मानवीय अधिकारों के रक्षक -गुरु त़ेग बहादुर साहिब
गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत के बारे में दशम पिता गुरु गोबिंद सिंह जी का फरमान है- ‘सीस दीया पर सिररु न दीया’। गुरु जी ने शीश दे दिया, सिरर नहीं दिया। परन्तु सवाल है कि यह सिरर क्या था? सिरर था मानवीय अधिकारों की रक्षा का। मनुष्य को अधिकार है कि वह आज़ादी के साथ अपनी मनमज़र्ी के विश्वास और अकीदे का पालन करे। इसी सुंदर सिद्धांत की रक्षा के लिए गुरु तेग बहादुर साहिब ने अपने शीश का बलिदान किया था और यही सिररु था गुरु जी का। श्री गुरु गोबिंद सिंह पातशाह ने एक और वचन किया था- ‘त़ेग बहादुर सी क्रिया करी न किनहूं आन’। गुरु साहिब ने वह कारनामा किया जो और कोई नहीं कर सका। इतिहास साक्षी है कि गुरु साहिबान, तिलक और जनेऊ के धारणी नहीं थे। कर्म-कांड, भेष और दिखावे की रस्मों का वह खंडन करते आ रहे थे, परन्तु जब हिन्दू धर्म के इन अस्तित्व-चिन्हों को तलवार की नोक के साथ उतारने का यत्न किया गया तो 9वें नानक, गुरु तेग बहादुर साहिब ने अपना शीश सामने कर दिया। दिल्ली के चांदनी चौक में शरेआम सिर की आहुति देकर उन्होंने पहचान-चिन्हों को बचा लिया। ऐसा कारनामा इतिहास में और किसी ने कभी नहीं किया। ऐसी शहादत किसी और ने नहीं दी थी।
वास्तव में मानवीय अधिकारों की लोकतांत्रिक बनावट का केन्द्रीय धुरा यही है कि जिस विचार के साथ असहमति हो, उसको भी कायम रहने दिया जाए लेकिन यह तो और आगे की बात हो गई, लामिसाल कारनामा हो गया कि गुरु जी ने उन धार्मिक विचारों की रक्षा के लिए अपना शरीर लगा दिया, जिनका वह खुद और उनसे पहले की गुरु-परम्परा विरोध करती आई थी। सचमुच यह अद्भुत क्रिपा थी, जो किसी और ने नहीं की थी।
गुरु बिलास पातशाही 6वीं में गुरु तेग बहादुर साहिब के जन्म के समय की एक घटना का ज़िक्र मिलता है। पिता गुरु, गुरु हरिगोबिंद पातशाह ने बालक तेग बहादुर के जन्म पर अत्यंत खुशी व्यक्त की और बालक को बहुत सम्मान के साथ नमस्कार किया। जब बिधि चंद ने हैरान होकर सवाल किया कि गुरु जी, आपने इस बालक को नमस्कार क्यों किया है? तो गुरु जी ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक गुरु बन कर दीन की रक्षा करेगा और लोगों को संकट से मुक्ति दिलाएगा :
चड़ियो दिवस गुरु जी सुनयो भेजे बिधीये संग।
आए महिली गावही त्रिया धार अनंद।
तब गुरु सिस को बंदना लाई कीनी अति हित।
बिधीया कहे कस बिनति की, कहो मोहि सत भाइ।
तब गुर कहि इह गुर भवे पांच सुतन मो जान।
दीन रछ संकट हरे सदै यही पहचान।
इतिहास गवाह है कि श्री गुरु हरि गोबिंद साहिब की यही भविष्यवाणी अक्षाश: सच साबित हुई और गुरु तेग बहादुर साहिब ने दीन-धर्म की रक्षा के लिए, लोगों के संकट काटने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
यदि गहराई में जाएंगे तो बहुत स्पष्टता के साथ गुरु जी की शहादत की असलियत समझ सकेंगे। पंडितों के जत्थे का आनंदपुर साहिब आकर फरियाद करना, गुरु साहिब का आनंदपुर से दिल्ली चल कर जाना और अपने-आप को शहादत के लिए पेश करना आदि उस महान साके की घटनाओं की तफसील है। वास्तव में गुरु तेग बहादुर साहिब की शहादत का कारण, उस समय के शासक औरंगज़ेब की राजनीति वाली नीति थी, जिसका शिकार उस समय पूरा हिन्दोस्तान था। इतिहास बताता है कि औरंगज़ेब अपने पिता की छाती पर पैर रख कर, भाइयों का कत्ल करके, काज़ियों-मुल्लाओं का ईमान खरीदकर बादशाहत के तख्त पर बैठा था और गद्दी-नशीनी के फौरन बाद उसने ़गैर-मुसलमानों को शाही संकीर्णता का शिकार बनाना शुरू कर दिया था। शाही आदेश के तहत मुसलमान व्यापारियों को महसूल चुंगी से मुक्त कर दिया गया और हिन्दुओं पर महसूल चुंगी को दो-गुणा कर दिया गया। हिन्दू रीति-रिवाजों पर पाबंदियां लगनी शुरू हो गईं। उनके धार्मिक स्थानों को गिराने के आदेश दिये गये। राग और गायन को इस्लामी शराअ के उल्ट करार देकर पाबंदी लगा दी गई। फिर इन सभी साम्प्रदायिकता नीतियों को सख्ती के साथ लागू करने के लिए तहसीलों और नगरों में खास अहलकार नियुक्त कर दिए गये। ऐसे हालात पैदा कर दिए गये ताकि सभी ़गैर-मुस्लिम रोज़ी-रोटी और जान बचाने के लिए अपना धर्म त्याग कर इस्लाम धारण कर लें। यहां तक कि खुले ख्याल वाले संन्यासियों, फकीरों और सूफियों को भी देश निकाला दे दिया गया और कई स्थानों पर उनका कत्ल कर दिया गया।
ऐसी अमानवीय स्थिति में ही समूचे देशवासियों की पुकार लेकर पंडित कृपा राम अपने सैंकड़ों साथियों के साथ आनंदपुर साहिब पहुंचे थे और अपनी दु:ख भरी व्यथा गुरु पातशाह को सुनाई थी। 9 साल के बालक गोबिंद राय ने उन ब्राह्मणों की भीगी हुई आंखें देखकर ही यह कहा था कि यदि किसी महापुरुष की कुर्बानी के साथ यह साम्प्रदायिकता खत्म होनी है तो पिता जी, आपसे बड़ा महापुरुष इस युग में और कौन है। दुखी मनों की फरियाद ने ही गुरु त़ेग बहादुर साहिब को सर्वोच्च कुर्बानी के लिए तैयार किया था और फिर गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों के माध्यम से यह संदेश शासकों और समूचे देश वासियों को दिया था कि वह अपने खून के साथ जुल्म की प्यास बुझाएंगे और साम्प्रदायिकता की शिकार मज़लूम जनता में नई आत्मा डालेंगे। उनकी शहादत के बाद साम्प्रदायिकता की जड़ें उखड़ जाएंगी, लोगों में नई चेतना पैदा होगी। मानवीय अधिकारों का हनन होने पर अपने अधिकारों और विचारों की रक्षा करने के लिए मर-मिटने वाली नई संगठित शक्ति पैदा होगी।
कोई शक नहीं। गुरु तेग बहादुर साहिब की महान शहादत के बाद यही हुआ। गुरु गोबिंद सिंह पातशाह ने खंडे-बाटे का अमृत देकर खालसा पंथ की स्थापना की और खालसा पंथ की मुख्य जिम्मेदारी यह लगाई कि वह अकाल पुरख की सेना बनकर मानवीय भाईचारे की, एक पिता की एक समान संतान के रूप में सेवा करे। कहीं भी भेदभाव हो, मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव करके साम्प्रदायिकता हो रही हो, मनुष्य की बुनियादी आज़ादी का गला घोंटा जा रहा हो तो गुरु तेग बहादुर साहिब के उस महान उपदेश-‘भै काहू कउ देत नहि, नहि भै मानत आनि’ की रौशनी में वह मानवीय अनख और आबरू की बहाली के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगा दे। एक जमात तैयार हो गई अपने अधिकारों के प्रति चेतन और दूसरों को जागरूक करने वाली।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि हक और सच पर पहरा देना सिखी का बुनियादी सिद्धांत है। अपने व्यवहार से, अपना आप कुर्बान करके हक और सच की पैरवी करना सिखी की मर्यादा है। गुरु नानक पातशाह ने इस मर्यादा की नींव रखी और बाबर की जेल में कैदी बनकर इस पवित्र सिद्धांत की गवाही दी थी। श्री गुरु अर्जुन देव जी ने सच-हक की आवाज़ बुलंद रखने के लिए संघठन ढांचे की ज़रूरी संस्थाएं उपलब्ध करवाने का महान कार्य किया था और कीमत के तौर पर उनको गर्म तवे पर बैठाकर अपने शरीर की आहुति देनी पड़ी थी। गुरु तेग बहादुर साहिब ने भी हक और इन्साफ की निर्णायक जंग लड़ी और अपना शीश देकर सच की शहादत दी थी। सच कुर्बानी मांगता है, कीमत मांगता है। सच पर भी मुसीबत आती है, यह इतिहास का खोजा हुआ और परखा हुआ सच है। इतिहास के पन्नों पर उन धार्मिक पुरुषों के नाम दर्ज हैं, जिन्होंने अपने आप को कुर्बान किया परन्तु नि:संदेह श्री गुरु तेग बहादुर साहिब की सच, हक, इन्साफ और मानवीय अधिकारों के सिद्धांत पर अड़े रह कर पहरा देते हुए शहादत देने की व्याख्या अद्भुत है। मानवता पर गुरु जी के उपकार को पूरी तरह कलमबंद नहीं किया जा सकता, परन्तु कवि सेनापति की ये पंक्तियां काफी गहरी लगती हैं :
प्रगट भये गुर त़ेग बहादुर
सगल सृष्टि पे ढापी चादर।
करम धरम की जिनि पति राखी।
अटल करी कलजुग मे साखी।





