अपना स्वतंत्र अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है न्यायपालिका

‘हमारे लोकतंत्र का मूल सिद्धांत-कानून का शासन है। इसका तात्पर्य है कि हमारे पास एक स्वतंत्र न्यायपालिका और ऐसे न्यायाधीश होने चाहिएं, जो राजनीतिक प्रभाव के दबाव में आए बिना स्वतंत्र फैसले ले सकें।’ किसी विद्वान ने उपरोक्त कथन भारत के लोकतंत्र के लिए नहीं कहे, परन्तु भारत के लिए भी उतने ही उपयुक्त हैं, जितने किसी अन्य देश के लिए।न्यायपालिका का होना और बिना राजनीतिक हस्तक्षेप के फैसले करना न सिर्फ लोकतंत्र की नींव को मजबूत बनाता है, अपितु जनता में निरपेक्षता तथा न्याय के प्रति विश्वास भी बनाये रखता है। सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों द्वारा 12 जनवरी को की गई प्रैस कान्फ्रैंस के बाद से ही न्यायपालिका अपने फैसलों के साथ-साथ इसके अस्तित्व और नाम पर हो रही ‘हलचल’ को लेकर अधिक चर्चा में है। प्रैस कान्फ्रैंस द्वारा ‘जनता की अदालत’ में गए चार वरिष्ठ जजों की गुहार तो आज भी अपने असर और अंजाम का इंतज़ार कर रही है। परन्तु उसके बाद भी अलग-अलग कारणों से न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्हों का उभरना जारी है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में जनवरी में पहली बार हुई प्रैस कान्फ्रैंस के बाद पहली बार ही देश की सात राजनीतिक पार्टियों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का नोटिस जारी किया था। महाभियोग का अमल पहले भी कुछ न्यायाधीशों के खिलाफ शुरू किया गया है, परन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ पहली बार ऐसा हुआ है। चाहे इस नोटिस को राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू ने ठोस आधार न होने का हवाला देते हुए खारिज़ कर दिया परन्तु विरोधी गुटों ने न्याय का तराजू पकड़ने वाले हाथों का झुकाव सरकार की ओर अधिक होने के संकेत जग-जाहिर कर दिए हैं। इसी सूची की नई कड़ी जजों की नियुक्ति के विवाद में है। 26 अप्रैल को सरकार ने कालजियम की सिफारिश के तहत सर्वोच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति के लिए आए दो नामों में से एक को स्वीकृत देकर दूसरे नाम को ‘पुन: विचार’ के लिए वापिस कालजियम के पास भेज दिया। यहां उल्लेखनीय है कि सरकार द्वारा वापिस भेजा गया नाम जस्टिस के.एम. जोसफ है, जिन्होंने 2016 में उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के फैसले को रद्द करते हुए राज्य में कांग्रेस शासन पुन: बहाल कर दिया था। सरकार द्वारा स्वीकृत किए दूसरे जज इन्दू मल्होत्रा ने पद की शपथ ले ली परन्तु जस्टिस जोसफ की नियुक्ति का मामला अभी भी लटका हुआ है। जजों की नियुक्ति में सरकारी हस्तक्षेप का फरमान सिर्फ जस्टिस जोसफ के मामले तक ही सीमित नहीं है। पंजाब तथा हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य जज की नियुक्ति के मामले में भी केन्द्र ने कालजियम की सिफारिश को नामंजूर कर दिया है। 3 मई को पंजाब तथा हरियाणा के मुख्य जज वजीफदार की सेवानिवृत्ति के बाद पद भरने के लिए कालजियम ने 19 अप्रैल को जस्टिस कृष्णा मोरारी के नाम की सिफारिश की थी परन्तु सरकार ने सिफारिश रद्द करते हुए ए.के. मित्तल को संबंधित उच्च न्यायालय का कार्यकारी मुख्य जज बना दिया। एक रिपोर्ट के अनुसार कालजियम द्वारा अलग-अलग पद भरने के लिए 140 नामों की सिफारिश की गई है, परन्तु सभी मामले अभी केन्द्र के पास बकाया पड़े हैं। नियुक्तियों में की जा रही देरी के कारण न्यायपालिका में जजों की संख्या तयशुदा से कहीं कम है। सर्वोच्च न्यायालय में 6, उच्च न्यायालयों में 395 और निचली अदालतों में 5984 पद खाली हैं, जिसका सीधा असर केसों की सुनवाई पर पड़ता है। सरकारी हस्तक्षेप न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में सरकारी बाधा कोई नया अमल नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि 45 वर्ष पूर्व उसी दिन (26 अप्रैल) को जजों की नियुक्ति में सरकारी हस्तक्षेप का मुद्दा खुलकर उठा था। उस समय इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने सबसे वरिष्ठ जज जस्टिस हेगड़े के स्थान पर एक जूनियर जज ए.एन. रे को भारत के मुख्य न्यायाधीश बना दिया था।  26 अप्रैल, 1973 को न्यायपालिका के इतिहास में काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है, अपितु इस घटना को ही आपात्काल की नींव करार दिया जाता है, जिसके बाद जस्टिस खन्ना की वरिष्ठता को बर्खास्त करके मिज़र्ा हमीदुल्ला बेग को भारत के मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। आपात्काल के दौरान लागू किए विवादित कानून आन्तरिक सुरक्षा के रख-रखाव के बारे में कानून 1975 (मीसा कानून) के तहत किसी भी राजनीतिक विरोधी को बिना सुनवाई के जेल में बंद करने के फैसले को किसी भी उच्च न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। चाहे वह फैसला कितना भी बदनीयत और गैर-कानूनी क्यों न हो। कांग्रेस ने आपात्काल का भुगतान सत्ता गंवा कर किया परन्तु न्यायपालिका में सरकार का हस्तक्षेप सिर्फ आपात्काल के दौर तक ही सीमित नहीं है। एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश ने सेवानिवृत्ति के बाद लिखी पुस्तक में नियुक्ति के मामले में पूरी स्वतंत्रता न होने की ‘घुटन’ का उल्लेख किया है। 
पुन: जस्टिस जोसफ की बात करें तो सरकार ने तीन आधारों पर उनकी नियुक्ति पर पुन: विचार करने के लिए भेजा—
1. केरल का अधिक क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व 
2. जस्टिस जोसफ की वरिष्ठता और 
3. एस.सी./एस.टी. वर्ग का कम प्रतिनिधित्व
महाराष्ट्र के सेधापुर के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जी.डी. ईनामदार ने इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर करके यह आपत्ति भी जताई है कि कालजियम की सिफारिशों से सरकार एक नाम चुन और एक रद्द नहीं कर सकती। ईनामदार के अनुसार यदि सरकार को किसी नाम पर आपत्ति है, तो उसको पूरी फाइल ही वापिस भेजनी चाहिए। सरकार द्वारा जताई गई आपत्तियों पर भी एक दृष्टि डालनी बनती है। सरकार ने केरल उच्च न्यायालय को तुलनात्मक तौर पर छोटी उच्च अदालत होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय में इस राज्य के अधिक प्रतिनिधित्व की शंका व्यक्त की है। यहां उल्लेखनीय है कि फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में सिर्फ कुरियन जोसफ ही केरल उच्च न्यायालय से संबंध रखने वाले वाहिद जज हैं, जोकि 29 नवम्बर, 2018 को सेवानिवृत्त हो रहे हैं। तथ्यों के अनुसार इससे पहले 8 बार सर्वोच्च न्यायालय में एक ही समय केरल के दो जज कार्य कर चुके हैं, जबकि एक बार केरल के तीन जजों ने भी सर्वोच्च न्यायालय में एक साथ कार्य किया था।
केरल उच्च न्यायालय में जजों की संख्या 41 है, जबकि दिल्ली तथा गोवाहाटी उच्च न्यायालय में जजों की संख्या 36 और 24 है, जो उस आधार पर केरल उच्च न्यायालय से भी तुलनात्मक आधार पर छोटी हैं। केन्द्र द्वारा क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के तर्क को यदि मौजूदा जजों की संख्या से भी मिलाएं तो भी यह तर्क उपयुक्त नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय में इस समय दिल्ली और बॉम्बे उच्च न्यायालय के तीन-तीन जज हैं। इलाहाबाद, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के दो-दो जज हैं, जबकि केरल, उड़ीसा, गुवाहाटी, पंजाब तथा हरियाणा, मद्रास, पटना और हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय से एक-एक जज हैं। जबकि कोलकाता, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान, झारखण्ड, उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, मणिपुर और मेघालय का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। केन्द्र द्वारा पुन: प्राथमिकता देने के सुझाव के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने जारी प्रैस रिलीज़ में कहा कि कालजियम जस्टिस जोसफ के अलावा कोलकाता, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से भी जजों के नाम सरकार को भेजने की तैयारी में है। केन्द्र ने जस्टिस जोसफ की वरिष्ठता पर भी सवाल उठाए हैं। वरिष्ठता के आधार पर जस्टिस जोसफ 42वें स्थान पर हैं। जजों की नियुक्ति में वरिष्ठता ‘एक’ मुद्दा तो होती है, परन्तु ‘वाहिद’ मुद्दा नहीं होती। तथ्यों पर दृष्टि डालें तो कोलकाता उच्च न्यायालय के रूमापाल को जब सर्वोच्च न्यायालय का जज बनाया गया था तो वह वरिष्ठता के आधार पर 70वें स्थान पर थे।  सरकार द्वारा एस.सी./एस.टी. वर्ग का प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर भी कानूनी माहिरों का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय में अभी भी चार और पद हैं। इसके साथ ही इसी वर्ष 6 और जज भी सेवानिवृत्त हो रहे हैं। अंत में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका तथा कार्यपालिका का हस्तक्षेप कोई नया नहीं है, परन्तु उम्मीद की जानी चाहिए कि पहले भी कई बार अपनी साख को ‘पुन:’ कायम करने में सफल हुई न्यायपालिका इस विवाद से भी उभर कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बचाने में सफल होगी और लोकतंत्र तथा कानून के शासन को और मजबूत करने में सफल होगी।