माजुली से काजीरंगा नेशनल पार्क तक की यात्रा

आज शाम तक हमें गुवाहाटी पहुँचना है। कल हमारी दिल्ली की फ्लाइट है। बीच में काजीरंगा नेशनल पार्क पड़ेगा। देखते हुए चलेंगे। उधर ब्रह्मपुत्र पार करके कुछ ही दूर गोलाघाट में एक मित्र कपिल चौधरी रेलवे में नौकरी करते हैं। कल ही वे उत्तराखंड से घूमकर आए थे। आज जैसे ही उन्हें पता चला कि हम माजुली में हैं और काजीरंगा देखते हुए जाएंगे तो हमारे साथ ही काजीरंगा घूमने का निश्चय कर लिया। तो हम इधर से चल पड़े, वे उधर से चल पड़े।
फिर से ब्रह्मपुत्र नाव से पार करनी पड़ेगी। कमलाबाड़ी घाट। बड़ी चहल-पहल थी। पहली नाव सात बजे चलेगी। वह पहले उधर से आएगी, तब इधर से जाएगी। समय-सारणी लगी थी। ज्यादातर लोग दैनिक यात्री लग रहे थे। बहुत सारी मोटरसाइकिलें भी उधर जाने वाली थीं। जैसे ही उधर से नाव आई और मोटरसाइकिलों का रेला नाव पर चढ़ने लगा तो हमें लगने लगा कि कहीं जगह कम न पड़ जाए और हमारी मोटरसाइकिल यहीं न छूट जाए लेकिन नाववालों का प्रबंधन देखकर दांतों तले उंगली दबानी पड़ गई। 50-60 मोटरसाइकिलें तो नाव की छत पर ही आ गईं। छत पर ऐसा इंतजाम किया गया था कि मोटरसाइकिलें फिसलकर ब्रह्मपुत्र में न गिर पड़ें। और जब नाव चलने लगी तो इसमें मोटरसाइकिलों के अलावा चार गाड़ियां, ढेरों साइकिलें, नीचे यात्री, ऊपर छत पर भी यात्री और मोटरसाइकिलों पर भी यात्री। और किराया नाम-मात्र का 20-25 रुपये था।
डेढ़ घंटे लगे ब्रह्मपुत्र को पार करने में। यात्रियों से बातचीत हुई। यहां पुल बनेगा, पता नहीं कब। अभी तो पुल का नाम भी नहीं है। बन जाए तो अच्छा है। दैनिक यात्रियों को रोज़ाना तीन घंटे से ज्यादा आने-जाने में लगाने पड़ते हैं। दूसरी तरफ निमातीघाट है। सड़क है और कुछ ही दूर जोरहाट। वर्तमान में जोरहाट में रेल है। पहले कभी निमातीघाट में भी रेल हुआ करती थी। ब्रह्मपुत्र की बाढ़ में एक बार तबाह हुई, तो बंद ही हो गई।
जोरहाट से कोहोरा की 100 किलोमीटर की दूरी को तय करने में दो घंटे लगे। नुमालीगढ़ के पास तक तो रास्ता अभी भी वैसा ही था, जैसा कुछ दिन पहले था अर्थात् खराब और टूटा हुआ लेकिन इस बार यह खराब नहीं लगा। इसका कारण था कि अरुणाचल में हम बहुत ज्यादा खराब रास्तों पर चले थे। अब रास्ता जैसा भी था, उससे कई गुना अच्छा था। दूसरा दिन, चाउमीन खाकर हम कोहोरा फोरेस्ट आफिस के बाहर बैठकर काजीरंगा और कर्बी आंगलोंग के बारे में तमाम तरह की सूचनाएं पढ़ने में व्यस्त थे, तभी तीन आदमी और आए। यात्री ही लग रहे थे। आते ही पूछा, ‘क्या आप लोग भी काजीरंगा जाओगे?’
मैंने रूखा-सूखा-सा जवाब दिया, ‘हां, जाएंगे।’
बोले, ‘हम भी जाएंगे।’
मैंने जेब से मोबाइल निकाला और इस पर नज़रें गड़ाकर कहा, ‘हां, ठीक है। जाओ। जाना चाहिए।’
बोले, ‘तो एक काम करते हैं। हम भी तीन और आप भी तीन। मिलकर एक ही सफारी बुक कर लेते हैं। पैसे बच जाएंगे।’ और जैसे ही सुनाई पड़ा ‘पैसे बच जाएंगे’ - तुरंत मोबाइल जेब में रखा और सारा रूखा-सूखा-पन त्यागकर सम्मान की मुद्रा में आ गया, ‘अरे वाह सर, यह तो बहुत बढ़िया बात रहेगी। मजा आ जाएगा। आप लोग कहां से आए हैं?’
‘इंदौर, मध्य प्रदेश से।’ ‘भई वाह सर, यह समझ लो सरजी कि इंदौर में तो हमारा दूसरा घर है और हम कई-कई दिन वहां गुजार देते हैं।’
‘कहां? किस जगह?’
फिर तो हमने उन्हें जो सम्मान दिया, उतना सम्मान हमने कभी किसी को नहीं दिया होगा। खुली गाड़ी में सबसे आगे भी उन्हें ही बैठाया और सबसे पीछे भी उन्हें ही। आखिर हमारे कई सौ रुपये जो बचने वाले थे।
तो बगोरी गेट पहुंचे। मोटरसाइकिल भी सामान सहित यहीं खड़ी कर दी। आज हम पहली बार किसी नेशनल पार्क में सफारी पर जा रहे थे, वो भी एक ऐसे नेशनल पार्क में जो विश्व विरासत स्थल भी है और जहां दुनिया में सबसे ज्यादा एक सींग वाले गैंडे पाए जाते हैं और जहां बाघों का घनत्व भी सबसे ज्यादा है। 2015 की गणना के अनुसार, इस नेशनल पार्क में 2400 से भी ज्यादा गैंडे हैं। हालांकि इसी साल आई बाढ़ के कारण बहुत सारे गैंडे नेशनल पार्क से निकलकर आबादी क्षेत्रों में और कर्बी आंगलोंग की पहाड़ियों में चले गए और शिकार के कारण मारे भी गए।
लेकिन प्रत्येक यात्री की तरह हमारी भी इच्छा थी कि बस, एक गैंडा देखने को मिल जाए। नेशनल पार्कों में जानवर आसानी से दिखते नहीं हैं लेकिन एक गैंडा दिख जाएगा तो जीवन सफल हो जाएगा। हम हर दो-दो मिनट में ड्राइवर से यही पूछे जा रहे थे ‘दादा, गैंडा दिख तो जाएगा न?’
एक पुल पार करते ही नेशनल पार्क में प्रवेश कर गए और थोड़ी ही दूर एक गैंडा दिख गया। ऊंची हाथी-घास में छुपा हुआ था और केवल पेट का कुछ हिस्सा दिख रहा था। कैमरा 30 गुणा जूम करने पर छोटा-सा फोटो आया। फिर कैमरा एक तरफ रख दिया और गाड़ी रुकवाकर इसे ही देखने में लग गए।
‘आगे बहुत सारे गैंडे मिलेंगे और सड़क के एकदम नजदीक मिलेंगे’, ड्राइवर ने कहा।
‘और अगर न मिले तो? एक गैंडा दिख रहा है। इसे ही निहारने दो, दादा।’
काजीरंगा नाम सुनते ही गैंडे की छवि बनती है और गैंडा नाम सुनते ही काजीरंगा दिमाग में आता है। दोनों एक-दूसरे के पर्याय कहे जा सकते हैं। मुझे नहीं पता था कि पार्क कितना बड़ा है और ज्यादातर गैंडे इस समय कहां होंगे। तो एक गैंडा घास में आधा छुपा था, तो मैं इसमें खो गया। पेट पर लटकती खाल और ऊपर बैठा एक बगुला। ड्राइवर भी ऊब गया और बाकी सभी भी। आखिरकार गाड़ी चला ही दी। मुझे तसल्ली नहीं थी। मैं इस एक को ही घास से निकलते देखना चाहता था। मुझे नहीं पता था कि कुछ ही आगे अनगिनत गैंडे सड़क के एकदम नजदीक होंगे। मैं तो हैरान रह गया यह देखकर। नेशनल पार्कों में बढ़ती व्यावसायिकता को देखकर मेरा कभी मन नहीं होता था जाने का। प्रवेश शुल्क, सफारी, फोरेस्ट हट्स और फिर तमाम तरह के प्रतिबंध कभी मन नहीं होता था। आज पहली बार ये सब काम किए और पहली बार एहसास हो रहा है कि नेशनल पार्क क्यों खास होते हैं। जंगली हाथियों में और जंगली भैंसों में किसी की दिलचस्पी नहीं थी, सिवाय मेरे। गैंडे समेत ये तीनों बड़े शाकाहारी जानवर एक ही मैदान में अपना भोजन साझा कर रहे थे। इनके बीच में बारहसिंगे और पक्षी तो खिलौने-से लग रहे थे। मन करने लगा कि एक-दो दिन रुकना चाहिए यहां लेकिन आज हमारी यात्र का आखिरी दिन था और दिन का भी आखिरी समय था पर आखिर अपना मन मारकर वहां से वापिस आना ही पड़ा। (उर्वशी)

#पार्क तक की यात्रा