आज भी भाव-विह्वल करते हैं ऱफी के गाये भजन

फिल्म ‘बैजू बावरा’ (1952) संगीतकार बैजू के जीवन पर आधारित है, जो तानसेन को चुनौती देते हैं। इस फिल्म के लिए भारत के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत शामिल किये जाने थे, जिनमें भक्ति भाव हो। इसलिए फिल्म के निर्देशक विजय भट्ट चाहते थे कि गीतों की रचना कवि प्रदीप से करायी जाये क्योंकि उनको हिंदी, हिन्दू पौराणिक कथाओं, परम्पराओं व भावों का विस्तृत ज्ञान है लेकिन उस समय तक इस फिल्म का संगीत देने के लिए नौशाद की शकील बदायूंनी से अच्छी जोड़ी बन गई थी, जो कि उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे। इसलिए नौशाद ने शकील से ही गीत लिखवाने के लिए बल दिया। विजय भट्ट ने शकील की परीक्षा लेने के बाद नौशाद के प्रस्ताव से सहमति व्यक्त की और इतिहास रच दिया गया - 
‘हरि ओम, हरि ओम, हरि ओम, हरि ओम/मन तड़पत हरि दर्शन को आज/मोरे तुम बिन बिगरे सगरे काज/बिनती करत हूं, रखियो लाज...।’ ‘बैजू बावरा’ के इस कालजयी भजन को आज 73 वर्ष बाद भी उसी भक्तिभाव से सुना जाता है जैसा पहली बार रिलीज़ होने के समय सुना गया था। ज़ाहिर है इस भजन के दिल को स्पर्श करने वाले बोलों की रचना शकील बदायूंनी ने की थी, गंभीर मूड के कठिन राग मालकौंस में संगीत से सजाया था नौशाद अली ने और दिल की गहराइयों से गाया था मोहम्मद ऱफी ने। ..तो इस सदाबहार भजन के तीनों मुख्य आर्किटेक्ट मुस्लिम थे। इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि मोहम्मद ऱफी धर्मभीरु मुस्लिम थे, उन्होंने 1970 के दशक में हज भी किया, लेकिन साथ ही वह भजन गायन कला को उस बुलंदी पर ले गये जहां उनके समकालीन गायक आस-पास भी न पहुंच सके। मोहम्मद रफी के गाये हुए एक से बढ़कर एक भजनों की सूची लम्बी है। यहां जगह के अभाव में सबका उल्लेख संभव नहीं है, लेकिन मोहम्मद ऱफी के गाये हुए टॉप 5 भजनों की एक सूची तो बनती ही है। 
इससे पहले एक बात का स्पष्टीकरण आवश्यक है। आजकल सोशल मीडिया पर एक पोस्ट वायरल है कि बीबीसी ने विश्व के 30 लाख हिन्दुओं पर कराये गये एक सर्वे के आधार पर हिंदी फिल्मों के टॉप-10 भजनों की सूची तैयार की है, जिसमें से छह शकील के लिखे हुए हैं और चार साहिर लुधियानवी के। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि इन दोनों महान गीतकारों ने फिल्मों में कालजयी भजनों की रचना की है, लेकिन तथ्य यह भी है कि बीबीसी ने ऐसा कोई सर्वे नहीं कराया है और वायरल पोस्ट का खंडन किया है। 
बहरहाल, हम बात मोहम्मद ऱफी द्वारा गाये गये टॉप-5 भजनों की कर रहे थे। इस संदर्भ में हर किसी की अपनी अपनी पसंद हो सकती है और यह भी हकीकत है कि ‘ईश्वर की आवाज़’ कहे जाने वाले मोहम्मद ऱफी के सभी भजन एक से बढ़कर एक हैं, दिल ही नहीं आत्मा को भी स्पर्श करते हैं। लेकिन नंबर 1 होने का सम्मान तो ‘बैजू बावरा’ के भजन को ही मिलना चाहिए, जिसका ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है, जो आज भी हरि दर्शन की इच्छा के लिए मन को तड़पा देता है और देश के अनेक श्रीकृष्ण मंदिरों में दशकों बाद अब बजाया जाता है। 
दिलचस्प बात यह है कि हमारी राय में दूसरे स्थान पर भी ‘बैजू बावरा’ का ही एक अन्य भजन आता है, जिसे मोहम्मद ऱफी ने अपने दिल की गहराइयों से गाया है और जिसे सुनकर श्रोताओं (बल्कि ईश्वर भक्तों) के लिए अपने आंसू रोकना कठिन हो जाता है- ‘भगवान, भगवान... भगवान/ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले/सुन दर्द भरे मेरे नाले/आस निराश के दो रंगों से, दुनिया तूने सजायी/नय्या संग तूफान बनाया, मिलन के साथ जुदाई/जा देख लिया हरजाई/ओ... लुट गई मेरे प्यार की नगरी, अब तो नीर बहा ले/अब तो नीर बहा ले/ओ... अब तो नीर बहा ले, ओ दुनिया के रखवाले।’
एक दिन यू-ट्यूब को सर्फ करते हुए मैंने देखा कि एक संत धर्म के महत्व को समझाते हुए एक भजन गा रहे थे और वह फिल्म ‘चित्रलेखा’ (1964) का था, जिसे लिखा साहिर ने, संगीत दिया रोशन ने और गाया मोहम्मद ऱफी ने वह था- ‘मन रे तू काहे न धीर-धीरे वो निर्मोही मोह न जाने, जिनका मोह करे/मन रे.../इस जीवन की चढ़ती ढलती/धूप को किसने बांधा/रंग पे किसने पहरे डाले/रूप को किसने बांधा/काहे ये जतन करे/मन रे...।’ हमारी सूची में यह तीसरे स्थान पर है। हालांकि फिल्म ‘गोपी’ (1970) के अधिकतर गीतों को महेंद्र कपूर ने स्वर दिया था, लेकिन राजेंद्र कृष्ण के लिखे भजन को संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी ने मोहम्मद ऱफी को याद किया- ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोई/मेरे राम, मेरे राम, तेरा नाम एक सांचा दूजा न कोई।’ यह भजन हमारी सूची में चौथे स्थान पर है। 
राजेंद्र कृष्ण का ही रचा एक अन्य भजन हमारी सूची में 5वें स्थान पर है, जोकि फिल्म ‘खानदान’ (1965) का है और इसका संगीत रवि ने दिया था, जिनकी पहली पसंद हमेशा ही मोहम्मद ऱफी रहते थे। इस कालजयी भजन के बोल हैं- ‘बड़ी देर भई नंदलाला/तेरी राह तके बृजबाला/ग्वाल-बाल इक इक से पूछे/कहां है मुरली वाला रे/बड़ी देर भई नंदलाला।’

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

#आज भी भाव