क्या स्वरचित चक्रव्यूह में उलझ चुका है इस्लामी जगत ?
कतर की राजधानी दोहा में हमास नेतृत्व को निशाना बनाकर विगत 9 सितम्बर को किए गए इज़रायली हवाई हमले के बाद पूरी दुनिया आश्चर्यचकित है। सबसे अधिक आश्चर्य दुनिया को इस बात को लेकर है कि ़कतर मध्य एशिया में अमरीका का सबसे खास सहयोगी देश है। कतर के अमीर तमीम बिन हमाद अल थानी से अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की घनिष्टता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अभी गत मई में ही कतर के अमीर ने लगभग 400 मिलियन डालर अर्थात लगभग 3,300 करोड़ रुपये का एक ऐसा बोइंग 747.8 लग्ज़री हवाई जहाज़ राष्ट्रपति ट्रम्प को भेंट किया जो अमरीका के वर्तमान एयर फोर्स वन विमान के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा। ़कतर अमरीका का इतना खास है कि आज विश्व का सबसे बड़ा अमरीकी सैन्य अड्डा अल उदीद एयरबेस है जोकि ़कतर की राजधानी दोहा से मात्र 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां 11,000 से भी ज्यादा अमरीकी सैनिक हर समय तैनात रहते हैं। यहीं अमरीका का केंद्रीय कमांड भी है जिसके द्वारा वह इस पूरे क्षेत्र में सैन्य अभियान संचालित करता है। इसके अतिरिक्त अन्य कई सैन्य अड्डे इराक, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात व कुवैत में भी हैं। इस तरह 18 मुस्लिम बहुल देशों में छोटे बड़े व अलग-अलग सैन्य संचालन सुविधाओं से युक्त कई अमरीकी सैन्य अड्डे मौजूद हैं। इन देशों में अमरीकी सैन्य बेस का अर्थ है कि उन देशों को अमरीका ने सैन्य सुरक्षा प्रदान की हुई है। प्राय: ऐसे अधिकांश देश अपनी आंतरिक सुरक्षा का ढांचा तो ज़रूर रखते हैं परन्तु उनके पास पेशेवर सेना या सैन्य साजो सामान नहीं होते। इसीलिए 9 सितम्बर को कतर पर हुये हमले के बाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि विश्व का सबसे बड़ा अमरीकी सैन्य अड्डा अल उदीद एयर बेस दोहा में होने के बावजूद दोहा में ही इज़रायली सेना ने हवाई हमले का सहस कैसे किया? क्या इज़रायल ने अमरीका की कोई परवाह नहीं की? या अमरीका को इस हमले की पूर्व सूचना दे दी गयी थी? अगर अमरीका को इन हमलों का पता था तो उसने कतर को समय पूर्व सूचित क्यों नहीं किया? इन सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि यदि अमरीकी एयरबेस होने के बावजूद अमरीका कतर की इसी तरह की सुरक्षा करेगा तो ऐसे सैन्य अड्डों का लाभ क्या? इसी से निकलता इस वक्त का सबसे अहम सवाल यह है कि तो क्या ़कतर सहित अमरीकी सुरक्षा पर आश्रित सभी देशों को अपना ‘सुरक्षा गार्ड’ बदलने की ज़रूरत है? या फिर इस्लामी जगत की एकजुटता और संयुक्त सैन्य आत्मनिर्भरता ही अकेला रास्ता है जो मुस्लिम जगत को अमरीकी-इज़रायली शिकंजे से मुक्त करा सकता है?
दरअसल 9 सितम्बर को दोहा पर इज़रायली हमले के बाद गत 15 सितम्बर को दोहा में अरब-इस्लामी शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसी शिखर सम्मेलन में मिस्र ने यह प्रस्ताव पेश किया कि नाटो की संयुक्त सेना की ही तज़र् पर इस्लामी देशों की एक ऐसी संयुक्त सेना यानी अरब यूनिफाइड आर्मी का गठन किया जाये जिसमें सेना, वायुसेना और कमांडो इकाइयों का तालमेल, प्रशिक्षण और लॉजिस्टिक्स को एकीकृत किया जा सके। मिस्र के इस प्रस्ताव को ईरान, इराक, सऊदी अरब, मोरक्को और अल्जीरिया जैसे देशों से समर्थन हासिल हुआ है। इस प्रस्तावित संयुक्त सेना का उद्देश्य यह है कि अगर किसी मुस्लिम देश पर हमला हो, तो सभी सदस्य मुस्लिम देश मिलकर जवाब दें। यह बल नौसेना, वायुसेना और ज़मीनी इकाइयों पर आधारित होगा, जिसमें कमांडो, आतंकवाद-रोधी और शांति रक्षा इकाइयां शामिल होंगी। इस तरह का प्रस्ताव कोई पहली बार नहीं आया है। इससे पहले 2015 में भी मिस्र ही ऐसा प्रस्ताव ला चुका है परन्तु उस पर न कोई अमल हुआ, न ही पुनर्विचार।
परन्तु अब इज़रायल द्वारा गाज़ा में किया जा रहा जनसंहार, उस पर अमरीका सहित पूरी दुनिया की खामोशी और इसी खतरनाक खामोशी की आड़ में इज़रायल द्वारा मध्य एशिया में अपने पांव पसारते हुये अपने ग्रेटर इज़रायल नापाक मंसूबों पर तेज़ी से आगे बढ़ने की योजना ने इस्लामी जगत को यह सोचने के लिये बाध्य कर दिया है कि यदि उन्होंने अपने को यथाशीघ्र एकजुट नहीं किया तो कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में एक-एक कर सभी मुस्लिम राष्ट्रों को अमरीका-इज़रायली ऐसी ही साज़िश का शिकार होना पड़े। दुनिया को इस चाल को भी समझने की ज़रूरत है कि पूरे विश्व में लोकतांत्रिक व्यवस्था की वकालत करने वाले अमरीका को इस्लामी जगत के शाहों, बादशाहों व प्रिंस के शासन से कोई आपत्ति नहीं होती। इस पूरे कुचक्र का कारण यह है कि यह पूरा मध्य एशिया क्षेत्र तेल संपन्न इलाका है और अमरीका इन तेल संसाधनों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपना नियंत्रण रखना चाहता है।
परन्तु ईरान ने 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के बाद तथा पहलवी शासन का अमरीकी समर्थित राजतंत्र उखाड़ फेंकने के बाद न केवल अपने तेल भंडारों को अमरीकी गिद्ध दृष्टि से सुरक्षित किया बल्कि स्वयं को शिक्षा, विज्ञान, शोध व सैन्य यहां तक कि अंतरिक्ष के क्षेत्र में भी इतना मज़बूत किया कि पिछले दिनों दुनिया भर में अपनी आक्रामकता दिखने वाले इज़रायल को ईरान के सामने घुटने टेकने पड़े। यहां तक कि अपने ऊपर हुये अमरीकी हवाई हमले का बदला लेकर भी ईरान ने यह साबित कर दिया कि ईरान अन्य अमरीकी पिछलग्गू अरब देशों से बिल्कुल भिन्न सोच व नीति रखने वाला लोकतांत्रिक देश है। ईरान ने उन कठिन परिस्थितियों में स्वयं को इतना मज़बूत किया जबकि अमरीका ने दशकों से ईरान पर अनेक प्रतिबंध लगा रखे हैं। ईरान ने यह साबित कर दिया है कि अमरीकी चाटुकारिता या खुशामद-परस्ती नहीं बल्कि नेक-नीयती, मानवता, शिक्षा, संस्कार,वैज्ञानिक शोध तथा इनसे आने वाली एकजुटता व आत्मनिर्भरता ही किसी भी देश को व उसके स्वाभिमान को बचा सकती है अन्यथा ़कतर की ही तरह आने वाले दिनों में अन्य अमरीकी पिछलग्गुओं को भी ऐसे ही संकटों का सामना करना पड़ेगा। परस्पर विश्वास की कमी के साथ-साथ वैसे भी दशकों से अमरीका पर आश्रित बना बैठा अधिकांश इस्लामी जगत स्वरचित चक्रव्यूह में ही इतना उलझ चुका है कि उससे निकल पाना अब आसान नज़र नहीं आता।