहीं था। यदि सिख पाकिस्तान के साथ रहना मान लेते तो स्पष्ट है कि पूरा पंजाब पानीपत तक होता, क्योंकि विभाजन तो सिखों की संख्या के हिसाब से ही हुआ था, परन्तु सिखों को भारत का पूरा पंजाब, हरियाणा तथा हिमाचल कहलाने का सिला नहीं दिया गया।
अब विचार करने वाली बात है कि यदि अंग्रेज़ जल्दबाज़ी न करते तो आज़ादी 15 अगस्त, 1947 की बजाय 15 जून, 1948 को मिलती और अंग्रेज़ों के स्थापित शासन, पुलिस तथा साझी सेना के अधीन सिखों, मुसलमानों तथा हिन्दुओं सब को अपनी सम्पत्तियां सम्भालने तथा आबादी के तबादले के लिए बड़ी सीमा तक एक सुरक्षित माहौल भी मिलता और लम्बा समय भी। 
बैशक अंग्रेज़ों को पता था कि विभाजन तथा पलायन के समय रक्त-पात होगा। इसीलिए ही तो उन्होंने एक तथाकथित सिर्फ 50 हज़ार की संख्या वाली ‘पंजाब बाउंड्री फोर्स’ भी बनाई जो पूरी तरह विफल रही। अंग्रेज सेना पूरी तरह निर्लिप्त रही तथा पाकिस्तानी हिस्से में बंटी पाकिस्तानी मुस्लिम सेना ने साम्प्रदायिक राहों पर काम किया जिसका सिखों को विशेष रूप से तथा समूचे पंजाबियों को आम तौर पर बड़ा नुकासन सहन करना पड़ा। वास्तव में उस समय बाग के फूलों को कौन बचा सकता है, जब शाखाएं ही जिन पर वे फूल खिले हों, उन्हें धोखा दे रही हों। 
कौन बचा सकता है फिर तोड़ने वाले से ऐ ़गुल,
फूल से शाखा की कहीं, धोखे की नीयत हो अगर।
नया अकाली दल
नया अकाली दल  अस्तित्व में आ गया है। जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह अध्यक्ष बन गए हैं और पंथक कौसिलों का प्रमुख बीबी सतवंत कौर को बना लिया गया है। नये अकाली दल का समारोह भी प्रभावशाली रहा है। बेशक दो गुटों में टकराव के समाचार थे, परन्तु एकता का स्वरूप ही सामने आया है। हालांकि पर्दे के पीछे क्या-क्या हुआ, इन ‘सरगोशियों’ का अभी ज़िक्र किया जाना उचित नहीं, परन्तु नये अकाली दल को यह अवश्य कहना चाहेंगे कि वह बनते ही टकराव में पड़ने से गुरेज ही करे ता अच्छा होगा। नहीं तो वह पंजाब तथा कौम के मामलों की कोई लड़ाई नहीं लड़ सकेगा। सिर्फ कार्यालय पर कब्ज़ा, चुनाव चिन्ह की लड़ाई उसके भविष्य पर प्रश्न चिन्ह ही लगाएगी। किसी भी पार्टी की सफलता किसी चिन्ह, कार्यालय की मुहताज नहीं होती। ‘आप’ का उभार हमारे सामने है। कांग्रेस के चुनाव चिन्ह कई बार बदले, भाजपा के नाम भी बदले, नाम भी बदले। ध्यान दें कि पार्टी का नाम, कार्यालय तथा कब्ज़ा, चुनाव चिन्ह की छोटी लड़ाई आपको भी छोटा बना देगी और यह भाई-विरोधी जंग जैसी होगी। अच्छो हो आप अपनी बड़ी लकीर खींच कर बड़े होने का प्रयास करें।
 
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