पर्व-त्यौहारों पर सुरक्षा का सवाल

गणेश चतुर्थी के अवसर पर गणेश मूर्ति विसर्जन के दौरान मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली में 33 लोगों के डूब कर मारे जाने की घटनाओं ने एक ओर जहां ऐसे अवसरों पर दिखाई देने वाली प्रशासनिक कोताही की ओर ध्यान आकर्षित किया है, वहीं ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजकों की लापरवाही और कुप्रबंधन को भी खुलेबन्दों उजागर किया है। इसका प्रमाण मध्य प्रदेश में भोपाल के खटलापुर घाट पर घटित नाव दुर्घटना से साफ तौर पर मिल जाता है, जिसमें सिर्फ प्रबंधों की कोताही और प्रबंधकों की आपराधिक लापरवाही के कारण 11 लोग झील में डूब कर मारे गये। नि:संदेह इस दुर्घटना को होने देने के लिए प्रशासनिक तंत्र का आंखें मूंद लेना बड़ा  कारण बना, परन्तु प्रबंधकों द्वारा बिना समुचित प्रबंध, बिना सूचना एवं बिना सुरक्षा उपायों को अपनाये, क्षमता से अधिक लोगों को नावों में सवार करा लेना घोर कोताही सिद्ध हुआ। प्राय: ऐसे अवसरों पर होता यह है कि अति उत्साह और आस्था के कारण विसर्जन हेतु सजी नावों में चलते-चलते भी कुछ लोग भाग-कूद कर सवार हो जाते हैं। वर्तमान में भी ऐसा ही हुआ है। विसर्जित की जाने वाली मूर्ति बड़ी और भारी थी। प्रशासनिक तंत्र को भी इसका इल्म था। नाविकों को भी इस आसन्न खतरे की जानकारी थी। इसके बावजूद आस्था से लबरेज़ गणेश भक्तों ने सुबह के निखरने से पूर्व ही, मुंह-अंधेरे अपर्याप्त प्रबंधों के तहत मूर्ति विसर्जन का फैसला किया, जिसका परिणाम इस त्रासद एवं भीषण दुर्घटना के रूप में निकला।
मूर्ति-विर्सजन की अन्य दुर्घटनाएं महाराष्ट्र के 11 ज़िलों में घटित हुईं, जिनमें 18 लोगों के डूब कर मारे जाने की सूचना है। दिल्ली में यमुना नदी में भी गणेश विसर्जन के दौरान दो महिलाओं और दो पुरुषों के मारे जाने का समाचार मिला है। यह कोई एकाकी अथवा पहली बार हुई घटनाएं नहीं हैं। दुर्गा-पूजन के अवसर पर मूर्ति विसर्जन समारोहों के दौरान भी अक्सर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं। आस्था और अति उत्साह अक्सर ऐसी हृदय-विदारक घटनाओं के लिए उत्तरदायी बनते हैं, परन्तु धार्मिक समारोहों के प्रबंधकों में उपजती अवज्ञा की भावना और इनके क्रिया-कलापों के प्रति प्रशासनिक तंत्र का आंखें मूंद लेना आपराधिक कारण बन जाता है। ऐसी घटनाएं देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न धर्म-आस्था वाले लोगों की ओर से आयोजित समारोहों में भी होती आई हैं। मंदिरों में भगदड़ मचने की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। इन घटनाओं में कई बार दर्जनों लोग दब-कुचल कर मारे जाते हैं। हरिद्वार के कुम्भ मेलों के अवसर पर ऐसी घटनाएं कई बार हुई हैं, जिनमें दर्जनों लोग मारे गए। अभी पिछले महीने 23 अगस्त को पश्चिमी बंगाल के 24 परगना ज़िला के एक मंदिर में ऐसी ही एक भगदड़ घटना में तीन लोग मारे गये थे, और 25 अन्य घायल हुए थे। इसी वर्ष अप्रैल मास में तमिलनाडु में भी ऐसी एक घटना में सात लोगों की मृत्यु हो गई थी। पिछले वर्ष बंगला देश के चिटागांग में एक जनाज़ा के मौका पर भी ऐसी भगदड़ मची कि उसमें दस लोग भीड़ के पैरों तले कुचल कर मारे गए थे। इस घटना में अनेक लोग घायल भी हुए थे, जिनमें से अनेक गम्भीर घायल थे। दो वर्ष पूर्व मुंबई में पैदल यात्रियों के आवागमन हेतु बने पुल पर मची भगदड़ में 23 लोगों के मारे जाने की घटना ने रेलवे प्रशासन की कोताहियों एवं लापरवाहियों को खुलेबन्दों उजागर किया था।
नि:संदेह इस प्रकार की घटनाएं/दुर्घटनाएं समाज के बीच विचरण करती अनेक विसंगतियों की ओर भी ध्यान आकृष्ट करती हैं। धार्मिक आस्था और श्रद्धा-भक्ति बेशक एक बड़ा संवेदनशील मामला है, जो किसी भी सूरत, किसी भी प्रकार के प्रश्न-चिन्ह के दायरे से परे की बात है, परन्तु ऐसे आयोजनों को धार्मिक निष्ठा और आस्था के दायरे में रह कर मनाने से अनेक प्रकार की समस्याओं एवं दुर्घटनाओं से बड़ी आसानी से बचा जा सकता है। मध्य प्रदेश वाली घटना से भी सबक लिया जा सकता है। मूर्तियों के विसर्जन से पूर्व कई दिन तक पूजा-अर्चना का आयोजन भी अवश्य होता है। इनमें क्षेत्र के अधिकतर लोग शामिल होकर अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। ऐसे में नावों में भीड़-भड़क्का बढ़ाने से संकोच किया जाता, तो इस दुर्घटना से बचा जा सकता था। ऐसे अवसरों पर प्रशासन अक्सर यह कह कर बचने की कोशिश करता है कि उसने धर्म और आस्था के आयोजन में हस्तक्षेप के आरोप से बचने के लिए ऐसा किया। परन्तु इस तथ्य से भी बचा नहीं जा सकता कि इस प्रकार के हादसों के बाद मुख्य निशाने पर प्रशासन ही आता है। आज की परिस्थितियों में ज़रूरत यह है कि बड़े पर्व-त्यौहार मनाने के समय प्रशासन भी लोगों की सुरक्षा को सुनिश्चित बनाए और इसके साथ ही लोग स्वयं भी अपनी सुरक्षा संबंधी अधिक सतर्कता से काम लें। इस बात का भी विशेष तौर पर ध्यान रखा जाए कि पर्व-त्यौहार इस ढंग से मनाए जाएं कि वायु, जल और अन्य प्राकृतिक स्रोतों में प्रदूषण न बढ़े।