कबीर तो हैं ही ‘कबीर’ 

हिन्दी साहित्य की चर्चा कबीर के बिना पूरी नहीं होती है । कबीर भारतीय साहित्य की वह अजस्र नदी है जो न जाने कहां से आती है और कहां तक जाती है, पर अपने पीछे वह जो हरा-भरा बाग छोड़ कर जाती है उसकी खुश्बू , उसकी महक, उसके फ ल, फू ल बहुत ही समर्थ और सक्षम होने का जीवंत प्रमाण हैं। हिन्दी का साहित्य बेहद समृद्ध है , उसमें सूर, तुलसी, केशव, मीरा, जायसी, भूषण, सेनापति, बिहारी ही नहीं नागार्जुन, महादेवी, पंत, प्रसाद, निराला की कवि त्रयी और उनके बाद के सैंकड़ों नहीं, हजारों चमकदार नाम हैं। कितने ही बड़े-बड़े नाम आए और चले गए मगर कबीर की ठसक ज्यों की त्यों बनी रही है तो इसके पीछे कबीर का सर्वग्राह्य रूप है । बाबा कहें या संत, उन्हें अल्हड़ कहें या मस्तमौला, अपढ़ कहें या गुणी, कवि कहें या भक्त हर रूप में कबीर अगर कुछ हैं तो बस कबीर हैं। न उससे कम न ज्यादा। एकदम अतुलनीय। कबीर की तुलना किसी से की ही नहीं जा सकती है। भक्त के रूप  में सूर उनसे बेहतर लग सकते हैं , विद्वत्ता में बिहारी व केशव का ज्ञान भारी हो सकता है, पर, जब एक पलड़े में कबीर और दूसरे में कोई भी दूसरा हो तब पलड़़ा भारी होता है तो बस कबीर का। कबीर ने जिस अंदाज़ में दोहे को अपनाया, वह मात्रा व वज़न की दृष्टि से भले ही छंदशास्त्र में आलोचना का सबब बना हो पर जो बात कबीर इस 24 मात्राओं के छंद में कह गए, अन्य कोई नहीं कह पाया। उनका बेलाग बेलौस अंदाज, उनका अक्खड़ व मस्तमौला उपदेशक , बिना मानकों की परवाह किये वह कह जाता है जो इस निरक्षर जुलाहे को देखकर कोई अंदाज तक नहीं लगा सकता। ‘मसि कागद’ से दूर , ‘कलम गह्यो नहीं हाथ’ की आत्मोक्ति करने वाले कबीर जब कुछ कहते हैं तो बस चमत्कार होता चला जाता है। वैसे भी कबीर इस दुनिया में आते भी हैं एक चमत्कार की तरह और जाते भी हैं एक चमत्कार करते हुए ही। नीरू नीमा के घर पले बढ़े ज़रूर पर किसने कबीर को जाया, कौन उनके माता-पिता रहे, यह आज भी वाद विवाद का ही विषय है। यहां तक कि उनके जन्म की तिथि तक पर एकमत होना मुश्किल हो जाता है । कोई उन्हें काशी में जन्म लेते बताता है तो कोई लहरतारा तालाब के पास मिलने के सबूत देता है । कबीर की निश्चित जन्मतिथि मानने या न मानने के पर्याप्त पर अधूरे सबूत हैं लेकिन कबीर के स्वामी रामानंद के शिष्य बनने की कहानी ज़रूर पुष्ट जैसी है। अब क्या और कितना सही है, इन सब बातों से दूर यदि कबीर ने कुछ नि:संदेह श्रेष्ठ किया है तो वह है अपने समय के धर्म की पोगापंथी पर करारा प्रहार। कबीर ने दोहा, सबद , रमैनी , साखी, सोरठा जैसे सारे छंद इस खूबी से अपनाये कि उनके अपढ़ होने पर यकीन पहीं होता है । कबीर  भले ही किसी पाठशाला न गए हाें पर जीवन की पाठशाला में उन्होंने जितना ‘गुना’ लिया है, उतना आम आदमी तो कई जन्म में भी नहीं गुन पाता है। बिना शब्द या अक्षर की चतुराई का सहारा लिये कबीर ने जीवन के सार को निचोड़ डाला है।  वह गरीब के साथ खड़े रहते हैं और पोगापंथी धर्माचार्यों पर कसकर प्रहार करते हैं । वह मूर्ति पूजा की सारहीनता सिद्ध करते हुए बेझिझक कह देते हैं:-
पाथर पूजे हरि मिलें , तो मैं पूजूं पहार,
ताते तो चाकी भली, पीस खाये संसार।
कबीर न मंदिर के हैं और न ही मस्जिद के , वह न दिखावे में विश्वास करते हैं, न डरावे में। उन्हें न जप ,तप , व तिलक तथा छापा लुभाता है और न ही मुल्लाओं का मस्जिद पर चढ़कर अजान लगाना। वह तो साफ -साफ  कहते हैं :-
जप माला छापा तिलक , सरे न एको काम ,
मन कांचे  नाचे वृथा, सांचे राचे राम।
संसार के दोमुंहेपन से कबीर आजीवन त्रस्त रहे। वह संसार व उसकी प्रवृत्तियों तो अच्छी तरह से जानते हैं , वह जानते हैं, संसार न सच से संतुष्ट होता है और न ही सच उसे सुहाता है , वास्तव में कबीर का सानी कोई दूसरा है ही नहीं। वजह भी साफ  है। वह अक्खड़ हैं ,फक्कड़ हैं , मस्तमौला हैं । उन्हें न परिवार की चिन्ता है न किसी का डर। वह अंदर और बाहर दोनों से एक जैसे हैं। न उनके मन में मैल है और न  ही वह केवल पर उपदेशक हैं। वह जो औरों से चाहते हैं, उसे खुद पर भी पूरी तरह लागू करते हैं इसीलिए मरने से पहले काशी छोड़ कर मगहर में चले जाते हैं यानि उन्हें तो अपने मोक्ष तक की परवाह नहीं है । वह तन रूपी चदरिया को बिना मैली किये ही धर देने वाले संत हैं । कबीर  के बारे में कितना भी कहा जाए कम ही रहेगा। बस इतना ही कहना पर्याप्त है, उन्हीं के शब्दों में:-
जब तू आया जगत में , जग हंसिया तू रोय,
ऐसी करनी करि चल्या , तू हंसिया जग रोय।

—डॉ. घनश्याम बादल