ठहरी हुई ज़िंदगी
दो राहों पर ठहरी है ज़िन्दगी,
पर इन कदमों की राहों का निर्माण नहीं,
सोचा था कट जायेगी यूँ ही,
पर यह ज़िन्दगी रही आसान नहीं।
कितने सितारों की टूटन देखी,
पर रखा दुआओं ने मान नहीं,
यह स्याह रात ऐसी आयी जिसकी,
सुबह का मिला कोई प्रमाण नहीं।
रेत के टीले पर घर था बसाया,
जो बिखरा मिला इक सामान नहीं,
भ्रम दिखाते हैं खिड़कियों के परदे,
जिस घर की आहट में कोई नाम नहीं।
माझी ने कितनी भी संभाली हैं कश्ती,
रहा सागर को उसका ध्यान नहीं,
लहरों ने तो इसको अपना ना समझा,
लिया साहिल ने इसका संज्ञान नहीं।
तन्हा वेदी पर जलता रहा एक हृदय,
अग्नि जिससे रही अनजान नहीं,
मुस्कुरा कर कहा यही इक विकल्प है,
इसके सिवा तेरा कोई निर्वाण नहीं।
-मनीषा मंजरी
-दरभंगा, बिहार
#ठहरी हुई ज़िंदगी

