किसी भी हद तक जा सकते हैं डोनाल्ड ट्रम्प

जिन लोगाें को लगता है कि ट्रम्प प्रशासन द्वारा एच-1 बी वीज़ा एप्लीकेशन पर बढ़ायी गई एक लाख डॉलर की राशि भारत के सामने अमरीकी प्रशासन द्वारा पेश की जा रही परेशानियों की हद है, वे लोग गलतफहमी में न रहें, ट्रम्प अभी और नीचे जा सकते हैं। वह हिंदुस्तान को नीचा दिखाने के लिए अपनी खिसियाहट आने वाले दिनों में जिन कुछ और मुद्दों पर निकाल सकते हैं, वे द्विपक्षीय मंचों की बजाय यूएन, डब्ल्यूटीओ और क्लाइमेंट समिट जैसे मंच हो सकते हैं। ट्रम्प प्रशासन चुन-चुनकर बदले लेने पर उतारू है और वह किसी भी हद तक जाने के लिए हर तरह से तैयार बैठा है। कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले दिनों में अमरीका, भारत को दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक घोषित करके हम पर दबाव डालने की कोशिश करे और डब्ल्यूटीओ के मंच पर हमारी कृषि नीतियों पर आपत्ति जताकर भारत पर वैश्विक दबाव डलवाने की कोशिश करे, जिसका भारतीय किसानों और निर्यातकों पर सीधा असर हो सकता है तथा ग्रीन एनर्जी में भारत की रफ्तार थम सकती है। 
दरअसल इसकी वजह यह है कि अमरीका दुनियावी मामलों में हमारे स्पष्ट और तटस्थ रुख से परेशान हो गया है। वह हर हाल में भारत से चुनाव करवाना चाहता है कि हम या तो पूरी तरह से अमरीका के कैंप को चुन लें या फिर अमरीका का प्रकोप झेलें। रूस और चीन से भारत ने हाल के दिनों में अपने जिन रिश्तों का इज़हार किया है, उससे आने वाले दिनों में अमरीका हम पर तरह-तरह के दबाव डालने की कोशिश करेगा ताकि हमारी नॉन-एलाइंड और एस्ट्रेटेजिक एटोनॉमिक नीतियां कमजोर पड़ जाएं। अमरीका अपनी हरकतों से यह जतलाना चाहता है कि अगर हम संतुलन बनाये रखने की कोशिश करते हैं, तो इसका मतलब यह होगा कि अमरीका के लिए ‘इंडिया नॉट ट्रस्टवर्दी’ माना जायेगा। 
सवाल है, जिस तरह से अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प व्यक्तिगत रूप से और अमरीकी प्रशासन राष्ट्रीय स्तर पर भारत के खिलाफ एक से बढ़कर एक दबावों और परेशनियाें की बाढ़ लगा रहे हैं, आखिर भारत उनसे कैसे निपटे। इसमें कोई दो राय नहीं कि हम जिस रास्ते पर चल पड़े हैं और जिस पर काफी दूर आ गये हैं, अब उस पर पीछे लौटने का कोई फायदा नहीं है। अगर हम थक हारकर अमरीका के पहलू में भी जा गिरते हैं, तो भी अमरीका हम पर प्यार नहीं लुटाने वाला बल्कि हमारी इस ज़रूरत का और भी ज्यादा बदला लेगा कि हम अपने हितों के लिए, उसके सामने तनकर कैसे खड़े हो सकते हैं? दरअसल अमरीका और ट्रम्प की खिसियाहट यह है कि उन्होंने भारत का बहुत हल्का और अपने लिए मुफीद आंकलन किया था। उन्हें नहीं यकीन था कि भारत अपने हितों के लिए उसके सामने पलट कर खड़ा भी हो सकता है। हालांकि ट्रम्प को इस बात का एहसास नहीं था कि हिंदुस्तान में प्रत्येक छह महीने के भीतर कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और सरकारें व राजनीतिक पार्टियां हमेशा चुनावी मोड में होती हैं। इस कारण चाहकर भी कोई सरकार या राजनीतिक पार्टी किसी बड़े वोट बैंक को नाखुश करने का जोखिम मोल नहीं ले सकती।
अमरीका जिस तरह से हमारी कृषि और डेयरी क्षेत्र को अपने किसानों के लिए खुलवाना चाहता है और रूस-यूक्रेन युद्ध रूकवाने का श्रेय ट्रम्प भारत से रूस के तेल की खरीद से इन्कार के जिम्मे डालना चाहते हैं, तो ये दोनों ही बातें भारत की आंतरिक राजनीति का समीकरण बिगाड़ देंगी। अगर मौजूदा सरकार अमरीका को खुश करने के लिए रूस से तेल खरीदने के इन्कार का फैसला कर ले तो यह आत्मघाती साबित होगा। भारत एक ओर अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए तनी रस्सी पर हर समय नट-संतुलन साधने को मज़बूर रहता है, वहीं साथ ही रूस हमारा आज भी सबसे बड़ा हथियार सप्लायर और विश्वसनीय स्ट्रेटिजिक पार्टनर है। ऐसे में भारत रूस से हाथ धोने या उसे छिटक देने का जोखिम सिर्फ अमरीका को खुश करने के लिए नहीं ले सकता और वह भी तब जबकि डोनाल्ड ट्रम्प पल में तोला, पल में माशा की अपनी हरकतों पर किसी तरह विराम लगाने की बजाय उल्टे इसे बढ़ाते ही जा रहे हों। जाहिर है भारत न तो अपनी ऊर्जा ज़रूरतों से समझौता कर सकता है और न ही किसी एक देश से तेल न खरीद कर अपनी समूची ऊर्जा रणनीति को कमजोर कड़ी बनाना चाहता है। भारत रूस, अफ्रीका और सऊदी अरब से तेल खरीदने का अपना समीकरण इसलिए संतुलित किये रहता है। अमरीका चाहता है कि भारत बड़े पैमाने पर उससे तेल खरीदे। 
लेकिन जो आरोप हाल फिलहाल के दिनों में अमरीका ने भारत पर लगाया है कि रूस से कच्चा तेल खरीदकर हम उसे रिफाइन करके दुनिया को बेचकर फायदा उठाते हैं, आखिर अमरीका भी तो वही करना चाहता है। जब अमरीका खुद मध्यपूर्व से बड़े पैमाने पर कच्चा तेल खरीदता है, तो वह हमें क्यों बेचना चाहता है? और अगर हमें वह उसी दर पर दे दे, जिस दर पर हम रूस से खरीद रहे हैं, तो भला भारत को क्या दिक्कत हो सकती है? ऐसी स्थिति में हम भले रूस से पूरी तरह से तेल खरीदना बंद न करें, पर बड़ी तादाद में अमरीका से भी खरीदना शुरू कर सकते हैं लेकिन अमरीका यहां पर किसी किस्म का समझौता करने को तैयार नहीं। वह हमें रूस से काफी ज्यादा महंगी दर पर तेल बेचना चाहता है ताकि ऐसा करके वह हमसे अच्छी खासी कमाई कर सके। खुल्लम-खुल्ला अपने फायदे की इस तरह सोचने वाला अमरीका हम पर किस मुंह से आरोप लगा सकता है कि हम रूस के बजाय उससे तेल क्यों नहीं खरीद रहे? यही नहीं अमरीका से भारत तक तेल पहुंचाने का परिवहन खर्च भी काफी ज्यादा हो जायेगा। कुल मिलाकर भारत अमरीका की धौंस पर उसी के तेल खरीदकर सोने की मुर्गी नहीं साबित होना चाहता और ऐसा करना हमारा हक भी है। बहरहाल हमारे हित बिल्कुल वाजिब हैं और सबको स्पष्ट रूप से दिखते भी हैं लेकिन आज की दुनिया में सिर्फ तर्क से बात नहीं बनती। उन तर्कों को हमें अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के आधार भी ढूंढ़ने होंगे। इसलिए अमरीका से किसी तरह की राहत की उम्मीद किये बिना हमें हर हाल में अमरीका द्वारा खड़ी की गई बाधाओं का विकल्प तलाशना होगा। जहां तक निर्यात बाजार के लिए विकल्प तलाशने की बात है, तो यूरोप और एशिया पैसिफिक पर हमें दांव लगाना ही होगा। हमें बहुत दिन तक इस उम्मीद को लेकर खामोश नहीं रहना चाहिए कि कुछ दिन गुजरेंगे, तो ट्रम्प का पारा भी उतर जायेगा। ट्रम्प इतने सीधे नहीं हैं। उनसे डील करने के लिए हमें भी बिल्कुल सीधे नहीं रहना होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर

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